वेदकी मर्यादा निदरी॥ बिलावल ॥ इन नैननसोंरी सखी मैं मानी हारि। साट सकुच नहिं मानहीं बहुवारनि मारि॥ डरत नहीं फिरि फिरि अरैं हरि दरशन काज। आपु गए मोहं कहैं चलि मिलि ब्रजराज॥ घूंघट घरमें नहिं रहै कहि रही बुझाइ। पलक कपाट विदारिकै उठि चले पराइ॥ तबते मौनभई रहौं देखत ए रंग। सूरज प्रभु जहँ जहँ रहै तहँ तहँ ए संग॥ गूजरी ॥ नैना बहुत भांति हटके। बुधि बल छल उपाइ करि थाकी नैक नहीं मटके॥ इत चितवत उतही फिरि लागत रहत नहीं अटके। देखतही उड़ि गए हाथते भए बटा नटके। एकहिपरनि परे खग ज्यों हरि रूपमांझ लटके। मिले जाइ हरदी चूना त्यों फिरि न सुर फटके॥ जैतश्री ॥ बहुत भांति नैना समुझाए। लंपट तदपि सकोच न मानत यद्यपि घूंघट पट अटकि दुराए॥ निरखि नवल इतराहिं जाहिं मिलि विविखंजन अंजन जनुपाए। श्याम कुँवरके कमल वदनको महामत्त मधुकर ह्वै धाए॥ घूंघट वोट तजी सरिता ज्यों श्यामसिंधुके सन्मुख धाए। सुरश्याम मिलकरि पलकनसों बिनमोलहि हठि भए पराए॥ सोरठ ॥ नटके बटा भए ए नैन। देखतिहौं पुनि जात कहांधौं पलक रहत नहिं ऐन॥ स्वांगीसे ए भए रहतहैं छिनही छिनए और। ऐसे जात रहत नहिं रोके हैहूते अति दौर॥ गए सु गए गए अब आए जात लगी नहिं वार। सूरश्याम सुंदरता चाहत जिनको वारनपार॥ विहागरो ॥ मोते नैन गएरी ऐसे। देखे वधिक पिंजराते खग छूटि भजत है जैसे॥ सकुच फांसि में फँदे रहत हैं ते धौं तोरैं कैसे। मैं भूली यहि लाज भरोसे राखतिही ए वैसे॥ श्यामरूप वनमांझ समाने मोपै रहैं अनैसे। सूर मिले हरिको आतुर ह्वै ज्यों सुरभी सुत तैसे॥ जैतश्री ॥ लोचनभए पराए जाइ। सन्मुख रहत टरत नहिं कबहूं सदा करत सिवकाइ॥ हांतौ भए गुलाम रहतहैं मोसों करत ढिठाइ। देखत रहति चरित इनके सब हरिहि कहौंगी जाइ॥ जिनको मैं प्रतिपालि बड़े किए ते तुम वशकरी पाइ। सूरश्यामसों यह करि लेहौं अपने बल पकराइ॥ टोडी ॥ अब मैहूं यहि टेक परी। राखों अटकि जान नहिं पावें क्यों मोको निदरी॥ मौन भई मैं रही आजुलौं अपनोइ मन समुझाऊं। एऊ मिले नैनही डागरि देखति इनहु भगाऊं॥ सुनरी सखी मिले ए कबके इनहीको यह भेद। सूरदास नहिं जानी अबलौं वृथा करति तनुखेद॥ धनाश्री ॥ नैना भए पराए चेरे। नंदलालके रंग गए रँगि अब नाहिन वशमेरे॥ यद्यपि जतन किए जुगवतिही श्यामलसोभा घेरे। तउ मिलि गए दूध पानी ज्यों निबरत नहीं निवेरे॥ कुल अंकुश आरजपथ तजिकै लाज सकुच दिये डेरे। सूरश्यामके रूप भुलाने कैसहुँ फिरत न फेरे॥ रामकली ॥ जाकी जैसी वानि परीरी। कोड कोटि करैं नहिं छूटै जो जेहि धरनि धरीरी॥ वारेहीते इनके एढंग चंचल चपल अनेरे। बरजतही बरजत उठि दौरे भए श्यामके चेरे॥ ये उपजे वोछे नक्षत्रके लंपट भए बजाइ। सूरकहा तिनकी संगति जे रहैं पराए जाइ॥ आसावरी ॥ नैननकोरी इहै सुहाइ। लुब्धे जाइ रूप मोहनको चेरे भए बजाइ॥ फूले फिरत गिनत नहिं काहू आनँद उर न समात। इहै बात कहि सबन सुनावति नेकहु नहीं लजात॥ निशि दिन करि सेवा प्रतिपाले बड़े भए जब आइ। तब हमको ये छांडि भगाने देखो सूर सुभाइ॥ कान्हरो ॥ देखत हरिको रूप नैना हारेरी पै हारि न मानत। भए भटकि बलहीन क्षीन तनु तउ अपनी जै जानत॥ दुरत न पटुकी वोट प्रगट ह्वै बीच पलक नहिं आनत। छुटि गये कुटिल कटाक्ष अलकमनो टूटि गए गुण तानत॥ भाल तिलक भ्रुव चाप आपलै सोइ संधान सँधावत। मन क्रम वचन समेत सूर प्रभु नहिं अपबल पहिंचानत॥
सूही ॥ हारि जीति दोऊ सम इनके। लाभ हानि
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दशमस्कन्ध-१०
