पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४१

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(३४८) eets- m Emere - मुरसागर। . . . . गोपाल लालकी जो रस रसिक वखान । सदा रहो इह अविचल जोरी वलि बलि सूर समान ५८ : ॥ सारंग ॥ कान्ह तुम्हारी माइ महावल सर जग अपवश कीन्होहो । नेक चितै मुसुकाइकै उनि । सबको मन हरि लीन्होहो । कछु कुल धर्म न जानिए वाके रूप सबै रंग राचेहो । विन देखे समुझे सुने जग ठगत नकोऊ वाचेहो ॥ पहिरे राती कंचुकी शिर श्वेत उपरना सोहैहो । काटिनीलो लहँगा कस्यो सो को जो निरखि न मोहेहो। वोली चतुरानन ठगे सब अमर उपरना रातेहो । अत. रौठा अवलोकिकै सब असुर महामद मातेहो।येकनि विन दरशन ठगे निशि एकनलै सँग सोहो । एकनलै मंदिर चडै रचि एकान विरचि विगौवेहो ॥ अकथ कथा वाकी सवै कछु कहाँ तो कहियः न जाहीहो । छैलनके सँग यो फिरे जैसे तनु सँग छाहींहो । सुनि ताकी सब अपतई शुक सनका दिक भागहो । नेक दृष्टि पथ परि गई शंकर शिर टोना लागेहो । योग युक्ति विसरी सबै उर काम क्रोध मद जागेहो। लोकलाज सब छांडिकै उठि धाइ चले सँग नांगहो ।। और कहा लामें. वर्णिये परपुरुष न उवरन पावैहो । जो सोवत अतिनीदमें हो तहांऊ जाइ जगावैहो । यहिविधि इह डहकै सबै भरि जल थलहु जीव जतहो । चतुर शिरोमणि श्याम सुन्यो कनि कहौं कहांली केतहो। यहि लाजन मरिए सदा हार जब सब कहत माय तुम्हारीहो । सूरदास प्रभु वरजिक, किनि मेटहु कुलकी गारीहो ६९॥ काफी ॥ सनकादिक नारद मुनि शिव विरंचि जान देव दुंदुभी मृदंग वाजे वर निसान ।। वारने तारेन बँधाए हरि कीन्हो उछाह । ब्रजकी सब रीति भई वरसाने व्याह।।डोरन कर छोरनको आई सकल धाइ । फूली फिर सहचरी आनंद उर न समाइ ॥ गजवर गति आवनि पग धरनि धरत पाँव । लटकत शिर सेहरो मनो शिखिश्री खंड सुभाव ।। सोभित. सँग नारि अंग सबै छवि विराज । गज रथ वाजी बनाइ चवर छत्र साज ॥ दुलहिनि वृप भानु सुता अंग अंग भान । सूरदास प्रभु दुलह देखो श्रीब्रजराज ॥ ६० ॥ सारंग ।। दुलह देखोगी जाइ उतरे संकेत वट केहि मिस देखन पाऊं । फल गृथि मालाले मालिनि. बैजाऊं । नंदनंदन प्यारेको विरिआ करि लाडातमोलिनि लै जाउँ निरखि नैनन सुख देउँ। अपने गोपाल लालके मैं वागे रचि लेउँ । बजानिनि है जाउँ निरखि नैनन सुख दे । वृंदावन चंदको मैं भूपण गढि लेउँ ॥ सुनारिनि लै जाउँ निरखि नैननि सुख देउँ । चंदन अरगजा सूर के सर धरि लेउगिधिनि लै जाउँ निरखि नैनन सुख दे।६॥ विहागरो ॥ वृषभानुनंदिनी अति छवि वनी । श्रीवृंदावन चंद राधा निर्मल चांदनी॥श्याम अलक विच मोती दुति मंगा ॥ मानहु झल मलित शीश गंगा । श्रवण ताटंक सोहै चिकुरकी कांति । उलटि चल्यो है राह चक्रकी भांति । गोरे लिलाट सोहै सेंदुरको. विंद । शशिकी उपमा देत कवि कोहै निंद ॥ चपल उनीदे नैन न लागत सोहाये । नासिका चंपकलीको दै अलिधाये । वदन मंजनते अंजन गयो दूरि । कलंक रहित शशि पुनि कला पूरि।गिरि ते लता भई यह हम सुनि । कंचन लताते ? गिरि भए पनि । कंचन से ततु सोहै नीलांवरसारी । कहुनिसामध्य जनु दामिनि उजियारी ॥ नख शिख सोभा. मोपै वरनि न जाई । तुमसी तुमही राधा श्याम मनभाई ।। यह छवि सूरदास सदारहै वानी निंद नंदनराजा राधिका देरानी।।६२॥देवगंधार ।। दोऊ राजत श्यामा श्याम । ब्रजयुवती मंडली विराजत देखति सुरगन वामधन्य धन्य वृंदावनको सुख सुर पुर कौने काम । धनि वृषभानु सुता धनि मोहन धनि गोपिनको नाम ॥ इनकी को दासी सरि हैहै धन्य शरदकी याम। कैसेहु सूरजनम ब्रज पावै यह सुख नहिं तिहुँ धाम ॥६३ ॥ केदारो । विराजत मोहनमंडलरास । श्यामा सुधा सरोवर- -