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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४०७

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सूरसागर।


शयन॥ बिलावल ॥ सँग सोभित वृषभानु किसोरी। सारंग नैन वैन वर सारंग सारंग वदन कहै छवि कोरी॥ सारंग अधर सधर कर सारंग सारंग जति सारंग मति भोरी। सारंग दशन वसन पुनि सारंग सारंग वसन पीतपट डोरी॥ सारंग चरन पीठपर सारंग कनक खंभ अहि मनहुँ चढोरी। सारंग वरन पीठि पर सारंग सारंग गति सारंग कटि थोरी॥ सारंग पुलिन रजनी रुचि सारंग सारंग अंग सुभग भुज जोरी। विहरत सघन कुंज सखि निरखति सूर श्याम घन दामिनि गोरी॥ ॥ बिलावल ॥ कुंज भवन राधा मन मोहन। रति विलास करि मगन भए अति निरखत नैन लजोहन॥ त्रियतनु को दुख दूरि कियो पिय दैदै अपनी सोहन। बार बार भुज धरि अंकम भरि मिलि बैठे दोउ गोहन॥ पीतांबर पटसों मुख पोंछत हरषि परस्पर जोहन। सूरश्याम श्यामा मन रिझवत पीन कुचनि टकटोहन॥ विहागरो ॥ बनहि धाम सुख रैनि विहाई। तैसिय नवल राधिका नागरि तैसेइ नवल कन्हाई॥ जैसोइ पुलिन पवित्र यमुनको तैसोइ मंद सुगंध। जैसोइ कंठ कोकिला कुहुकनि तैसोइ सुख सम्बंध॥ रति विहार करि पिय अरु प्यारी प्रात चले ब्रजधाम। सूरदास दोउ वांहां जोरी राजत श्यामा श्याम॥ ललित ॥ नवल निकुंज नवल रस दोऊ राजत हैं रंग भीने। कुसुमनि सेज भोर उठि आवत आलसयुत अंशनि भुज दीने॥ अरुन नैन कुच रेख विराजत श्रम जल वसन पलटि तनु लीने। सूरज प्रभु पिय प्यारीको सुख निरखत सखिन सहित ललिता दृगदीने॥ कान्हरो ॥ बरन बरन वादर मनहरन उदय करन बनधाम ते निकसत ऐसे दोऊ लागे। श्याम घटा मध्य मानो दामिनि भामिनी राजति लाजति दुरिजाति कबहुँ प्रगट होत हारी तामें अरुन भए नैन सो सबै निशिके जागे॥ मोर मुकुट पीतबसन इंद्रधनुष बीच बीच मंद मंद गरजि बोलनि पिय रंग अनुरागे। सूरदास प्रभु पियप्यारी की छबि गावत पावत कवि उपमा जे तेउ वडभागे॥ अडाने ॥ बांहांजोरी निकसे कुंज ते प्रात रीझि रीझि कहैं बात। कुंडल झलमलात झलकत विविगात चकचौंधीसी लागति मेरे इन नैननि आली रपटत पगनहिं ठहरात॥ राधा मोहन बने घन चपला ज्यों चमकि चमकि मेरी पूतरीन में समात। सूरदास प्रभुके वै वचन सुनहु मधुर मधुर अब मोहिं भूलीरी पांच और सात॥ विलावल ॥ नवलकिसोर किसोरी बांहांजोरी आवतहैं रति रंग अनुरागे कबहुँ चरन गति डगति लगत छबि नैन बैन अलसात जम्हात ऐड़ात गात आनंद निसा सुख जागे॥ वानक देखत रीझि रही हौं चंदन बंदन माल बिना गुन अंजन पीक पलटि लागे। सूरदास प्रभु प्यारी राजत आवत भ्राजत बनेहैं मरगजे वागे॥ सारंग ॥ अरुझि रहे मुकुताहल निरवारत सोहत घूँघर वारे वार। रतिमानी सँग नँद नंदन के छूटे बंद कंचुकी टूटे हार॥ निशिके जागे दोउ नैना ढरकि रहे चलति जोबन मदभार। सूरश्याम संग इह सुख देखत रीझे बारंबार॥ बिलावल ॥ नवलश्याम नवला श्रीश्यामा दोउ राजत बांहांजोरी चलेजात ब्रजधामा। या छबिकी उपमा देवेको त्रिभुवन नहीं उपमा दामिनि घन पटतर दीवेको सकुचत कविलिएनामा॥ सुधा शरीर परस्पर दोऊ सुखदायक दिन जामा। सूरदास प्रभु नागर नागरि जीतेरतिपति कामा॥ ललिता ॥ दोउ बनते ब्रजधामगये। रतिसंग्राम जाति पिय प्यारी भूषण सजति नए॥ बै ब्रजगए आपु अपने गृह चितते कोउ न टारत। मन वाचा कर्मना एक दोउ एकौ पल न विसारत। जैसे मीन नीर नहिं त्यागत एखंडित ए पूरन। सूरश्याम श्यामा दोउ देखोइ तको उत को उन अधूरन॥ धनाश्री ॥ बहुरि फिरि राधा सजति श्रृंगार। मानहु काम हार पहिरावति अंग रणजीते सुरति अपार॥ कटि तट सुभटनि देत रसन पट भुज भूषण उरहार। करकंकन काजर नकवेसरि दीन्हो तिलक लिलार॥ वीरा विहँसि देत अधरनिको सन्मुख सहे प्रहार। सूर