पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५०

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दशमस्कन्ध-१० (३६७) . । सोभित नवल सब ब्रजवाल ॥ शरद निशि अति नवल उज्ज्वल नवलता वनधाम । परम निर्मल पुलिन यमुना कल्पतरु विश्राम ।। कोश द्वादश रासपरमिति रच्यो नंदकुमार । सूर प्रभु सुख दियो निशिरमि कामकौतुक हा॥३६॥मलार॥रास रस श्रमित भई व्रजबाल । निशि सुख दै यमुना जल लैगए भोर भयो तेहिकालामिनकामना भए परिपूरण रहीन एको साध ।पोडससहस नारि सँग मोहन कीन्हों सुख आगाधयमुना जल विहरत नंदनंदन संगमिली सुकुमारािसूर धन्य धरनी वृंदा वन रवितनया सुखकारि॥३७॥गुंडमलार ॥ संग वजनारि हरि रास कीन्हों। सबनकी आश पूरनकरी श्यामले त्रियनि पियहेत सुख मानि लीन्हों।मटि कुलकानिमर्याद विधि वेदकी त्यागि गृहनेह सुनि वैनधाई । फवी जैजैकरी मनहि सब जेधरी संक काहुन करी आप माई ॥ज्यों महामत्त गजयूथ कर नीलिए कूल सरकोरि डर कही मानें । सूर प्रभु नंद सुत निदरि निशि रसक क्यों नाग नरलोक सुर सबै जाने ॥ ३८ ॥ अथ जलक्रीडा ।। गुंडमलार । रौनि रस रास सुख करत बीती । भोरभए गए पावन यमुनके सलिल न्हात सुख करत अति बढ़ी प्रीती ॥ एक इक मिलति हँसि एक हरि संग रसि एक जल मध्य इक तीर गढी । एक इक डरति एक इक भार कै चलति एक सुख लरति अति नेह वाढी । काहु नहिं डरति जल थलहु क्रीडा करति हरति मन निडरि ज्यों कंत नारी। सूर प्रभु श्याम श्यामा संग गोपिका मिटी तनुसाध भई मगन भारी ॥ ३९॥ गौरी ॥ यमुनजल क्रीडत हैं नँदनंदन । गोपीवृंद मनोहर चहुँ दिश मध्य अरिष्ट निकंदन।।पकरे पाणि परस्पर छिर कत सिथिल सलिल भुजचंदन । मानों युवति पूजि अहिपतिको लग्यो अंकदै वंदन ॥ कुच भार कुटिल सुदेश अंबुकनि चुवति अग्रगति मंदन । मानहु भरि गंडूप कमलते डारत अलि आनं दन ॥ भुजभार अंक अगाध चलतलै ज्यों लुब्धक खग फंदन । सूरदास प्रभु सुयश वसा नत नेति नेति श्रुति छंदन ॥ ४० ॥ फान्हरो ॥ विहरतहैं यमुनाजल श्याम । राजतहैं दोउ वहां जोरी दंपति अरु ब्रजवाम ।। कोउ ठाढी जल जानु जंघलों कोउ कटि हिरदै ग्रीव । यह सुखव राण सके ऐसोको सुंदरताकी सीव ॥श्याम अंग चंदनकी आभा नागरिकेसरि अंग । मल यज पंक कुमकुमा मिलिकै जल यमुना इक रंग ॥ निशि श्रम मियो मिव्यो तनु आलस परसिय मुन भई पावन । सूरश्याम जल मध्य युवति गन जन जनके मनभावन ॥४१॥ जल क्रीडा सुख अति उपजायो । रास रंग मनते नहिं भूलत उहै भेद मन आयो । युवती कर करजोरि मंडली श्याम नागरी वीच । चंदन अंग कुमकुमा छूटत जलमिलि तट भई कीच ॥जो सुख श्याम करत युवती सँग सो सुख तिहुँ पुर नाहीं । सूरश्याम देखत नारिनको रीझिरीझि लपटाहीं॥४२॥ ॥ बिलावल ॥ विहरत नारि हँसत नंदनंदन । निर्मल देह छूटि तनु चंदन ॥ अति सोभा त्रिभुवन जन वंदन । पावत नहिं गावत श्रुति छंदन ॥ कंचन पीठ नारि अति सोभा । वे उनको वे उनको लोभा॥ कबहुँ अंकभरि चलत अगाधहि । अरस परस मेटत मन साधहि ॥ कोउ भाजे कोउ पाछे धावै । युवतिनसों कहि ताहि मँगावै ॥ ताको गहि अथाह जल डाएँ । मुख व्याकुलता रूप निहारें । कंठ लगाइ लेत पुनि ताही । देत अलिंगन रीझत जाही॥ सूरश्याम ब्रजयुवतिन भोगी। जाको ध्यावत शिव मुनि योगी॥४१॥ोडी ॥ ऐसे श्याम वश्य राधाके नाम लेत पावन आधाके। प्यारी श्याम अंजली डारै । वा छविको चितलाइ निहारै ॥ मनो जलद जलडारत टारे। मन मनही तन मन धन धारे ॥ निरखिरूप नहिं धीर सम्हारे । सूरश्यामके अंकम धारै ॥१४॥ || ललित ॥ राधे छिरकति छर्टि छबीली । कुच कुमकुम कंचुकि बंद टूटे लटकि रही लटगीलीवंदन ।।