पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४२०

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दशमस्कन्ध १० . (३२७) - काहये काहि ॥ सारंग | नैना यहि ढंग परे कहा करौं माई । आए फिरि कौन कान कवहि मैं बुलाईअवलों इह आश रही मिलिहें य आई। भाँवरिसी पारिफिरें नारि ज्यों पराई। आवत ताहि लेन ऐसे दुःखदाई । मारेको मारतहे बडे लोग भाई॥ अतिही ए करत फिरत दिनही दिन ढिठाई। सूरदास प्रभु आगे चलौ कहैं जाई । गौरी ।। यहतो नैननिहीं जु कियो । सर्वस जो कछु रह्यो हमारे सो ले हरिहि दियो । बुधि विवेक कुलकानि गवाई इंदिन कियो वियो । आपुन जाइ बहुरि आयो यह चाहत रूपलियो । अब लाग्यो जिय घात करनको ऐसो निठुर हियो।सुनहु सुर प्रतिपालेको गुण वैरई मानि लियो । नट ।। मेरे नैन चकोर भुलाने । अहनिशि रहत पलक सुधि विसरे रूप सुधान अघाने ॥ पल घटिका घरी याम दिनहि दिन युग ही युग वरजाने। स्वाद परचो निमिपौ नहि त्यागत ताही मांझ समाने॥हरि मुख विधु पीवत ए व्याकुल नेकहुँ नहीं थकाने सूरदास प्रभु निरखि ललित तनु अंग अंग अरुझाने । सारंग ॥ हरि मुख विधु मेरी आँखयां चकोरी। राखे रह ति वोट पट जतननि तऊ न मानत कितकि निहोरी ॥ वरवसही इन गही मूढता प्रीतजाय चंचल सों जोरी । विवसभए चाहत उड़िलागन अटकत नेक अंजनकी डोरी वरवसही इन गही चपलता करत फिरत हमहं सों चोरी। सूरदास प्रभु मोहन नागर वरपि सुधारस सिंधु झकोरी ॥ विहागरों ॥ लोचन लालच ते नटरे । हरि सारंग सों सारंग गीधे दधिसुत काज जरे ॥ ज्यों मधुकर वश परे केतकी नहिं ह्यांते निकरे।ज्यों लोभी लोभहि नहिं छांडत ए अति उमॅगि भरे ॥ सन्मुख रहत सहत दुख दारुण मृग ज्यों नहीं डरे। वह धोखे यह जानत है सब हित चित सदाकरे॥ज्यों पग फिर फिर परत प्रेमवश जीवत मुरछि मरे । जैसे मीन अहार लोभते लीलत परे गरे ॥ ऐसेहि एलुब्धे हरि छवि पर जीवत रहत भिरे। सरसुभट ज्यों रण नहि छांडत जवलौं धरनि गिरे। नय॥ मेरे नैननि कोट समुझावैरी । अपनो घर तुम छोडे डोलत मेरे ह्यां ले आवैरी ॥ इहे वृझि देखो नीके कार जहांजात कछु पाँवरी।वृथा फिरत नटके गुण देखत नानारूप बनावैरीदेिखतके सब सांचे लागत ताहि छुवन नहिं पावैरी।सुरश्याम अंग अंग माधुरी शत शत मदन लजावैरी ।। नट ॥ हरि छवि अंग नटके ख्यालानन देखत प्रगट सबकोउ कनक मुकुता लालाछिनकमें मिटिजात सो पुनि और करत विचारा त्याही ए छवि और और रचत चरित अपारालिहै तब जो हाथ आवै दृष्टि नहिं ठहरातावृथा भूले रहत लोचन इनहि कहै कोइवातारहतनिशिदिन संग हरिके हरपनहीं समातासूर जब जव मिले हमको महा विह्वल गातफान्हगंगाभईगईए नैनन जानता फिरि फिरि जात लहत नहि सोभा हारेहुँ हारि नमारतावूझहु जाइ रहत निशि वासर नैक रूप पहिचानतासुनहु सखी सतरात इतेपर हमपर भौहें तानत।।झूठ कहत श्याम अंग सुंदर वातें गढि गढि वानतासुनहु सूर छवि अति अगाधगति निगम नेति जेहि गावत । विहागरो॥श्याम छवि लोचन भटकि परोअतिहि भए वेहाल ससीरी निशिदिन रहत खरेहमते गए लूटिलेवेको उनहि परयो अव सोचाअपनो कह्यो तुरत फल पायो राखात धुंघट वोट ॥ इकटक रहत पराएवशभए दुख सुख समुझि नजाइ । सूर कही ऐसो को त्रिभुवन आवे सिंधु थहाइ ।। नट | नैन भये वोहितके काग । राड़ि उडि जात पार नहिं पावे फिरि आवत नाह लागा। ऐसी दशा भईरी इनकी अब लागे पछितानामो वरजत वरजत उठि धाये नहिं पायो अनुमानायिह समुद्र वोछे वासन ए धरे कहासुखराशि।सुनहु सूरए चतुर कहावत वहछवि महा प्रकाशि ॥ गौरी ॥ हारि जीत नैना नहिं जानत । धाए जात तहीको फिरि फिरिवै कितनो अपमानत ॥ परे रहत द्वारे सोभाके वोई गुणं गुणि गानत ! हरपत रहत सबनिको निदरैःनेकहु