पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४१३

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. . . (३२०) सरसागर। .... .: .. . फिरति भवन वन जहँ तहँ तूल आक-उधराइ । देह नहीं अपनीसी लागति यहहै मनो पराइ॥ । सुनहु सखी मनके ढंग ऐसे ऐसी बुद्धि उपाइ.। सूरश्याम लोचन वश कीने रूप ठगोरी लाइन। नैन नमेरे हाथ रहे । देखत दरश श्यामसुंदरको जलकी ठरनि वहे ॥ वह नीचेको धावत आतुर ऐसहि नैन भए।वहतौ जाइ समात उदधिमें एप्रतिअंग रए।वह अगाध कहुँ वार नपारन एउ सोभा नहिं पार । लोचन मिले त्रिवेनी कै सूर समुद्र अपार ॥ विहागरो॥ मन ते ए अति ढीठ भए।वेतो आइ बोलते कवहूं एजु गए सुगए ॥ज्यों भुवंग काचरी विसारत फिरि नहिं ताहि निहारत । तैसेहि जाइ मिले इकटकदै डरत लाज निरवारता।इंद्रिन सहित मिल्यो मन तवहीं नैन रहे मोहिंशालत। सूरश्याम सँगही सँग डोलत औरनिके घर घालत ॥ सोरठ ॥ लोचन गए निदरिके मोकों । तोहको व्यापीरी माई कहा कहतिहै मोकों ॥ मैं आई दुख कहन आफ्नी तेरे दुख अधिकारी । जैसे दीनदी नसों याचे वृथाहोइ श्रमभारी ॥ मन अपनो वश कैसेहुँ कीजै याहीते सचुपावै । सूरदास इंद्रिन समेत अरु लोचन अवहिँ मँगावै ॥ गौरी ! नैना नीके उतहि रहे । मन जव गयो नहीं मैं जान्यो ए दोउ निदरि गहे।। एतौ भए भावते हरिके सदा रहत इन माहीं। कर मीडति शिर धुनति नारि सव यह कहि कहि पछिताही ॥ मूरखके ज्यों बुद्धिपाछिली हमहूं करि दियो आगे अवतो मिले सूरके प्रभुको पावतिहौ अव मांगे ॥ पूरवी ॥ नैना नहिं आवै तुव पास । कैसेहूं करि निकसे ह्यांते अतिही भए उदास ॥ अपने स्वारथके सवकोई मैं जानी यह बात । यह सोभा सुख लूटि पाइकै अव वै काहि पत्यात ॥ षटरस भोजन त्यागि कहोको रूखीरोटीखात । सुरश्याम रसरूप माधुरी एतेपर न अघात।। जयतश्री नैन परे रस श्याम सुधामें। शिव सनकादि ब्रह्म नारद मुनि एलुब्धेहैं जामें ॥ ऐसो रस विलास नानाविधि सात खवावत डारत । सुनहु सखी वैसी निधि तजिकै क्यों नहिं तुमहि निहारत ॥ जिनि वह सुधापान सुख कीन्हों ते कैसे कटु देखत । त्योंए नैन भए गर्वीले अब काहे हम लेखत ॥ काहेको अपसोसमरतिहौ नैन तुम्हारे नाही मिले जाइ सूरजके प्रभुको इत उत कहूं नजाहीं।। भैरव ॥नन परे हरि पाछेरी।मिले अतिहि अतुराइ श्यामको रोझे नटवर काछेरी। निमिप नहीं लागत इकटकही निशि वासरनहिं जानतरी । निरखत अंग अंगकी सोभा ताही पर रुचि मानतरी ॥ नैन परे परवशरी माई उनको इनि वश कीन्हेरी । सूरजप्रसु सेवा कार रिझए उन अपने करिलीन्हेरी ॥ कल्याण ॥ नैना हरि अंगरूप लुब्धेरी माई । लोक लाज कुलकी मर्या दाविसराई । जैसे चंदा चकोर मृगीनाद जैसे। कंचुरि ज्यों त्यागि फनिग फिरत नहीं तैसे ॥ जैसे सरिताप्रवाह सागर को धावै । कोऊ श्रम कोटि करै तहां फिरिन आवै ।। तनुकी गति पंगुकि ए सोचति ब्रजनारी । तैसेई मिले जाइ सूरजप्रभु ढारी ।। कल्याण ॥ लोचन भए श्याम वश्य कहा करौं माईरी । जितही वै चलत तितहि आपु जात धाईरी ॥ मुसुकनि दै मोललिए किए प्रगटचेरी।। जोइ जोइ वै कहत करत रहत सदा नेरी ॥ उनकी परतीतश्याम मानत नहिं अजहूं। अलकनि. रजुवांधि धरे भाजे जिनि कवहूं ॥ मन लै इन उनहि दयो रहत सदा सँगही। सूरश्याम रूप.राशि: झेि वा रंगही ॥ विहागरो । नैनाभएवजाइ गुलाम । मनवेच्यो लै वस्तु हमारी सुनहु सखी एकाम।। प्रथम भेद कार आयो आपुन मांगि पठायो श्याम । वेचि दिये निधरक हरि लीन्हें मृदुमुसुक निदै दाम ।। यह वाणी जहँ तहँ परकाशी मोल लिएको नाम । सुनहु सूर यह दोष कौनको यह तुम कहौ नवाम ॥ मारू ॥. कियो वह भेद मन और नाही । पहिलेही जाइ हरिसों कियो भेद वहि और वे काज कासों वताही ॥ दूसरे आइकै इंद्रियान लै गयो ऐसे अपदाँवसव इनहि ।