पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५१

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(३५८) . .. . सूरसागर।. . शिरताटक गंड पर रतन जटित मणिलीली । गति गयंद मृगराज सुकटिपर सोभित किंकिणि ढीली ॥ मच्यो खेल यमुना जल अंतर प्रेम मुदित रस झीली।नंदसुवन भुज ग्रीव विराजत भाग सुहाग भरीली ॥ वर्षत सुमन देवगण हर्षित दुंदुभि सरस बनीली.। सूरश्याम श्यामा रस क्रीडत यमुन तरंग थकीली ॥ ४५ ॥ रामकली | श्याम श्यामा सुभग यमुना जल निभ्रम करत विहार। पीतकमल इंदीवर पर मनो भोरहि भए निहार॥ श्रीराधा अंबुज कर भरि भरि छिरकत वारंवार । कनकलता मकरंद झरत मनु हालत पवन संचार ॥ अतसीकुसुम कलेवर बूंदै प्रति विवत निरधार । ज्योति प्रकाश सुधन में खोलत स्वाति सुवन आकार ॥ धाइ.धरे वृपभानु सुत हरि मोहे सकल शृंगार । विद्रुम जलद सूर मनों विधु मिलि श्रवत सुधाकी धार ॥४६॥ रामकली ॥ यमुनजल गिरिधर करत विहार। इत उत गोपवधू मिलि छिरकत हस्तकमल सुखचार ॥ काहकी कंचुकी छूटी काहूके विथुरे हैं वार । काहु खुभी काहू नकवसार काहू के टूटे हैं हार ।। सूरदास कहलौं वरणों मैं लीला अगम अपार४ारीझे श्याम नागरी रूपातैसी ये लटबगरी ऊपर श्रवतनीर अनूपाश्रवत जल कुच परत धारा नहीं उपमा पारामनों उगलत राहु अमृत कनक गिरिपर धार । उरज परसत श्याम सुंदर नागरी सरमाइ। सूर प्रभु तनकाम व्याकुल गए मननि जनाइ ॥४७॥ सारंग ।। देखरी उमॅग्यो सुख आज । जल विहार विनोद सुखरुचि रतनको है साज ॥ भीजे पट लपट्यो सुभग उर रही केसर जयन । अरस परस स्वभाव मानो जगे निशिके नयन ॥ कछुक कुं चित केशमाई सरस सोभा भयो । सुभग राजंत कामद्रुमको मनो अंकुर नयो । युवति गण सव यूथ जितकित भरत अंचल नीर । सूर सुभग गोपाल तन व्रज सुखद श्याग शरीर, ॥ ८॥ रामकली ॥ श्यामा श्याम अंकम भरी । उरज उर परसाइ भुज भुज जोरि गाढे धरी ॥ तुरत मन सुख मानि लीन्हों नारि तेहि रंग ढरी । परस्पर दोउ करत क्रीडा राधिका नवहरी ॥ ऐसही सुख दियो मोहन सवै आनँद भरी । करति रंग हिलोर यमुना प्रेम आनंद झरी ॥ रास निशि श्रम दूरि कीन्हों धन्य धनि यह घरी। सूर प्रभु तट निकसि आए नारि सँग सब खरी॥.४९॥ गृजरी ॥ ठाढे श्याम यमुना तीर । धन्य पुलिन पवित्र पावन जहां गिरिधर धीर ॥ युवति बनि बनि भई ठाढी और पहिरे चीर । राधिका सुख श्याम दायक कनक बरन शरीर ॥ लाल चोली नील डॅडि आ संग युवतिनभीर । सूरप्रभु छवि निरखि रीझे मगन भयो मन कीर ॥ ५० ॥ नट ॥ ललकत श्याम मन ललचात । कहत हैं घर जाहु सुंदरि मुख न आवत बात ॥. पटसहस्र दशगो पकन्या रौनि भोगीरास ।एक छिन भई कोउ न न्यारी सबनि पुरई आस।विहाँसे सब घर घर पठाई ब्रजगई ब्रजबाल । सूरप्रभु नँदधाम पहुँचे लख्यो काहु न ख्याल॥९॥बिलावलाव्रजवासी सब सोवत पाए। नंदसुवन मति ऐसी ठानी घरलोगन उन जाइ जगाए।।उठे प्रात गाथामुखभाषत आतुर रैनि विहानी । ऐंडतअंग जम्हात वदनभरि कहत सवै यह वानी। जो जैसे सो तैसे लागे अपने अपने काज । सूरश्यामके चरित अगोचर राखी कुलकी लाज ॥५२॥ नैतश्री ॥ ब्रज युवती रसरास | पगी। कियो श्याम सबको मनभायो निशिरति रंग जगी ॥ पूरण ब्रह्म अकल अविनाशी संबनि संग सुख दीन्हों। जितनी नारि भेष भए तितने भेद न काहू चीन्हों। वह सुख टरत नकाहू मनते पतिहित साध पुराई । सूरश्याम दूलह सब दुलहिनि निशि भावरि दैआई ॥५३॥सोरठ।साध नहीं युवतिन मन राखी । मनवंछना सवन फल पायो वेद उपनिषद साखी ॥ भुनभरि मिली | कठिन कुच चापे अधर सुधारस चाखी। हाव भाव नैनन सैननदै वचन रचन मुख भाषी । शुकः ।