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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३७

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सूरसागर।


बोल॥ मुक्कामाल बाल वग पंगति करत कुलाहल कूल। सारस हंस मध्य शुक सैना वैजयंति सम तूल॥ पुरइनि कपिश निचोल विविध रंग विहसत सचु उपजावै। सुरश्याम आनंद कंद की सोभा कहत न आवै॥३५॥ सूही ॥ तरुतमाल गोपाल लाल वनमाल गिरिधर हृदय विसाल। कबहुँक गोधन सँगलै बालक कबहुँ फिरत सँग सखा ग्वाल। धनि ब्रजनायक सबगुण लायक कियो महरि पोषी प्रतिपाल। कबहुँक वनिकै रहे जु बनए गोरस दान लेत तत्काल॥ पैठि पताल नाथ्यो काली फन प्रति नृत्यत विविध ताल। धन भूषन धन मुकुट जरयो नग हीरा चूनी लाल॥ धन्य सूर प्रभुता धरे राजै सँग सँग वनिता जाल। कुंडल लोल कपोल विराजत दुशन चमक सपनाल॥३६॥ कान्हरो ॥ भाल तिलक सोभित शिर केसरि नैना विंवि बने। कटि कछनी चंदन खौरि श्याम बरन घन सुंदर ऐसे नटनागरके जैएरी वारने॥ त्रिभंगी ह्वै नृत्य करत ब्रज युवतिन मंडली बिच दुहुँ दुहुँ बिच श्याम घने। मोरमुकुट शीश धरे राजतहै सूरप्रभु निरखि निरखि अमरन भजै जैजैध्वनि भनै॥३७॥ धनाश्री ॥ रास मंडल मध्य श्याम राधा। मनो घनबीच दामिनी कोंधति सुभगयेकहै रूप द्वैनाहिं बाधा॥ नायका अष्ट अष्टहु दिशा सोंहहीं बनी चहुँपास सव गोप कन्या। मिले सब संग नहिं लखति कोउ परस्पर बने षटदशसहस कृष्ण सैन्या॥ सजे शृंगार नवसात जगमग रह्यो अंगभूषण रैनि बनी तैसी। सूर प्रभु नवल गिरिधर नवल राधिका नवल ब्रजसुता मंडली जैसी॥३८॥ भैरव ॥ युवति अंग छबि निरखत श्याम। नंदकुमार श्रीअंगमाधुरी अवलोकति ब्रजबाम॥ परी दृष्टि कुच उचनि पियाकी वह सुख कह्यो नजाई। अँगिया नील मांडनी राती निरखत नैन चुराई ॥ वै निरखति पिय उर भुजकी छबि पहुँचनि पहुँची भ्राजति। करपल्लवन मुद्रिका सोहत ता छबिपर मन लाजति॥ वंदन विद निरखि हरि रीझे शशिपर बालविभास। नंदलाल ब्रजवाल कि छबि क्यों वरणै सूरजदास॥३९॥ गौरी ॥ श्यामतनु राजत पीतपिछौरी। उर वनमाल काछनी काछे कटिकिंकिनि छबि रोरी॥ वेनी सुभग नितंबनि डोलत मंदगामिनी नारी। सूथन जघन बांधि नारा बंद तिरनी पर छबि भारी॥ नखनिरंग जावककी शोभा देखत पिय मन भावत। सूरदास प्रभु तनु त्रिभंग ह्वै युवतिन मनहि रिझावत॥४०॥ सारंग ॥ नीलांवर पहिरे तनु भामिनि जनु घनमें दमकतहै दामिनि। शेष महेश लोकेश शुकादिक नारदादि मुनिकी है स्वामिनि॥ शशि सुखतिलक दियो मृगमदको खुटिला खुभी जरायजरी। नासा तिल प्रसून वेसरि छबि मोतियन माँगसुहागभरी॥ अति सुदेश मृदु चिकुर हरत चित गुंथे सुमन रसालहि। कुँवरी अति कमनीय सुभग शिर राजति गौरी बालहि। सगरी कनक रत्न मुक्तामणि लटकनि चितहि चुरावै। मानो कोटि कोटि शत मोहनी पाँइनि आनि लगावै॥ काम कमान समान भौंह दोउ चंचल नैन सरोजै। अलिगंजन अंजन दै रेखा बरषत बाण मनोजै॥ कंबुकंठ नाना मणिभूषण उर मुक्ताकी माल। कनक किंकिणी नूपुर कलरव कुंजत बालमराल॥ चौकी हेमचंद्र मणिलागी हीरारतन जरायखची। भुवन चतुर्दशकी सुंदरता राधेके मुखमनहिं रची॥ सजल मेघ घन सांवल सुंदर वाम अंग अति सोहै। रूप अनूप मनोहर मोहे ता उपमा कहिकोहैं॥ सहज माधुरी अंग अंग प्रति सुवश किए ब्रजनाथ धनी। अखिललोक लोकेश विलोकत सब लोकन महिं एक गनी॥ कबहुँक हरि सँग नृत्यति श्यामा श्रम कनबूंद बिराजतयो। मानहु अधर सुधाके कारण शशि दूजो मुकताहतयो॥ रमा उमा अरु शची अरुंधति दिन प्रति देखन आवैं। निरखि कुसुम सुरगण हैं वर्षत प्रेम मुदित यश गावैं ॥ रूप राशि सुखराशि राधिका शील महागुणराशी। कृष्णचरणते पावहि श्यामा