पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४०७

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(३१४) सूरसागर। डायन ॥ विलावल ॥ सँग सोभित वृषभानु किसोरी। सारंग नैन वैन वर सारंग सारंग वदन कहै छवि कोरी ॥ सारंग अधर सधर कर सारंग सारंग जति सारंग मति भोरी । सारंग दशन वसन पुनि सारंग सारंग वसन पीतपट डोरी। सारंग चरन पीठपर सारंग कनक खंभ अहि मनहुँ चढोरी। सारंग वरन पीठि पर सारंग सारंग गति सारंग कटि थोरी ॥ सारंग पुलिन रजनी रुचि सारंग सारंग अंग सुभग भुज जोरी। विहरत सघन कुंज सखि निरखति सूर श्याम धन दामिनि गोरी॥ ॥बिलावल कुंज भवन राधा मन मोहनारति विलास करि मगन भए अति निरखत नैन लजोहन ॥ त्रियतनु को दुख दूरि कियो पिय दैदै अपनी सोहन । बार बार भुज धरि अंकम भरि मिलि बैठे दोउ गोहनापीतांवर पटसों मुख पोंछत हरषि परस्पर जोहन । सूरश्याम श्यामा मन रिझवत पीन कचनि टकटोहन ॥ विहागरो ॥ बनहि धाम सुख नि विहाई । तैसिय नवल राधिका नागरि तैसेइ नवल कन्हाई ॥ जैसोइ पुलिन पवित्र यमुनको तैसोइ मंद सुगंध । जैसोइ कंठ कोकिला कुहुकाम तैसोइ सुख सम्बंध ॥ रति विहार करि पिय अरु प्यारी प्रात चले ब्रजधाम । सूरदास दोउ वाहाँ । जोरी राजत श्यामा श्याम ॥ ललित ॥ नवल निकुंज नवल रस दोऊ राजत हैं रंग भीने । कुसुमनि | सेज भोर उठि आवत आलसयुत अंशनि भुज दीने ॥ अरुन नैन कुच रेख विराजत श्रम जल वसन पलटि तनु लीने । सूरज प्रभु पिय प्यारीको सुख निरखत सखिन सहित ललिता हगदीने ॥ कान्हरो ॥ बरन बरन वादर मनहरन उदय करन वनधाम ते निकसत ऐसे दोऊ लागे । श्याम. घटा मध्य मानो दामिनि भामिनी राजति लाजति दुरिजाति कबहुँ प्रगट होत हारी तामें अरुन भए नैन सो सबै निशिके जागे॥मोर मुकुट पीतवसन इंद्रधनुष बीच बीच मंद मंद गरजि बोलनि पिय रंग अनुरागे । सूरदास प्रभु पियप्यारी की छवि गावत पावत कवि उपमा जे तेउ वडभागे ॥ अडाने ॥ बांहांजोरी निकस कुंज ते प्रात रीझि रीझि कहैं वाताकुंडल झलमलात झलकत विवि : गात चकचौंधीसी लागति मेरे इन नैननि आली रपटत पगनहिं ठहरात ॥ राधा मोहन बने धन चपला ज्यों चमकि चमकि मेरी पूतरीन में समातासूरदास प्रभुके वै वचन सुनहु मधुर मधुर अब मोहिं भूलीरी पांच और सात॥ विलावल ॥नवलकिसोर किसोरी बांहांजोरी आवत, रति रंग अनुरागे . कबहुँ चरन गति डगति लगत छवि नैन बैन अलसात जम्हात ऐडात गात आनंद निसा सुख जागे। वानक देखत रीझि रही हौं चंदन बंदन माल विना गुन अंजन पीक पलटि लागे । सूरदास प्रभु प्यारी राजत आवत भाजत बनेहैं मरगजे वाग।सारंगाअरुझि रहे मुकुताहल निरवारत सोहत धूपर वारे वारारतिमानी सँग नँद नंदन के छूटे बंद कंचुकी टूटे हारानिशिके जागे दोउ नैना ढरकि रहे चलति जोबन मदभारासूरश्याम संग इह सुख देखत झेि वारंवार ॥ विलावल ॥ नवलश्याम नवला श्रीश्यामा दोउ राजत बांहांजोरी चलेजात ब्रजधामाया छबिकी उपमा देवेको त्रिभुवन नहीं उपमा दामिनि धन पटतर दीवेको सकुचत कविलिएनामा सुधा शरीर परस्पर दोऊसुखदायक दिन जामा। सूरदास प्रभु नागर नागरि जीतेरतिपति कामा ललिता दोउ वनतेब्रजधामगये । रतिसंग्राम जाति । पिय प्यारी भूषण सजति नए।वै ब्रजगए आप अपने गृह चितते कोउ न टारतामन वाचा कर्मना एक दोउ एको पल न विसारता जैसे मीन नीर नहिं त्यागत एखंडित एपूरनासूरश्याम श्यामा दोउ. देखोइ तको उत को उन अधूरन॥धनाश्री|बहुरि फिरि राधा सजति शृंगार । मानहु काम हार पहिराव ति अंग रणजीते सुरति अपार ॥ कटि तट सुभटनि देत रसन पट भुज भूषण उरहार । करककन॥ | काजर नकसरि दीन्हो तिलक लिलारः॥ वीरा विहसि देत अधरनिको सन्मुख सहे प्रहार । सूरः.