पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४२२

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दशमस्कन्ध १० । (३२९) इनको क्यों सौंप्यो यह कहि कहि पछितावै ।। धनाश्री ॥ नैनन यह कुटेव पकरी । लूटत श्याम रूप आपुनहीं निशि दिन पहर घरी ॥ प्रथमहि इन इह नोखे पाई गए अतिहि इतराइ । मिले अचानक बड़भागी, पूरण दरशन पाइ॥ लोभी बड़े कृपणको इनसरि कृपा भई यह न्यारी। सूरश्याम उनको भए भोरे हमको निठुर मुरारी ॥ भौरी ॥ सुन सजनी मोसों इक बात । भाग विना कछु नहीं पाइए तू काहे पुनि पुनि पछितात ॥ नैनन बहुत करीरी सेवा पल पल घरी पहर दिन राति । मन वच क्रम दृढता इनकी है धन्य धन्य इनकी है जाति ॥ कैसे मिले श्याम इनको ढरि जैसे सुतके हितको मात । सूरदास प्रभु कृपासिंधु ॥ वे सहज बड़े हैं त्रिभुवन तात ॥ भैरों ॥ नैन श्याम सुख लूटत. हैं । इहै वात मोको नाहि भावै हमते काहे छूटत हैं ।। महाअक्षय निधि पाइ अचानक आपुहि सबै चुरावत हैं। अपने हैं ताते यह कहियत श्याम इनहि भरुहावत हैं। यह संपदा कहौ क्यों पचिहै वाल संघाती जा नत हैं। सूरदास जो देते कछु इक कहौ कहा अनुमानत हैं । रामकली ॥ सजनी मोते नैन गए। अब लौं आश रही आवनकी हरिके अंग छए । जवते कमल वदन उन दरझ्यो दिन दिन और भए। मिले जाइ हरदी चूने ज्यों एकहि रंग रए । मोको तजि भए आपु स्वारथी वा रस मत्त भए। सूरश्यामके रूप समाने मानो पूँदतए। विहागरो ।। नैन गएरी अति अकुलातः । ज्यों धावत जल नीचे मारग कहूं नहीं ठहरात ॥ कहा कहौं ऐसी आतुरता पवन वश्य ज्यों पात । ज्यों आए ऋतु राज सखीरी द्रुमन तेज झहरात । आइ बसी ऐसी जिय उनके मैं व्याकुल पछितात । सूरदास कैसेहुँ न वहुरे गीधे श्यामल गात।।रामकली। लोभी नैन हैं ये मेरे। उतहि श्याम उदार मनके रूप निधि टेरे॥ जातही उन लूटि खाई तृपा जैसे नीर । क्षुधामें ज्यों मिलत भोजन होत जैसे धीर॥ वैः भएरी निठुर मोको अव परी यह जान । अष्ट सिद्ध नव निद्धि हरितजि लेहि ह्या कह आन ॥ आपने सुखके भए वे हैं जो युग अनुमान । सूर प्रभु कार लियो आदर बड़े परम सुजान। आसावरी ॥ नैननते हरि आप स्वारथी आज बात यह जानीरी। ए उनको वे इनको चाहत मिले दूध अरु पानीरी ।। सुनियत परम उदार श्याम घन रूप राशि उन माहीरी । कीजै कहा कृपणकी संपति नैन नहीं जु पत्याहीरी ॥ विलसत डारत रूप सुधानिधि उनकी कछु न चलावैरी । सुनह सूर हम स्वाति बूंदलौं रटलागी नहिं पावैरी ।। सारंग ॥ जाते परयो श्याम धन नाम । इनते निठुर और नहिं कोई.कवि गावत उपमान ॥ चातकके रट नेह सदा वह ऋतु अनऋतु नहिं हारत । रस ना तारूसों नहिं लावत पावै पीव पुकारत ।। वै वरपत डोगर वन धरणी सरिता कूप तडाग । सूरदास चातक मुख जैसे वृंद नहीं कहुँ लाग ॥ मलार॥ श्याम घन ऐसे हैंरी माई । हमको दरश न ही सपनेहूं धरे रहत निठुराई।पटऋतु व्रत तनु गारि कियो क्यों चातक ज्यों रट लाई । उनमें है चित सदा हमारो नैक नहीं विसराई ॥ इंद्री मन लूटत लोचन मिलि इनको वै सुखदाई । सुर स्वाति चातककी करनी ऐसे हमाहिं कन्हाई ॥ सारंग ॥ नैनन हरिको निठुर कराए । चुगली करी जाइ उन आगे हम ते वे उचटाए ॥ इहै कहो हम उनहि वोलावत वे नाहिन ह्यां आवत । आरज पंथ लोककी संका तुम तन आवत पावत ॥ यह सुनिक उन हमहि विसारी राखत नैनन साथ । सेवावश करिकै लूटतहैं वात आपने हाथ ॥ संगहि रहत फिरत नाहि कतहूं आए स्वारथी नीके । सुनहु सूर वे एउ तैसेइ बड़े कुटिलहैं जीके ॥ कपटी नैननते कोउ नाहीं ॥ घरको भेद औरके आगे क्यों कहिवेको जाहीं। आपगए निधरक द्वै हमते वरजि वरजि पचिहारी । मनका -