सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३५७)
दशमस्कन्ध-१०


सोभित नवल सब ब्रजबाल॥ शरद निशि अति नवल उज्ज्वल नवलता वनधाम। परम निर्मल पुलिन यमुना कल्पतरु विश्राम॥ कोश द्वादश रासपरमिति रच्यो नंदकुमार। सूर प्रभु सुखदियो निशिरमि कामकौतुक हार॥३६॥ मलार ॥ रास रस श्रमित भई ब्रजबाल। निशि सुख दै यमुना जल लैगए भोर भयो तेहिकाल॥ मनकामना भए परिपूरण रही न एकौ साध।पोडससहस नारि सँग मोहन कीन्हों सुख आगाध॥ यमुना जल विहरत नँदनंदन संगमिली सुकुमारा। सूर धन्य धरनी वृंदावन रवितनया सुखकारि॥३७॥ गुंडमलार ॥ संग ब्रजनारि हरि रास कीन्हों। सबनकी आश पूरनकरी श्यामले त्रियनि पियहेत सुख मानि लीन्हों॥ मटि कुलकानि मर्याद विधि वेदकी त्यागि गृहनेह सुनि वैनधाई। फवी जैजैकरी मनहि सब जेधरी संक काहुन करी आप माई॥ ज्यों महामत्त गजयूथ कर नीलिए कूल सरकोरि डर कही मानैं। सूर प्रभु नंद सुत निदरि निशि रसक क्यों नाग नरलोक सुर सबै जाने॥३८॥ अथ जलक्रीडा ॥ गुंडमलार ॥ रौनि रस रास सुख करत बीती। भोरभए गए पावन यमुनके सलिल न्हात सुख करत अति बढ़ी प्रीती॥ एक इक मिलति हँसि एक हरि संग रसि एक जल मध्य इक तीर ठाढी। एक इक डरति एक इक भार कै चलति एक सुख लरति अति नेह बाढी। काहु नहिं डरति जल थलहु क्रीडा करति हरति मन निडरि ज्यों कंत नारी। सूर प्रभु श्याम श्यामा संग गोपिका मिटी तनुसाध भई मगन भारी॥३९॥ गौरी ॥ यमुनजल क्रीडत हैं नँदनंदन। गोपीवृंद मनोहर चहुँ दिश मध्य अरिष्ट निकंदन॥ पकरे पाणि परस्पर छिर कत सिथिल सलिल भुजचंदन। मानों युवति पूजि अहिपतिको लग्यो अंकदै वंदन ॥ कुच भरि कुटिल सुदेश अंबुकनि चुबति अग्रगति मंदन। मानहु भरि गंडूप कमलते डारत अलि आनंदन॥ भुजभरि अंक अगाध चलतलै ज्यों लुब्धक खग फंदन। सूरदास प्रभु सुयश वखानत नेति नेति श्रुति छंदन॥४०॥ कान्हरो ॥ विहरतहैं यमुनाजल श्याम। राजतहैं दोउ वांहां जोरी दंपति अरु ब्रजबाम॥ कोउ ठाढी जल जानु जंघलों कोउ कटि हिरदै ग्रीव। यह सुखवरणि सकै ऐसोको सुंदरताकी सीव॥ श्याम अंग चंदनकी आभा नागरिकेसरि अंग। मलयज पंक कुमकुमा मिलिकै जल यमुना इक रंग॥ निशि श्रम मिट्यो मिट्यो तनु आलस परसिय मुन भई पावन। सूरश्याम जल मध्य युवति गन जन जनके मनभावन॥४१॥ जल क्रीडा सुख अति उपजायो। रास रंग मनते नहिं भूलत उहै भेद मन आयो॥ युवती कर करजोरि मंडली श्याम नागरी बीच। चंदन अंग कुमकुमा छूटत जलमिलि तट भई कीच॥ जो सुख श्याम करत युवती सँग सो सुख तिहुँ पुर नाहीं। सूरश्याम देखत नारिनको रीझि रीझि लपटाहीं॥४२॥ ॥ बिलावल ॥ विहरत नारि हँसत नँदनंदन। निर्मल देह छूटि तनु चंदन॥ अति सोभा त्रिभुवन जन वंदन। पावत नहिं गावत श्रुति छंदन॥ कंचन पीठ नारि अति सोभा। वे उनको वे उनको लोभा॥ कबहुँ अंकभरि चलत अगाधहि। अरस परस मेटत मन साधहि॥ कोउ भाजै कोउ पाछे धावै। युवतिनसों कहि ताहि मँगावै॥ ताको गहि अथाह जल डारैं। मुख व्याकुलता रूप निहारैं। कंठ लगाइ लेत पुनि ताही। देत अलिंगन रीझत जाही॥ सूरश्याम ब्रजयुवतिन भोगी। जाको ध्यावत शिव मुनि योगी॥४१॥ टोडी ॥ ऐसे श्याम वश्य राधाके। नाम लेत पावन आधाके॥ प्यारी श्याम अंजली डारै। वा छबिको चितलाइ निहारै॥ मनो जलद जलडारत टारै। मन मनही तन मन धन वारै॥ निरखिरूप नहिं धीर सम्हारै। सूरश्यामके अंकम धारै॥४४॥ ललित ॥ राधे छिरकति छटिं छबीली। कुच कुमकुम कंचुकि बँद टूटे लटकि रही लटगीली॥ वंदन