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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३८

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दशमस्कन्ध-१०


जे तुव चरण उपासी॥ जगनायक जगदीश पियारी जगतजननि जगरानी। नित विहार गोपाल लाल सँग वृंदावन रजधानी। अगतनिको गति भक्तनकी पति श्रीराधापद मंगलदानी। अशरन शरनी भव भय हरनी वेद पुरान बखानी॥ रसना एक नहीं शत कोटिक सोभा अमित अपारी। कृष्णभक्ति दीजै श्रीराधे सूरदास बलिहारी॥४१॥ विहागरो ॥ नृत्यत श्याम नाना रंग। मुकुट लटकनि भ्रुकुटि मटकन धरे नटवर अंग॥ चलत गति कटि रुनित किंकिनि घूंघरू झनकार। मनो हंस रसाल बानी अरस परस बिहार॥ लसति कर पहुँची सो पुंजय मुद्रिका अति ज्योति॥ भावसों भुज फिरत जबहीं तबहिं सोभा होति॥ कबहुँ नृत्यत नारि गति पर कबहुँ नृत्यत आपु। सूरके प्रभु रसिक की मणि रच्यो रास प्रतापु॥४२॥ विहागरो ॥ गति सुधंग नृत्यत ब्रजनारी। हाव भाव नैन सैन दैदै रिझवति गिरिधारी॥ पग पग पटकि भुजनि लटकावति फंदा करनि अनूप। चंचल चलत झूमि ये अंचल अद्भुत है वह रूप॥ दुरिनिरखत अंगरूप परस्पर दोउ मनहि मन रिझवत। हँसि हँसि बदन वचन रस प्रगटत खेद अंग जलभीजत॥ बेनी छूटि लदैं बगरानी मुकुट लटकि लटकानो। फूल खसत शिरते भए न्यारे सुभग स्वातिसुत मानो॥ गान करति नागरि रीझे पिय लीन्हीं अंकमलाइ। रसवश ह्वै लपटाइरहे दोउ सूरसखी बलिजाइ॥४३॥ गौरी ॥ नृत्यत अंग अभूषण बाजत। गति सधंग सों भाव देखावत इकते इक अति राजत॥ कहत न बनै रह्यो रस ऐसो वर्णत वरणि नजाइ। तैसेइ बने श्याम तैसीये गोपी अतिही छबि अधिकाइ॥ कंकन चुरी किंकिनी नूपुर पग पैजनि बिछिया सोभित। अद्भुत ध्वनि उपजत इन मिलिकै भ्रमि २ इत उत जोवत॥ सुनि सुनि श्रवण रीझि मनही मन राधा रास रसज्ञा। सूरश्याम सबके सुखदायक लायक गुणनि गुणज्ञा॥४४॥ केदारो ॥ उपटत श्याम नृत्यत नारि। धरे अधर उपंग उपजै लेत है गिरिधारि॥ ताल मुरज रबाब बीना किन्नरी रस सार। शब्द संग मृदंग मिलवत सुघर नंदकुमार॥ नागरी सब गुणनि आगरि मिलि चलति पिय संग। कबहुँ गावति कबहुँ नृत्यत कबहुँ उपटति रंग॥ मंडली गोपाल गोपी अंग अँग अनुहारि। सूरप्रभु धनि नवल भामिनि दामिनी छबिडारि॥४५॥ विहागरो ॥ नृत्यत हैं दोउ श्यामा श्याम। अंग मगन पियते प्यारी अति निरखि चकित ब्रजबाम॥ तिरपलेति चपलासी चमकति झमकति भूषण अंग। या छबि पर उपमा कहूं नाहीं निरखत बिवस अनंग॥ श्री राधिका सकल गुणपूरण जाके श्याम अधीन। संगते होत नहीं कहुँ न्यारी भए रहति अतिलीन॥ रस समुद्र मानों उछलत भयो सुंदरताकी खानि। सूरदास प्रभु रीझि थकित भए कहत न कछू बखानि॥४६॥ कल्याण ॥ कबहूं पिय हरषि हृदय लगावै॥ कबहूँ लै लै तान नागरी सुघर प्रति सुघर नँद सुवनको मन रिझावै॥ कबहुँ चुंबन देति आकर्पि लिय लेति करति बिन चेत सब हेतु अपने। मिलति भुज कंठदै रहति अँग लटकिकै जात दुख दूरिह्वै झझकि सपने॥ लेति गहि कुचनि बिच देति अधरनि अमृत एक कर चिबुक इक शीश धारै। सूर प्रभुकी स्वामिनी श्याम अति सन्मुख ह्वै निरखि मुख नैन इकटक निहारै॥१७॥ आसावरी ॥ जो सुखश्याम करत वृंदावन सो सुख तिहुँपुर नाहींहो। हमको कहा मिलत रज उनकी यह कहि कहि अकुलाहीं हो॥सुनहु प्रिया श्रीसत्य कहतहौं मोते और नकोईहो। नंदकुमार रास रस सुख बिन वृंदावन नहिं होई हो॥ हरता करताको प्रभु मैंही वह सुख माते न्यारोहो॥ सूर धन्य राधावर गिरिधर धनि सुख नंद दुलारोहो॥४८॥ विहागरो ॥ रसवशश्याम कीन्ही नारि। अधर रस अचवत परस्पर संग सब

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