सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३५२)
सूरसागर।


कंठ रही त्रिय कंध चढौं यह वचन सुनायो॥८८॥ बिलावल ॥ कहै भामिनी कंतसों मोहि कंध चढावहु। नृत्यकरत अतिश्रम भयो ताश्रमहि मिटावहु॥ धरणी धरत बनैं नहीं पग अतिहि पिराने। त्रिया वचन सुनि गर्वके पिय मन मुसुकाने॥ मैं अविगत अज अकल हौं यह मर्म न पायो। भाववश्य सब पै रहौं निगमान यह गायो॥ एक देह द्वै प्रान हैं दुबिधा नहिं यामें। गर्व कियो नर देहते मैं रहौ न तामें॥ सूरज प्रभु अंतर भए संगते ताजे नारी। जहां तहां ठाढी रहीं सब घोष कुमारी॥८९॥ अध्याय ॥ ३० ॥ अथ श्रीकृष्णअंतध्यार्नलीला ॥ रामकली ॥ गर्व भयो ब्रजनारि को तबहीं हरि जाना। राधाप्यारी संग लिए भये अंतर्ध्याना॥ गोपिन हरि देख्यो नहीं तब गई अकुलाई। चकित होइ पूछनलगीं कहां गए कन्हाई॥ कोउ मर्म जानै नहीं व्याकुल सब बाला। सूरश्याम ढूंढत फिरैं जित तित ब्रजबाला॥९०॥ विहागरो ॥ तब हरि भए अंतर्ध्यान। जब कियो मन गर्व प्यारी कौन मोसी आन॥ अति थकित भई चलत मोहन चलि नमोपै जाइ। कंठ भुज गहि रही यह कहि लेहु जबहि चढाइ॥ गए संग विसारि रिसमें विरस कीन्हो बाल। सूर प्रभु दुरि चरित देखत तुरत भई बेहाल॥९१॥ टोडी ॥ श्याम गए युवती सँग त्यागि। चकितभई तरुणिन सँग जागि॥ प्यारी संग लगाइ विहारी। कुंजलता तर कतहूं डारी॥ संग नहीं तहँ गिरिवर धारी। दशहुदिशा तन दृष्टि पसारी॥ परी मुरुछि धरनी सुकुमारी । कामबैर लीन्हों शरमारी॥ त्राहि त्राहि कहि कहुँ बनवारी। भई व्याकुल तनुदशा बिसारी॥ नैन सलिल भीजी सब सारी। सूरसंग तजि गए मुरारी॥९२॥ अध्याय ॥ ३१ ॥ तथा ॥ ३२ ॥ गोपी विरह ॥ राग विहागरो॥ व्याकुल भई घोष कुमारि। श्यामतजि सँगते कहाँगए यह कहति ब्रजनारि॥ दशौदिश नभ द्रुम न देखिति चकित भई बेहाल। राधिका नहिं तहाँ देखी कह्यो वाके ख्याल॥ कछुक दुख कछु हरष कीन्हों कुंज लैगई श्याम। सूर प्रभुसँग मही देखो करे ऐसे काम॥९३॥ धनाश्री ॥ विकल ब्रजनाथ वियोगन नारि। हाहा नाथ अनाथ करौ जिन टेरति वांह पसारि॥ हरिजूके लाड गर्व जो तनु सखी सकीन वचन सँभारि। जनिअतहै अपराध हमारो नहिं कछु दोष मुरारि॥ ढूँढति वाट घाट वन धन तन मुरछि नैन जलधारि। सूरदास अभिमान देहको बैठी सरवस हारि॥९४॥ नट ॥ वायें कर द्रुम टेके ठाढी। बिछुरे मदन गुपाल रसिक मोहिं विरह व्यथा तनु बाढी॥ लोचन सजल वचन नहि आवै श्वास लेति अतिगाढी। नंदलाल ऐसी हमसों करी जलते मीन धरिकाढी॥ तबकित लाड लडाइ लडइते वेनी कुसुम गुहिगाढी। सूरश्याम प्रभु तुमरे दरशविनु अब न चलत दृग आढी॥९५॥ सारंग ॥ अकेली भूलि परी वन माँह। कोऊ वायु वही कतहूंकी छूटगई पियवांह॥ जहँ जहँ जाउँ तहां डर लागत डगर न पावत नांह। सूरदास प्रभु तुमरे दरशबिनु वेइकदम वै छांह॥९६॥ विहागरो ॥ वन कुंजन चली ब्रजनारि। सदा राधा करति दुविधा देति रसकी गारि॥ संगही लैगई हरिको मुख करति वनधाम। कहां जैहै ढूंढि लेहै महारसकी वाम॥ चरण चिह्ननि चलीं देखति राधिका पगनाहिं। सूर प्रभु पगपरसि गोपी हरषि मन मुसुकाहिं।९७॥ कान्हरो ॥ हँसि हँसि युवती कहति परस्पर प्यारीको उरलाइ गएरी। श्याम काम तनु आतुरताई ऐसे वामा वश्यभएरी। पुनि देखति राधिका चिह्न पग पियपग चिह्न न पावै। की पियको प्यारी उर लीन्हों यह कहि भ्रम उपजावै॥ वै गिरिधर उरधरि क्यों लेहीं वै गिरिधर उरलीन्हों। सूर भई आतुर ब्रजनारी पियप्यारी पग चीन्हों॥९८॥ बिलावल ॥ जो देखैं द्रुमके तरे मुरछी सुकुमारी।चकितभई सब सुंदरी यहतौ राधानारी॥ याहीको खोजति सबै यह रही कहांरी। धाइ परीं सब