पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४०

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दशमस्कन्ध-१० (३४७) वाह चितदै सुनौ विविध विलास ॥ कियो प्रथम कुमारि यह व्रत धरयो हृदय निवास । नदसुत पति देव देवी पुजै मनकी आस । दियो तव परसाद सवको भयो संवन हुलास । मंत्र नयना तरु न वर तर यमुना जल हरिपास ॥ धरयो लग्न जो शरद निशिकी मुधि करीगुरु रास । मोर मुकुट समीर मानों कनक कंकन रासविणुध्वनि सुनि श्रवण सायक कमल वदन प्रकास । रूप प्रति प्रति रूप कीन्हें भए अंश निवास।अधर निधि वेधीर कारकै करत आनन हासाफिरत भाँवरि खस्म भूषण अग्नि मानो भास ॥:सुरनारि कौतुक लागि आई छाँड़ि सुत पति पास । जिय परी ग्रंथ कौन छोरै निकट ननद नसासानिरखि श्रुति मति कुसुम अंजलि वरपि प्रसून अकासालित या रस रासको रस रसिक सूरजदास ५७॥ सूही ॥ यह व्रत हियधरि देवी पूजी। है कछु मन अभिलाष । न दूजी॥दीजै नंदसुवन पति मेरे । जौपै होइ अनुग्रह तेरे।। वरप दिनन भरि तपं तनु कियो । तब कार अनुग्रह देवी वर दियो ॥ छंद ॥ कार अनुग्रह वरजो दीन्हो वरप युवतिन तप कियो । त्रैलोक भूपण पुरुप सुंदर रूप गुण नाहिंन वियो॥ इत उपटि खौरि शृंगारि सखिअन कुँवरि चोरी आनियो । जाहि तकि यो बत नेम संयम सो घरी विधि वानियो।।मोर मुकुट रचिं मौर बनायो माथेपर धार हरि वरु आयो । तनु श्यामल पटपीत दुकूले । देखत घन दामिनि मन भूले ॥ ॥ छंद ॥ दामिनी घन कोटि वारौं जब निहारौं वह छवी। कुंडल विराजत गुंड मंडल नहीं शोभा शशि रवी ॥ और कौन समान त्रिभुवन सकल गुण जेहि माहि । मनो मोर नाचत संग डोलंत मुकुटकी परछाहिआं ॥ २ ॥ गोपीजन सब नेवते आई। मुरली ध्वनि ते पठइ बुलाई ॥ बहु विधि आनंद मंगल गाए । नवफूलनके मंडप छाए ॥ छंद ॥ छाये जु फूलन कुंज मंडफ प्रीति ग्रंथि हिए परी। अति रुचिर रूप प्रवीन राधिका निकट वृंदा शुभपरी ॥ गाए जु गीत पुनीत बहु विधि वेद रवि सुंदर ध्वनी । नंदसुत वृपभानुतनया रासमें जोरी वनी ॥ ३ ॥ मिाल मनदै सुख आसन वैसे । चितवनि वार किए सब तैसे ॥ तापरि पाणिग्रहण विधि कीन्ही। तब मंडल भरि भाँवरि दीन्ही ॥ छंद ॥ देत भाँवार कुंज मंडफ पुलिन में वेदी रची। बैठे जु श्यामा श्याम वर त्रैलोककी सोभा खची ॥ उत कोकिला गण करें कोलाहल इत सकल वजनारियां । आई जुनि वती दुहूं दिशि मनो देति आनंद गारियां ॥ ४॥ भए जो मन्मथ सैन्य वराती । द्रुम फूले वन अन वन भांती।सुर वंदीजन सब यश गाए।मघवा जे मृदंग बजाए॥छंदवाजहिं जे बाजन सकल नभ सुर पुहुप अंजलि वरपहीं । थकि रहे व्योम विमान मुनिगन जैजै शन्द करि हर्षहीं ॥ सूरदा सहिभयो आनँद पूजी मनकी साधा ॥ श्रीलाल गिरिधर नवल दुलहै दुलहनि श्रीराधा ॥ विहागरो॥ प्रथम.व्याह विधि रह्यो कंकन चार विचारिरिचि रचिपचिपचि थि बनायो नवल निपुन वजना रि॥ नाह छूटै मोहन डोरनाहो बडेहोवहु तब छोरियो हो ये गोकुल के राइ। की कर जोरि करौ विनती कै छुवौ श्रीराधाजीके पाँइ॥इह न होइ गिरिको परिवो हो सुनहु कुँवर गोपीनाथ। आपुनको तुम बड़े कहावत कापन लागेहैं दोउ हाथ ॥ बहुरि सिमिटि व्रजसुंदरी मिलि दीन्ही गांठि बनाइ । छोरहुवेगिकि आनहु अपनीयशुमति माइ बोलाइसहन सिथिल पल्लवते हरिजू लीन्हों छोरि सवारि। किलकि उठीं सब सखी श्यामकी अब तुम छोरौ सुकुमार॥पचिहारौ कैसेहु नहिं छूटत बँधी प्रेमकी डोरि । देखि सखी यह रीति दुहुँनकी मुदित हँसी मुख मोर ॥ अव जिनि करहु सहाय सखीरी छोडहु सकल सयान । दुलहिनि छोरि दुलहको कंकन की बोलि बवा वृषभान ॥ कमल कमल करि वरनिएहो पानि पिय गोपाल । अव कवि कुल साँचेसे लागे रोमकटीले नाल ॥ लीला रास