पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४२४

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दशमस्कन्ध-१० (३३१) । भये डोलत हैं मेरे नैना दोई ॥ निठुर रहत ज्यों शशि चकोरको वै उन विन अकुलाही । निठुर रहत दीपक पतंग उड़ि ज्यों जरि वरि मरि जाहीं ॥ निठुर रहत जैसे जल मीनहि तौसिय दशा हमारी । सूरदास धृग धृग तिनकोहै जिनके नाही पीर परारी॥धनाश्रीनैिना मानैं नहिं मेरो वरज्यो। इनके लिए सखीरी मेरो बाहर रहै न घरज्यो।यद्यपि जतन किये राखतिही तदपि न मानत हरज्यो। परवश भई गुडी ज्यों डोलति परयो पराए करज्यों ॥ देखे विना चटपटी लागति कछू मूंड पढि परज्यों । को बकि मरे सखीरी मेरे सूरश्याम के थरज्यों ॥ नटनारायण ॥ नैना कह्यो मानत नाहिं । आपने हठ जहां भावत तहां को ए जाहिं ॥ लोकलजा वेदमारग तजत नहीं डराहि । श्याम रसमें रहत पूरण पुलक अंगन माहि ॥ पियहिके गुण गुणत उरमें दरश देखि सिहाहिं। वदत हमको नेक नाही मरहिं जो पछिताहि ॥ धरनि मन विच धरी ऐसी कर्मना कार ध्याहि ।। सूर प्रभुपदकमल अलि है रैनि दिन न भुलाहि ॥ आसावरी ॥ परी मेरे नैनन यह वानि । जब : लगि मुख निरखत तब लगि सुख सुंदरताकी खानि ॥ एगीधे वीधे न रहत सखिं तनी सवानकी कानि । सादर श्रीमुखचंद्र विलोकत ज्यों चकोर रति मानि ।। अतिह अधीर नीर भरि आवत सहत न दरशन हानि । कीजे कहा बांधि करि सौंपी सूरश्यामके पानि । नेतश्री। नैनन ऐसी वानि परी । लुब्धे श्याम चरणपंकजको मोको तनी खरी ॥ बूंघटवोट किए राखतिही अपनीसी जु करी। गए पेलि ताको नहिं मान्यो देखो ज्यों निदरी ॥ गए सु गए फेरि नहिं बहुरे काधौं जियहि धरी। सुनहु सूर मेरे प्रतिपाले ते वश किए हरी॥ सारंग ॥ नैननहीं समुझाइ रही। मानत नहीं कहो काहूको कठिन कुटेव गही। अनजानतही चितै वदनछवि सन्मुख शूलसही। तनु विसरयो कुलकानि गवाई जगउपहास सही ॥ एते पर संतोप न मानत मर्यादा न गही । मगन होत वपुश्याम सिंधुमें कहून थाहलही ॥ रोम रोम सुंदरता निरखत आनंद उमॅगि ढही । सूरदास इन लोभिनके सँग वन वन फिरति वही ॥ रामकली ॥ नैना कह्यो नमानै मेरो। हारि मानिकै रहीमौन है निकट सुनत नहिं टेरो॥ ऐसे भए मनो नहिं मेरे जयहिं श्याम मुख हेरो। मैं पछिताति जवहिं सुधि आवति ज्यों दीन्हों मोहिं डेरो ॥ एतेपर कबहूं जब आवत झरपत लरत घनेरो। मोहूँ वरवस उतहि चलावत दूत भयो उन केरोलोक वेद कुलकानि नमानै अतिही रहत अनेरो। सुरश्याम धौं कहा ठगोरी लाइ कियो धरि चेरो कल्याणाकवहुँ कबहुँ आवत ए मोहि लेन माईरी। आवतही इहै कहत श्याम त्वहिं बोलाईरी ॥ नेकहू न रहत विरामि जात तहां धाईरी । मानो पहँचान नहीं ऐसे विसराईरी । उनको सुख देत मोहिं वहिवेको पाईरी । सूरझ्याम सँगही सँग निशि वासर जाईरी ॥ विहागरो ॥ मेरे नैननही सब दोष । विनही काज और को सजनी कतकीजै मन रोप। यद्यपिही अपने जिय जानति अरु वरजै सब घोप । तथापि वा यशुमतिके सुत विन कहूं न सुख संतोप । कहि पचिहारि रही निशि वासर और कंठ करि सोप । सूरदास अब क्यों विसरतुहै मधुरिपुको परितोप ॥ सोरठ ॥ मेरे नैना दोप भरे । नँदनंदन सुंदर वर नागर देखत तिनहिं खरे ॥ पलक कपाट तोरिकै निकसे चूंघट वोट न मानत । हाहाकरि पॉइन परि हारी नैकहु जो पहिचानत ॥ ऐसे भए रहत ए मोपर जैसे लोग बटाउ । सोऊतौ वूझते बोलत इनमें इह निठुराउ ॥ ए मेरे अब होहिं नहीं सखि हरि छवि विगरि परे। सुनहु सूर ऐसेउ जन जगमें करता करनि करे । रामकली ॥ नैना मोको नहीं पत्याहिं । जे लुब्धे, हरिरूप माधुरी और गनत ए.नाहि ॥ जिनि दुहि धनु आदि पय चाख्यो ते मुखपरसें छाक । ज्यों मधुकर मधुकमल - -