पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४२८

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दशमस्कन्ध-१० (३३६) वेदकी मर्यादा निदरी ॥ विलावल ॥ इन नैननसोरी सखी मैं मानी हारि । साट सकुच नहिं मानहीं बहुवारनि मारि॥ डरत नहीं फिरि फिरि रै हरि दरशन काज । आ गए मोहं कहैं चलि मिलि ब्रजराज ॥ बूंघट घरमें नहिं रहै कहि रही बुझाइ । पलक कपाट विदारिकै उठि चले | पराइ ॥ तवते मौनभई रहौं देखत ए रंग । सूरज प्रभु जहँ जहँ रहै तहँ तहँ ए संग ॥ गुजरी ॥ नैना बहुत भांति हटके । बुधि वल छल उपाइ करि थाकी नैक नहीं मटके ॥ इत चितवत उतही फिरि लागत रहत नहीं भटके । देखतही गड़े गए हाथते भए वटा नटके । एकहिपरनि परे खग ज्यों हरि रूपमांझ लटके। मिले जाइ हरदी चूना त्यों फिरि न सुर फटके । नेतश्री ।। बहुत भांति नैना समुझाए। लंपट तदपि सकोच न मानत यद्यपिचूंघट पट अटकि दुराए। निरखि नवल इतराहि जाहि मिलि विविखंजन अंजन जनुपाए । श्याम कुँवरके कमल वदनको महामत्त मधुकर ढ धाए । बूंघट वोट तजी सरिता ज्यों श्यामसिंधुके सन्मुख धाए । सुरश्याम मिलकरि पलकनसा विनमोलहि हठि भए पराए । सारठ॥ नटके वटा भए ए नैन । देखतिहाँ पुनि जात कहांधौं पलक रहत नहिं ऐन ।। स्वांगीसे एभए रहतहैं छिनही छिनए और ऐसे जात रहत नाहिं रोके हैहते अति दौर ॥ गए सु गए गए अब आए जात लगी नहिं वार । सूरश्याम सुंदरता चाहत । जिनको वारनपार ।। विहागरो । मोते नैन गएरी ऐसे । देखे वधिक पिंजराते खग छूटि भजत । है जैसे ॥ सकुच फांसि में फंदे रहत हैं ते धों तारें कैसे । मैं भूली यहि लाज भरोसे राखतिही ए वैसे ।। श्यामरूप वनमांझ समाने मोपै रहैं अनैसे । सूर मिले हरिको आतुर राज्यों सुरभी सुत तेसे । नेतश्री ॥ लोचनभए पराए जाइ । सन्मुख रहत टरत नहिं कबहूं सदा करत सिवकाइ॥ हांती भए गुलाम रहतहैं मोसों करत ढिठाइ । देखत रहति चरित इनके सब हरिहि कहोंगी जाइ । जिनको मैं प्रतिपालि बड़े किए ते तुम क्शकार पाइ । सृरश्यामसों यह करि लेहौं अपने पल पकराइ । टोही ।। अब मेंहूं यहि टेक परी । राखों अटकि जान नहिं पावें क्यों मोको निदरी॥ मोन भई में रही आजुलौं अपनोइ मन समुझाऊं। एऊ मिले नैनही डागरि देखति इनहु भगाऊं।। सुनरी सखी मिले ए कपके इनहीको यह भेद । सूरदास नहिं जानी अबलौं वृथा करति तनुखेद ॥ धनाश्री ॥ नैना भए पराए चेरे । नंदलालके रंग गए राँग अब नाहिन वशमेरे । यद्यपि जतन किए जुगवतिही श्यामलसोभा धेरै । तर मिलि गए दूध पानी ज्यों निवरत नहीं निवरेगकुल अंकुश आरजपथ तजिकै लाज सकुच दिये डेरे। सूरश्यामके रूप भुलाने कैसहुँ फिरत न फेरे । रामकली ॥ जाकी जैसी वानि परीरी। कोड कोटि करें नहिं छूटै जो जेहि धरनि धरीरीवारेहीते इनके एढंग चंचल चपल अनेरे। वरजतही वरजत उठि दौरे भए श्यामके चेरे।। ये उपजे वोछे नक्षत्रके लंपट भए वजाइ । सूरकहा तिनकी संगति जे रहैं पराए जाइ ॥ आसावरी । नैननकोरी इहै. सुहाइ । लुब्धे जाइ रूप मोहनको चेरे भए वजाइ ॥ फूले फिरत गिनत नहिं काहू आनंद उर न समात । इहै वात कहि सवन सुनावति नेकह नहीं लजात ॥ निशि दिन करि सेवा प्रतिपाले बड़े भए जव आइ । तब हमको ये छांडि भगाने देखो सूर सुभाइ । कान्हरो ।। देखत हरिको रूप नैना हारेरी पै हारिन मानत । भए भटकि वलहीन क्षीन तनु तउ अपनी जै जानत ॥ दुरत न पटुकी वोट प्रगट व वीच पलक नहिं आनत । छुटि गये कुटिल कटाक्ष अलक मनो टूटि गए गुण तानत । भाल तिलक ध्रुव चाप आपले सोइ संधान सँधावत । मन क्रम वचन समेत सूर प्रभु नहिं अपवल पहिचानत ॥ सूही ॥ हारि जीति दोऊ सम इनके । लाभ हानि ।