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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४०९

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सूरसागर।


तनु सुधि विसराइ॥ बिलावल ॥ कहति छाँहसों नागरी कोहै तू माई। मिली नहीं ब्रजगाँव में री कहो कहांते आई॥ नाम कहाहै सुंदरी कहि सोंहदिवाई। कहौ न मेरे साधहैं मुख वचन सुनाई॥ दिननि हमहुँ तुम सरवरी तुव छबि अधिकाई। और संग नहिं कोउ लई यह कहि डरपाई॥ जानति हौं यह नाहिं सुनी ह्यांकी अधमाई। अभरन लेत छिडाइकै ब्रज ढीठ कन्हाई॥ सदन जाहु मेरे कहे पटु अंग छपाई। सूरश्याम जो देखिहै करिहै वरिआई॥ धनाश्री ॥ मैं उनके गुण नीके जानति। सदन जाहु मर्यादा जैहै कह्यो न काहे मानति॥ अपनी दशा कहौं तो आगे जैसी विपति बनाइ। मथुरा चली जाति दधि बेचन घरि लई उन आइ॥ गोरस लियो अभूषण छीन्यो तुम एक हम अनेक। सूरश्याम जो देखन पैहै करिहै अपनी टेक॥ बिलावल ॥ तेरे हित को कहतिहों मानो जिनि मानो। तू आई है आजुही उनको का जानो॥ ऐसो ढीठ नहीं कहूं त्रिभुवनमें माई। नारि पराई देखिकै हँसि लेत बोलाई। सो अपने सहजहि मिलै उनके गुण ऐसे। भूषण लेत मँगाइके औरौ गुण नैसे। काहूको नहिं डरपही मथुरापति धरकै। मनको भायो करत हैं कबहूं नहिं हरकै॥ तुम सुंदरि काकी वधू घर जाहु सवारी। सुरश्याम सुनि सुनि हँसे मनही मन भारी॥ मारू ॥ नागरी चरित पिय चाकेत भारी। अंगकी छबि निरखि प्रथमही बिवस ह्वै प्रतिबिंब निरखत देह सुधि बिसारी॥ एक राधा दूसरी वाहि जानि जिय नागरी पास आवत लजाही। नैन ठहराइ ठहराइ पुनि पुनि रहै कहै नहिं कछू हरषत डराही॥ पुनि उठत जागि देखै मुकुरनारि कर ललचात अंकभरि लैन लोरै। सूर प्रभु भावती के सदा रस भरे नैन भारि भरि प्रिया रूप चौरै॥ गुंडमलार ॥ धन्य हरि नैन धनि रूप राधा। धन्य वह मुकुर धनि धन्य प्रतिबिंवब मुख धन्य दंपति रहति भेष आधा॥ धन्य श्रृंगार धनि धन्य निरखनि श्याम धन्य छबि लूटि लूटत मुरारी। सूर प्रभु चतुर चतुरी नवल नागरी रहै प्रतिबिंब पर नैन जोरी॥ केदारो ॥ श्यामा जू आपनो रूप देखि रीझि रीझि नेकहु दर्पण दूरि न करति। अपनी छबि जु निहारति अपनों तन मन वारति बिवस ह्वै प्रतिबिंब के पांइन परति॥ कवहूँ श्यामकी सकुच मानति यह जिय अनुमानति यासों जिनि प्रीति करै एही डर डरति। सूरदास प्रभु प्यारी की छबि निरखत न्यारे ह्वझ दृष्टि न इत उत टरति॥ आसावरी ॥ नाम काह सुंदरी तुम्हारो क्यों मोसों नहिं बोलति हौ। हँसे हँसति चितए चित्तवति तुम तनु डोलै तनु डोलति हौ॥ परमचतुर मैं जानति तुमको मोपर भौंह मरोरति हौ। लटकति सुभग नासिका बेसरि पुनि पुनि वदन सकोरति हौ॥ अरुन अधर चित्त हरन चिबुक अति दामिनि दशन लजावतिहौ। ऐसे वचन मुखकी माधुरी काहे न हमहि सुनावतिहौ॥ कहौ वचन काकी तुम घरनी काके मनको चोरतिहौ। सुनहु सूर सहजहि कीधौं रिस मोसों लोचन जोरतिहौ॥ सोरठ ॥ कछु रिस कछु नागरि जिय धरकी। यह तो जोबन रूप गहीली संका मानति हरकी॥ यह विपरीत होतहै चाहत ब्रज यह आयसुमानी। यह तौ गुणनि उजागरि नागरि वैतो चतुर बिनानी॥ कर दर्पण प्रतिबिंब निहारति चकित भई सुकुमारी। सूरश्याम अंग निरखत वा छबि मग नागरि भोरी भारी॥ बिलावल ॥सुता बिवस वृषभानुकी देखी गिरिधारी। लोचन एकटक दैरही प्रतिबिंब निहारी॥ अपनी छबि पर आपनो तन मन धन वारै बार बार हाहा करै त्रिय नाम न सारै॥ बूझति ताको कौन तू को हैरी प्यारी। मैं देखी तौ आजु ही सुंदरि गुणभारी॥ त्रिभुवन में कोऊ नहीं तेरी उपमारी। यह कहि मुख मन सोचई भई सौति हमारी॥ दृष्टि परै जिनि श्यामके तबही वश ह्वैहै। सोच करै पछिताति हैं सँगही