शिरताटंक गंड पर रतन जटित मणिलीली। गति गयंद मृगराज सुकटिपर सोभित किंकिणि ढीली॥ मच्यो खेल यमुना जल अंतर प्रेम मुदित रस झीली। नंदसुवन भुज ग्रीव बिराजत भाग सुहाग भरीली॥ बर्षत सुमन देवगण हर्षित दुंदुभि सरस बनीली। सूरश्याम श्यामा रस क्रीडत यमुन तरंग थकीली॥४५॥ रामकली ॥ श्याम श्यामा सुभग यमुना जल निर्भ्रम करत विहार।
पीतकमल इंदीवर पर मनो भोरहि भए निहार॥ श्रीराधा अंबुज कर भरि भरि छिरकत बारंबार। कनकलता मकरंद झरत मनु हालत पवन सँंचार॥ अतसीकुसुम कलेवर बूंदै प्रति बिंबत निरधार। ज्योति प्रकाश सुधन में खोलत स्वाति सुवन आकार॥ धाइ धरे वृषभानु सुत हरि मोहे सकल श्रृंगार। विद्रुम जलद सूर मनों विधु मिलि श्रवत सुधाकी धार॥४६॥ रामकली ॥
यमुनजल गिरिधर करत विहार। इत उत गोपवधू मिलि छिरकत हस्तकमल सुखचार॥ काहूकी कंचुकी छूटी काहूके विथुरे हैं बार। काहु खुभी काहू नकबेसार काहू के टूटे हैं हार॥ सूरदास कहँलौं बरणौं मैं लीला अगम अपार ॥४७॥ रीझे श्याम नागरी रूप। तैसी ये लटबगरीं ऊपर श्रवतनीर अनूप। श्रवत जल कुच परत धारा नहीं उपमा पार। मनों उगलत राहु अमृत कनक गिरिपर धार॥ उरज परसत श्याम सुंदर नागरी सरमाइ। सूर प्रभु तनकाम व्याकुल गए मननि जनाइ॥४७॥ सारंग ॥ देखरी उमँग्यो सुख आज। जल बिहार बिनोद सुखरुचि रतनको है साज॥ भीजे पट लपट्यो सुभग उर रही केसर जयन। अरस परस स्वभाव मानो जगे निशिके नयन॥ कछुक कुंचित केशमाई सरस सोभा भयो। सुभग राजंत कामद्रुमको मनो अंकुर नयो॥ युवति गण सबयूथ जितकित भरत अंचल नीर। सूर सुभग गोपाल तन ब्रज सुखद श्याग शरीर॥४८॥ रामकली ॥ श्यामा श्याम अंकम भरी। उरज उर परसाइ भुज भुज जोरि गाढे धरी॥ तुरत मन सुख मानि लीन्हों नारि तेहि रँग ढरी। परस्पर दोउ करत क्रीडा राधिका नवहरी॥ ऐसही सुख
दियो मोहन सबै आनँद भरी। करति रंग हिलोर यमुना प्रेम आनँद झरी॥ रास निशि श्रम दूरि कीन्हों धन्य धनि यह घरी। सूर प्रभु तट निकसि आए नारि सँग सब खरी॥४९॥ गूजरी ॥ ठाढे श्याम यमुना तीर। धन्य पुलिन पवित्र पावन जहां गिरिधर धीर॥ युवति बनि बनि भई ठाढी और पहिरे चीर। राधिका सुख श्याम दायक कनक बरन शरीर॥ लाल चोली नील डँडिआ संग युवतिनभीर। सूरप्रभु छबि निरखि रीझे मगन भयो मन कीर॥५०॥ नट ॥ ललकत श्याम मन ललचात। कहत हैं घर जाहु सुंदरि मुख न आवत बात॥ षटसहस्र दशगो पकन्या रौनि भोगीरास। एक छिन भई कोउ न न्यारी सबनि पुरई आस॥ विहाँसे सब घर घर पठाई
ब्रजगई ब्रजबाल। सूरप्रभु नँदधाम पहुँचे लख्यो काहु न ख्याल॥५९॥ बिलावल ॥ ब्रजवासी सब सोवत पाए। नंदसुवन मति ऐसी ठानी घरलोगन उन जाइ जगाए॥ उठे प्रात गाथा मुखभाषत आतुर रैनि
विहानी। ऐंडतअंग जम्हात बदनभरि कहत सबै यह वानी॥ जो जैसे सो तैसे लागे अपने अपने काज। सूरश्यामके चरित अगोचर राखी कुलकी लाज॥५२॥ जैतश्री ॥ ब्रज युवती रसरासपगी। कियो श्याम सबको मनभायो निशिरति रंग जगी॥ पूरण ब्रह्म अकल अविनाशी सबनि संग सुख दीन्हों। जितनी नारि भेष भए तितने भेद न काहू चीन्हों॥ वह सुख टरत नकाहू मनते पतिहित साध पुराई। सूरश्याम दूलह सब दुलहिनि निशि भांवरि दैआई॥५३॥ सोरठ ॥ साध नहीं युवतिन मन राखी। मनवंछना सबन फल पायो वेद उपनिषद साखी॥ भुजभरि मिली कठिन कुच चापे अधर सुधारस चाखी। हाव भाव नैनन सैननदै वचन रचन मुख भाषी॥ शुक
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सूरसागर।
