पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४९

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- (३६६) । सूरसागर . ........... । उमॅगि रस हँसि आलिंगन दीन्हों॥२७॥ विहागरो॥ राधे भूलिरही अनुराग । तरु तरु रुदन करत मुरझानी ढूंढि फिरी वनवाग। कुँवरि ग्रसित श्रीखंड अहिं भ्रम चरणशिली मुखलाग । वाणी मधुर. जानि पिक बोलत कदम करारत काग ॥ करपल्लव किसलय कुसुमाकर जानि ग्रसित भए. कीराराका चंद्र चकोर जानके पिवत नैनको नीर ।। व्याकुल दशा देख जगजीवन प्रगट भए तेहि | काल । सूरश्याम हित प्रेम अंकुर उर लाइ लई भुजवाल ॥ २८ ॥ कल्याण | न्यायतजी श्यामा गोपाल । थोरी कृपा बहुत करि मानी पांवर बुधि व्रजवाल ॥ मैं कछु कपट सबनसों कीन्हों अपयश ते न डेरानी । हम एकही संग एकहि मत सबकोट नहिं विलगानी ।। हम चातक धन नंदनंदन वरपनलागे हित कीन्हों। तुबडी प्रबल पवन सम सजनी प्रेमवीच दुख दीनों ।। जानि. दिनदुखी सब सुखके निधि मोहन वेनु बजायो।मुरश्याम तब दरश परस करि मिलि संतापनशायो ॥२९॥ कान्हरो ॥ प्रगटभए नँदनंदन आई । प्यारी निरखि विरह अति व्याकुल करते लई उठाई... उभय भुजा भरि अंकम दीन्हो राखी कंठ लगाइाप्राणहुते प्यारी तुम मेरे यह कहि दुख विसराहा। हँसत भए अंतर हम तुमसों सहज खेल उपजाइ । धरणी मुरझि परी तुम काहे कहां गई चतुराइ ॥ राधा सकुचि रही मनजान्यो कह्यो न कछू सुनाइ । सूरदास प्रभु मिलि सुखदीन्हों दुख डारयो विसराइ ॥३०॥ कान्हरो ॥ नंदनंदन उरलाइ लई । नागरिं प्रेम प्रगट तनु व्याकुल तवकरुणाह - रि हृदयभई । देखि नारि तरुतर मुरझानी देहदशा सब भूलिगई । प्रियाजानि अंकम भरि लीन्हीं। कहि कहि ऐसी काम हई ॥ वदन विलोकि कंठ ठिलागी कनकवेलि आनंद जई । सुरश्याम फल । कृपादृष्टि भए अतिहि भई आनंद मई ॥. ॥ अध्याय ३३ ॥ श्रीकृष्णमिले गोपिनको फेर रास लीला. व जलक्रीडा || रागसूही । अंतरते हरि प्रगट भए।रिहत प्रेमके वश्य कन्हाई युवतिनको मिलि हर्षदए॥. वैसहि सुख सवको फिरि दीन्हों उहै भाव सव मानिलियो । वह जानति हरिसंग तवहि ते उहै बुद्धि सब उहै दियो।उहै रासमंडल रसजानति विच गोपी विच श्यामधनी । सूरश्याम श्यामा मधिनायकउहै परस्पर प्रीति बनी ॥३॥जारंग ।। बहुरि श्याम सुख रास कियो । भुज भुज जोरि जुरी ब्रजवाला वैसेही रस उमॅगि हियो ॥ वैसहि मुरलीनाद प्रकाश्यो वैसहि सुर नर वश्यभए । वैसे उडुगणं सहित निशापति वैसेहि मारग भूलिगए ॥ वैसेहि दशाभई यमुनाकी बसेहि गति जति पवनथक्यो। वैसहि नृत्य तरंग बढायो वैसेहि बहुरो काम जक्यो । उहै निशा वैसेहि मन युवती वैसेही हरि सवनि. भजासूर श्याम वैसेइ मनमोहन वैसेहि प्यारी निरखिलजे ॥३॥विहागरो।। श्यामछवि निरखत नागरि नारि । प्यारी छवि निरखत मनमोहन सकत न नैन पसारि।पिय सकुचत नहिं दृष्टि मिलावत सन्मुख ॥ होत लजात । श्रीराधिका निडरि अवलोकत अतिहि हृदय हरपात ।। अरस परस मोहनि मोहन मिलि सँग गोपी गोपाल । सूरदास प्रभु सब गुण लायक दुश्मनके उरशाल ॥ ३३ ॥ रची रस रास श्यामसुजान । प्रथम मुरली नाद करि हरि हरयो सबको ज्ञान ॥ सवनि उलटी राति कीन्हों देव सुर नर आदि । व्रजवधू मन काम पूरण कियो पुरुष अनादि ॥ सहज सुखनिशि ग्वाल सोवत सोरची षटमास । हेतु युवती सुख वढीवन कियो पूरण आस ॥ मेटि अंतानको दुख उहै राख्यो. भार । सुरप्रभु महिमा अगोचर निगम अंत नपार॥३४॥ नट ॥ मोहन रच्यो अद्धत. रास । संग मिलि वृपभानु तनया गोपिका चहुँपास ॥ एकही सुर सकल मोहे सुरालि सुधाप्रकास । जलदु थलके जीव थकिर हे मुनिन मनहि उदास ॥ थकित भए समीर सुनिक यमुना उलटी धार ।। सुर प्रभु बजवाम मिलि मन निशा करत विहार॥३५॥ विहरत रासरंग गोपाल । नवल श्याम संग ।