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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४२७

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सूरसागर।


सुनि चितै रहत उत उनकी वोर। मोहन मुख मुसुकाइ चले मानों भेद भयो यह लै अंकोर॥ हरिको दोष कहा कहि दीजै जो कीजै सो इनको थोर। सूर संग सोवत न परी सुधि पायो मरम वियोगन भोर॥ गौरी ॥ नैन करत घरहीकी चोरी। चोरन गए श्याम अँग सोभा उत शिरपरी ठगोरी॥ अपवश करि इनको हरि लीन्हें मोतन फेरि पठाए। जो कछु रही संपदा मेरे सुधि बुधि चोर लिवाए॥ राधा ए आए निधरकसों लैगए संग लगाइ। सूरश्याम ऐसे हैं माई उलटी चाल चलाइ॥ सारंग ॥ नैनन प्राण चोरि लै दीने। समुझत नहीं बहुत समुझाए आति उत कंठ नवीने॥ अति हौ चतुर चातुरी जानत सकल कला जु प्रवीने। लोभ लिये परवश भइ माई मीन जुवंसी भीने॥ कहा कहौं कहिवे नहिं लायक मते रहत भर हीने॥ आपु बँधाइ पुंजि ले सौंपी हरिरस रतिके लीने। ज्यों डोरे वश गुडी देखि यत डोलत संग अधीने। सूरदास प्रभु रूपसिंधुमें मिले सलिल गुण कीने॥ नट ॥ ये लोचन लालची भएरी। सारंगरिपुके रहत नरोंके हरिस्वरूप गिधएरी॥ काजर कुलफ मेलि मैं राखे पलक कपाट दएरी। मिलि मनदूत पैजकरि निकसे बहुरि श्याम पैगएरी। ह्वै आधीन पंचते न्यारे कुललज्जा न नएरी। सूरश्याम सुंदर रस अटके मानो उहइँ छएरी॥ विहागरो ॥ लोचन लोभहिमें ये रहत। फिरैं अपने काजहीको धीर नाहीं गहता॥ देखि मृषनि कुरंग धावत तृप्ति नाहीं होत। ए लहत ना हृदय धावत तऊ नाहिंन वोत॥ हठी लोभी लालची इनते नहीं कोर और। सुर ऐसे कुटिलको छबि श्याम दीन्हों ठौर॥ रामकली ॥ लोचन मानत नाहिंन बोल। ऐसे रहत श्यामके आगे मनुदै लीन्हें मोल॥ इत आवत दै जात देखाई ज्यों भवँरा चकडोर। उतते सूत्र नटारत कतहूं मोसों मानत कोर॥ नीके रहे सदा मेरे वश जाइ भए ह्वां जोर। मोहन शिर मोहनी लगाई जब चितए उनि वोर॥ अब मिलि गए श्याम मनमाने निशि वासर इक ठौर। सूरश्यामके चोर कहावत राखेहैं गिरिगौर॥ रामकली ॥ नैना उनही देखे जीवत। सुंदर बदन तडाग रूप जल निर खनि पुटभरि पीवत॥ राखे रहत और नहिं पावै उन मानी परतीति। सूरश्याम इनसों सुख मानत देखे इनकी प्रीति॥ गूजरी ॥ नैना नाहिंन कछू विचारत। सन्मुख समर करत मोहनसों यद्यपि हैं हठिहारत॥ अवलोकत अलसात नवल छबि अमित तोष अतिआरत। तमकि तमकि तरकत मृगपति ज्यों घूंघट षटहि विदारत॥ बुधि बल कुल अभिमान रोष रस जोवत भवहि निवारत। निदरे विउह समूह श्याम अंग पेखिपलक नहिं पारत॥ श्रमित सुभट सकुचत साहस करि पुनि पुनि सुखहि सम्हारत। सूर स्वरूप मगन झुकि व्याकुल टरत न इकटक टारत॥ ॥ विहागरो ॥ श्याम रंग नैना राचरी। सारंग रिषुते निकसि निलज भए अब परगट नाचेरी॥ मुरली नाद मृदंग मृदंगी अधर बजावन हार। गायन घर घर घेर चलावत लोभ नचावन हार॥ चंचलता नृत्यनि कटाक्षरस भाव बतावत नीके। सूरदास ए रीझे गिरिधर मनमाने उनहीके॥ ॥ रामकली ॥ नाचत नैन नचावत लोभ। यह करनी इन नई चलाई मेटि सकुच कुल क्षोभ॥ घूंघट घट त्याग्यो इन मन क्रम नाचहि पर मनमान्यो। घर घर घेरि मृदंग शब्दकरि निलज काछनी वान्यो॥ इंद्री मन समाज गायन ए ताल धरे रहैं पाछे। सूर प्रेम भावनिसों रीझे श्याम चतुरवर आछे॥ धनाश्री ॥ नैनन सिखवत हारि परी। कमल नैन मुख विनु अवलोके रहत न एक घरी॥ हों कुलकानि मानि सुनि सजनी घूंघट वोट करी। वे अकुलाइ मिले हरि ले मनलैतनहूकी बुद्धिहरी॥ जबते अंग अंग छबि निरखत सो चितते नटरी। सूरश्याम मिलि लोक