वाह चितदै सुनौ विविध विलास॥ कियो प्रथम कुमारि यह व्रत धरयो हृदय निवास । नदसुत पति देव देवी पुजै मनकी आस॥ दियो तब परसाद सबको भयो सबन हुलास। मंत्र नयना तरुन वर तर यमुना जल हरिपास॥ धरयो लग्न जो शरद निशिकी मुधि करी गुरु रास। मोर मुकुट समीर मानों कनक कंकन रास॥ वेणुध्वनि सुनि श्रवण सायक कमल वदन प्रकास। रूप प्रति प्रति
रूप कीन्हें भए अंश निवास॥ अधर निधि वेधीर कारकै करत आनन हास। फिरत भाँवरि खस्म भूषण अग्नि मानो भास॥ सुरनारि कौतुक लागि आई छाँड़ि सुत पति पास। जिय परी ग्रंथ कौन छोरै निकट ननद न सास॥ निरखि श्रुति मति कुसुम अंजलि बरषि प्रसून अकास॥ लेत या रस रासको रस रसिक सूरजदास॥५७॥ सूही ॥ यह व्रत हियधरि देवी पूजी। है कछु मन अभिलाष न दूजी॥ दीजै नंदसुवन पति मेरे। जौपै होइ अनुग्रह तेरे॥ बरष दिनन भरि तपं तनु कियो। तब करि अनुग्रह देवी बर दियो॥ छंद ॥ करि अनुग्रह वर जो दीन्हो बरष युवतिन तप कियो। त्रैलोक भूषण पुरुष सुंदर रूप गुण नाहिंन वियो॥ इत उबटि खौरि श्रृंगारि सखिअन कुँवरि चोरी आनियो। जाहि तकि यो व्रत नेम संयम सो घरी विधि वानियो॥१॥ मोर मुकुट रचिं मौर बनायो माथेपर धरि हरि वरु आयो॥ तनु श्यामल षटपीत दुकूले। देखत घन दामिनि मन भूले॥ ॥ छंद ॥ दामिनी घन कोटि वारौं जब निहारौं वह छबी। कुंडल विराजत गुंड मंडल नहीं शोभा शशि रवी॥ और कौन समान त्रिभुवन सकल गुण जेहि माहिआं। मनो मोर नाचत संग डोलत मुकुटकी परछाहिआं॥२॥ गोपीजन सब नेवते आई। मुरली ध्वनि ते पठइ बुलाई॥ बहु विधि आनंद मंगल गाए। नवफूलनके मंडप छाए॥ छंद ॥ छाये जु फूलन कुंज मंडफ प्रीति ग्रंथिहिए परी। अति रुचिर रूप प्रवीन राधिका निकट वृंदा शुभघरी॥ गाए जु गीत पुनीत बहु विधि वेद रवि सुंदर ध्वनी। नंदसुत वृषभानुतनया रासमें जोरी बनी॥३॥ मिलि मनदै सुख आसन बैसे। चितवनि वार किए सब तैसे॥ तापरि पाणिग्रहण विधि कीन्ही। तब मंडल भरि भाँवरि दीन्ही॥
छंद ॥ देत भाँवरि कुंज मंडफ पुलिन में वेदी रची। बैठे जु श्यामा श्याम वर त्रैलोककी सोभा खची॥ उत कोकिला गण करैं कोलाहल इत सकल ब्रजनारियां। आई जुनिवती दुहूं दिशि मनो देति आनँद गारियां॥४॥ भए जो मन्मथ सैन्य बराती। द्रुम फूले वन अन वन भांती॥ सुर वंदजिन सब यश गाए। मघवा जे मृदंग बजाए॥ छंद ॥ बाजहिं जे बाजन सकल नभ सुर पुहुप अंजलि बरषहीं। थकि रहे व्योम विमान मुनिगन जैजै शन्द करि हर्षहीं॥ सूरदा सहिभयो आनँद पूजी मनकी साधा॥ श्रीलाल गिरिधर नवल दुलहै दुलहनि श्रीराधा॥ विहागरो ॥ प्रथम व्याह विधि ह्वै रह्यो कंकन चार विचारि। रचि रचि पचि पचि गूंथि बनायो नवल निपुन ब्रजनारि॥ नाह छूटै मोहन डोरनाहो बडेहोवहु तब छोरियो हो ये गोकुल के राइ। की कर जोरि करौ विनती कै छुवौ श्रीराधाजीके पाँइ॥इह न होइ गिरिको धरिवो हो सुनहु कुँवर गोपीनाथ। आपुनको तुम बड़े कहावत कांपन लागेहैं दोउ हाथ॥ बहुरि सिमिटि ब्रजसुंदरी मिलि दीन्ही गांठि बनाइ। छोरहु वेगिकि आनहु अपनीयशुमति माइ बोलाइ॥ सहन सिथिल पल्लवते हरिजू लीन्हों छोरि सवारि। किलकि उठीं सब सखी श्यामकी अब तुम छोरौ सुकुमारि॥ पचिहारौ कैसेहु नहिं छूटत बँधी प्रेमकी डोरि। देखि सखी यह रीति दुहुँनकी मुदित हँसी मुख मोरि॥ अब जिनि करहु सहाय सखीरी छोडहु सकल सयान। दुलहिनि छोरि दुलहको कंकन की बोलि बवा वृषभान॥ कमल कमल
करि वरनिएहो पानि पिय गोपाल। अव कवि कुल साँचेसे लागे रोमकटीले नाल॥ लीला रास
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४०
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३४७)
दशमस्कन्ध-१०
