पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४११

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(३१८).. - सूरसागर।. । तेरे नितही प्रति आवै सुनहु राधिका गोरी हो । ऐसो आदर कबहुँ न कीन्हों मेरी अलकसलोरी हो ॥ काहे आज हरष जिय उपज्यो कहा विभव तुम पायोहो । कीधौं आजु मिले नंदनंदन पछि लहु दुख बिसरायो हो ॥ उमॅग्यो प्रेम रहत नाहिं रोके सखियन कहति सुनावैहो । सूरश्याम मेरे भवन पधारे यह कहि कहि मन भावेहो ॥ विहागरो ॥ आये श्याम अवहिँ मेरे गेह । कही जाति न सखी मोपै मिले जौन सनेह ॥ करति अंग श्रृंगार बैठी मुकुर लीन्हे हाथ । आइ पाछे भए ठाढे चतुर बर ब्रजनाथ ।। भाव इक में कियो भोरे ताहि कहत लजाउँ । निरखि अपनी छाँहको त्रिय और आनि डराउँ । जालरंधनि रहे ठाढे निरखि कौतुक श्याम । नैन औचक आनि मूंदे सुनहः । हरिके काम । देतिहौं उरहनों तुमको भये डोलत चोर। सूर प्रभु आए अचानक भवन बैठीः भोर ॥ बिलावल ॥ श्याम संग सुख लूटति हो । सुनि राधे रीझे हरि तोको अब उनते तुम छूटति- हो । भली भई हरिके रस पागी वै तुमसोराति मानत हैं । आवत जात रहत घर तेरे अंतरही पहि... चानत हैं। तुम अति चतुर चतुर वे तुमते रूप गुणनि दोउ नाके हो। सूरदास स्वामी स्वामिनि । दोउ परमभावते जीके हो ॥ अडानो ॥ भलेही मेरे लालन आएरी आजु. मैं फूली अंग न समाई। गाऊं वजाऊँ रस प्रेम भरि नाचौं तन मन धन न्यवछावर करि डारों एहि विधि करति वधाई।धनि । धनि भाग धनि धनिरी सुहाग धनि अनुराग धनि धन्य कन्हाई ॥ धनि धनि रैनि धनि धनि दिन ॥ जैसो आज धनि घरी धनि पल पनि धनि धनि माईधनि गेह धनि देह धनि री शृंगार वह धान.. प्रतिविष धनि रही मैं भुलाईधनि धनि सूर प्रभु धनि अवलोकनि धनि नैन मूंदे कर धान धान पियः ।। सुखदाईईमन। बनि बनि आवत हैं लाल भाग डेरी मेरे दरश देखन को अति सुख उपजत और। सन्मुख जब हेरे॥ तब मैं हँसति जब मंद मुसुकात वै आनंद मानि पिय आवत ने।सूरदास प्रभुकी सुरतिहै महारसाल टरतिनसांझ सबेरेईमनश्याम अचानक आएरीपाछेते लोचन दोउ भूदे मोको: हृदय लगाएरी।लहनो ताको जाके आवै मैं वडभागिनि पाएरी। यह उपकार तुम्हारो सजनी रूसे कान्ह मिलाएरी ॥ ल्याइ तुरत जादिन तू हरिको मैं अपराध क्षमाएरी। सूरदास प्रभु नैननि लागे भावत नहिं विसराएरी ॥ अथ नैननि समयके पद ॥ टोडी ॥ हरि अनुराग भरी ब्रजनारी। लोक सकुच कुलकानि विसारी।सासु ननद हारी दैगारी।सुनत नहीं को कहत कहारी ॥ सुत पति नेह जगत इह जान्यो।बज युवती तिनुकासों मान्यो।काचो सूत तोरि सोडारयो।उरग कंचुकी फिरिन निहारयो।ज्यों जलधार फिरै पुनि नाहीजैसे नदी समुद्र समाही।जैसे सुभट खेत चढ़ि धावै।जैसे सती. बहार नहिं आवै । ऐसे भजी नंदनंदनको । सकुची नाह त्यागत गृह जनको ॥ सूरज प्रभु सब :- घोषकुमारी। ज्यों गज पंक नसकै निवारी ॥ सोरठ । एहि अंतर तेही खोरिही नँद नंदन आए। सखिन सहित ब्रजनागरी पल विनु टकलाए ॥ मोर मुकुट शिरसोहई श्रवणनि वर कुंडल । ललित: कपोलनि झलमले सुंदर अति निर्मल ॥ तरुनिगई चकचौधिकै नहिं नैन थिराही । सूरश्याम. छवि निरखिकै युवती भरमाही । सोरठ ॥ देखो श्याम अचानक जात । ब्रजकी खोरि अकेले निकसे पीतांवर कटिपर फहरात ॥ लटकत मुकुट मटक भौंहनिकी चटकत चलत मंद मुसुकात । पगढे जात बहुरि फिरि हेरत नैन सैन देके नंदतात ॥ निरखत नारि निकर विथकित भए दुख सुख व्याकुल झुलति सिहात । सूरश्याम अंग अंग माधुरी चमकि चमकि चकचौंधत गात ॥ सोरठा ॥ सघन कल्पतरु तर मन मोहन । दक्षिण चरन चरन पर दीन्हे तनु त्रिभंग मृदु जोहन ॥ मणिमय जडित मनोहर कुंडल शिखी चाँदिका शीश रही फविः । मृगमद तिलक अलक।

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