पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४७

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(३६४) सूरसागर। .. बन सारस खग काहू नहीं बतायोरी।मुरली अधरसुधारस लैतरु रहे यमुनके तीर। कहि तुलसी तुम सब जानतही कह घनश्याम शरीरकहिधौं मृगी मयाकरि हमसो कहिधौं मधुप मराल ।सूरदास प्रभुके तुम संगी हो कहां परम दयाल ॥ ७॥ कहूं न देख्योरी मधुबनमें माधौ । कहाँधौ मृग गमन कीन्हो कहाँधौ बिलमि रहे नैन मरत दरशनकी सांधौ ॥ जवते विठुरे श्याम तवते रह्यो नजाइ सुनौ सखी मेरोइ अपराधौ । सूरदास प्रभु विनु कैसे जीवहिं माई घटत घटत घटि रह्यो प्राण आधो ॥ ८॥ आसावरी ॥ कहूं न पाऊरी सब ढूंढि वन घन श्यामसुंदर परवा तन मन । नैनन चटपटी मेरे तबते लागी रहति कहां प्राणप्यारो निधनको धन ॥ चंपक जाइ गुलाब बकुल फूले तरु प्रति बूझति कहुँ देखे नँदनंदन । सूरदास प्रभु रास रसिक विनु रास रसिकिनी विरह विकल कार भईहैं मगन ॥९॥ काफी ॥ कोऊ कहुँ देखेरी नँदलाल | साँवरो सलोना टोटा नैन विसाल ॥ मोर मुकुट वनमाल रसाल। पीतांवर मोहै सोहै तन गोपाल। निशिं. बनगई जहां सबै ब्रजबाल । अंतर्ध्यान भए रचि ख्याल ॥ दुम ढुम ढूँढत भई बेहाल । सूर श्याम विनु विरह जंजाल॥१०॥सारंगातुम कहुँ देखे श्याम विसासीनिक मुरलिका बजाइ वाँसकी लै गए प्राणनिकासी।कबहुँक आगे कबहुँक पाछे पग पग भरत उसासी।सूरश्यामके दरशन कारण निक सी चंद्रकलासी॥११॥वागेसरी ॥ कान्हरो॥ मोहन मोहन कहि कहि टेरै कान्ह हवौ यहि वन मेरे कहि यत हो तुम अंतर्यामी पूरण कामी सब केरे॥ ढूंढतिहे द्रुम वेली वाला भई वेहाल करति अब सेरें। सूरदास प्रभु रास विहारी श्रीवनवारी वृथा करत काहे डेरें ॥ १२ ॥ अडानो ॥ कहो कान्ह ए बातें हैं तिहारी बनवारी सुखही में भए न्यारे । इक सँग एक समीप रहत तिन तजि कहां सिधारे ॥ अव करि कृपा मिली करुणामय कहियतहो सुखाप । सूरश्याम अपराध क्षमहु अब समुझी चूक हमारे ॥१३॥ परासी ॥ केहि मारग मैं जाउँ सखीरी मारग विसरयो। ना जानौ. कित द्वै गए मोहिं जातन जानि परयो । अपनो पिय ढूंढति फिरौंरी मोहिं मिलवेको चाव । कांटो लाग्यो प्रेमको पिय यह पायो दाव ॥ वन डोंगर ढूँढति फिरी घरमारग तजि गाउँ । बूझों द्रुम प्रति रूख ए कोउ कहै न पियको नाउँ ॥ चकित भई चितवत फिरीरी व्याकुल अतिहि अनाथ।अबकै जो कैसेहुँ मिलौ तौ पलक नतजिहौं साथ हृदय माहँ पिय घर करौंरी नैनन बैठक देउँ । सूरदास प्रभु सँग मिलौ बहुरि रास रसलेउँ॥१४॥ श्रीराग ॥ कान्ह प्यारो कहुँ पायोरी श्याम श्याम कहि कहति फिरति यह ध्वनि वृंदावन छायोरी ॥ गर्व जानि पिय अंतर ढ रहे सो मैं वृथा बढ़ायोरी। अब विनु देखे कल न परत छिन श्यामसुंदर गुण रायोरी मृग मृगिनी द्रुम वन सारस खग काहू नहीं बतायोरी। सूरदास प्रभु मिलहु कृपाकार युवतिन टेरि सुनायोरी।।१६॥विहागरो॥ हो कान्ह मैं तुम चाहो तुम काहे ना आवोतुम धन तुम तन तुम मन भावोकियो चाहों अरस परस करौ नहिं माना। सुन्यो चाहौं श्रवण मधुर मुरलीकी ताना ॥ कुंज कुंज जपति फिरी तेरे गुण नकी माला । सूरदास प्रभु वेगि मिलौ मोहिं मोहन नंदलाला ॥ १६ ॥ काफी ॥ सखी मोहि । मोहन लाल मिलावै ।ज्यों चकोर चंद्राको इकटक ,गी ध्यान लगावै ॥ विनु देखे मोहि कल न परेरी यह कहि सवन सुनावै । विन कारन मैं मान कियोरी अपनेहि मन दुखपावै ॥ हाहा करि करि पाँइन परि परि हरि हरि टेर लगावै । सुरश्याम विनु कोटि करौ जो और नहीं जिय आवै ॥ ॥१७॥आसावरी हाँतौ टूटि फिरि आईरी माईरी सिगरो वृंदावन कहुँ नहीं पाएरी नंदनंदनाअनतहि.. रहे जाइ कौनधौं राख छपाई मोको न कछु सुहाइ कहां जाइ रहे कामकंदन ॥ मोहीते परीरी चूक :