पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४४

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दशमस्कन्ध-१० (३५) वोंगी। मैं हारी त्योंही तुम हारो चरण चापि श्रम मेटोंगी । सूरश्याम ज्यों उछगि लई मोहि । त्यों मैं हूं हँसि भेटोंगी॥ ७९ ॥ रामकली ॥ नृत्यत श्याम श्यामा हेत । मुकुट लटकनि भ्रुकुटि मटकनि नारि मन सुखदेत ।। कबहुँ चलत सुधंग गतिसों कबहुँ उघटत वैन । लोल कुंडल गंड मंडल चपल नैननि सैन ॥ श्यामकी छवि देखि नागरि रही इकटक जोहि । सूर प्रभु उरलाइ लीन्हो प्रेमगुण करि पोहि ॥ ८० ॥ मलारकमोद ॥ अरुझि कुंडल लटवेसरिसों पीतपटं वनमाल वीचि आनि उरञहैं दोउ जन । प्राणनसों प्राण नैन नैननसों अटकि रहे चटकीली छवि देखि लपटात श्याम घन ॥ होडाहोडी नृत्य करें रीझि रीझि अंक भरें ताता थेई थेई उपटत, हरपि मन । सूरदास प्रभु प्यारी मंडली युवती भोरी नारिको अंचल लैलै पोंछतहैं श्रमके कन ॥ ८ ॥ ॥ अडानो ॥ मोहनलाल संग ललनायों सोहैं ज्यों तरुतमालके ढिग सुभग सुमन जरदको । वदन कांति अनूप भांति नहिं सँभारति नीलांवर गगन मैन व घन विचं प्रगट्यो शशि मनो शरदको ॥ मुक्ता लड तारागन प्रतिबिंबित वेसरिको चूने मिलि रंग जैसे होत हरदको। सूरदास प्रभु मोहन गोहनकी छवि वाटी मेटति दुख निरखि नैन मैनके दरदको ॥ ८२ ॥ पूरवी ॥ नंदनंदन सुघराई मोहन बंशी बजाई सरिंगमा पधनिसा संसप्त सुरनि गाइ । अति अनगात संगीत सुपर और तान मिलाइ । सुर ध्याय ताल ध्याय नृत्य ध्याय निपुनराय मृदंग वजाइ । सूरप्रभु नवल वाल सकल कला गुण प्रवीन अरस परस रीझि रिझाइ ॥८३ ॥ विहागरो || पियक संग खेलत अधिक श्रम भयो आउरी ह्यांको क्यारि । अपनो अंचल लै सुखउरी रुचिर वदन श्रमकनके वारि ॥ नृत्यत उलटि गए अंग भूपन विथुरी अलक बाँधौ सँवारि । सूर रची रचना वृंदावन ब्रजयुवतिन सुखको वनवारि ॥ ८४ ॥ केदारो ॥ प्यारी देखि विह्वल गात । नंदनंदन देखि रीझे अंक भरि लपटात ॥ कबहुँ लेहि उछंग वाला कहि परस्पर बात । प्रेम रस करि भरे दोऊ नैन मिलि मुसुकात ॥ रास रस कामना पूरन रेनि नहीं विहात । सूर प्रभु सँग ब्रज तरुणि मिलि करत सुखन सिहात ॥ ८५ ॥ कल्याण ॥ रच्यो रास रंग श्याम सवही सुख दीन्हों। मुरली सुर करि प्रकाश सग मृग सुनि रस उदास युवतिन तजि गेह वास बनहि गवन कीन्हों। मोहे सुर असुरनाग मुनि जन गन भए जाग शिव शारद नारदादि चकृत भए ज्ञानी । अमरगन अमरनारि आई लोकनि विसारि ओक लोक त्यागि कहति धन्य धन्य वानी ॥ थकित भयो गति समीर चंद्रमा भयो अधीर तारागन लजित भए मारग नहिं पावै । उलटि यमु न वहति धार विपरीत सवही विचार सूरजप्रभु संग नारि कौतुक उपजावै ॥८६ ॥ टोही ।। नंद कुमार रास रस कीनों । बजतरुनिनि मिलिक सुख दोनों ॥ अद्भुत कौतुक प्रगट दिखायो। कि यो श्याम सवहिन मन भायो ॥ विच गोपी विच मिले गोपाल । मणिकंचन सोहति शुभमाल । राधा मोनहमध्य विराजै । त्रिभुवनकी सोभा ये भाजै ॥ रास रंगरस राख्यो भारी ।हाव भाव ना ना गति भारी ॥ रूप गुणनि करि परम उजागरि । नृत्यत अंग थकित भई नागरि ॥ उमॅगि श्याम श्यामा उर लाई । वारंवार को श्रम पाई ॥ कंठ कंठ भुज दोङ जोरे। धन दामिनि छूटति नहि छोरे ॥ सूरश्याम युवतिन सुखदाई । युवतिनके मन गर्व बढ़ाई ॥ ८७॥ सूही ॥ तव नागरि अति गर्व वढायो । मो समान त्रिय और नहीं कोउ गिरिधर मैंही वश करि पायो । जोइ जोइ. कहति करत सोइ सोई पिय मेरे हित यह रास उपायो। सुंदर चतुर और नहिं मोसी देह धरे को भाव जनायो । कबहुँक वैठि जाति हरि कर धरि कबहुँक कहाति मैं अति श्रम पायो। सूरश्याम गहि