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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५३

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सूरसागर।


करि आनहि जानै पीर। कुच थंभन अवलंबहै*तुम्हरी रही बहुत पिय आश। बिन अपराध नकरहु निराश॥ कैतौ रुखाई छांडिये*निठुर वचन जिनि बोलहु नाथ। निजदासी जिनि करहु अनाथ॥ रासरसिक गुणगाइहो॥९॥ मुख देखत सुख पावत नैन। श्रवण सिरात सुनत मृदु बैन॥ सैननहीं सरबसहरयो*मंदहँसनि उपजायो काम। अधरसुधा ध्वनि करि विश्राम। बरषि सींचि विरहानला*मुरली सुनतै भई सवाइ। तबते और न कछू सोहाइ॥ कहौ घोष हम जाहिँ क्यों* सजन बंधु को करिहै कानि। तुम बिछुरत पिय आतमहानि। रास रसिक गुण गाइहो॥१०॥ बेनु बजाइ बुलाई नारि। सहि आई कुल सबकी गारि॥ मन मधुकर लंपट भयो*सोऊ सुंदरि चतुर सुजान। आरज पंथ सुनै तजि जान॥ तिन देखत पुरुषउ लजै*बहुत कहा वरणों यह रूप। और न त्रिभुवन शरण अनूप॥ बलिहारी या राति की *सुन मोहन विनती दै कान। अपयश होइ किये अपमान॥ रास रसिक गुण गाइहो॥११॥ तुम हमको उपदेश्यो धर्म। ताको कछू न पायो मर्म॥ हम अबला मतिहीन हैं*दुखदाता सुत पति गृह बंधु। तुम्हरि कृपा बिनु सब जग अंधु॥ तुमते प्रीतम औरको * तुमसों प्रीति करहिं जे धीर। तिनहि न लोक वेदकी पीर॥ पाप पुण्य तिनके नहीं*आशापाश बँधी हम बाल। तुमहि विमुख ह्वै हैं बेहाल॥ रास रसिक गुण गाइहो॥१२॥ विरद तुम्हारो दीनदयाल। करसों कर धरि करि प्रतिपाल॥ भुजदंडनि खंडहु व्यथा*जैसे गुणी देखावै कला। कृषण कबहुँ नहिं मानै भला॥ सदय हृदय हमपर करौ* ब्रजकी लाज बडाई तोहि। करहु कृपा करुणा करि जोहि॥ तुमहिं हमारे गति सदा*दीन वचन जब युवतिन कहे। सुनत वचन लोचन जल बहे॥ रास रसिक गुण गाइहो॥१३॥ हँसि बोले हरि बोली बोडि। करजोरे प्रभुता सब छोंडि॥ हौं असाध तुम साध हौ*मो कारण तुम भई निसंक। लोक वेद वपुरा को रंका॥ सिंह शरन जंबुक बसै*बिन दम कनहौं लीन्हो मोल। करत निरादर भई न लोल॥ आबहु हिलि मिलि खेलिये* ब्रजयुवतिन घेरे ब्रजराज। मनहुँ निशाकर किरन समाज॥ रास रसिक गुण गाइहौ॥१४॥ हरि मुख देखत भूले नैन। उर उमँग कछु कहत न बैन॥ श्यामहि गावत काम बश*हँसंत हँसावत करि परिहास। मनमें कहत करैं अब रास॥ अंचल गहि चंचल चल्यो* ल्यायो कोमल पुलिन मँझार। नख शिख भूषण अंग सँवार। षट भूषण युवतिन सजे*कुच परसत पुजई सब साथ। रससागर मनो मदन अगाध॥ रास रसिक गुण गाइहो॥१५॥ रस में विरस जु अन्तर्ध्यान। गोपिनके उपजै आभभान॥ विरह कथा में कौन सुख*द्वादश कोश रास परमान। ताको कैसे होत बखान॥ आस पास यमुना हिली*तामें मान सरोवर ताल। कमल विमल जल परम रसाल॥ सेवहिं खग मृग शुकभरे*निकट कल्पतरु बंसीबटा। श्रीराधा रति कुंजनि अटा॥ रास रसिक गुण गाइहो॥१६॥ नव कुमकुम रज बरषत जहां। उड़त कपूर धूरि तहँ तहां॥ और फूल फल को गनै*तहां घनश्याम रास रस रच्यो। मर्कत मणि कंचन सों खच्यो॥ अद्भुत कौतुक प्रगट कियो*मंडल जोरि युवति जहां बनी। दुहुँ दुहुँ बीच श्याम घन धनी। सोभा कहत न आवई*घूंघट मुकुट विराजत शीश। सोभित शशि मनो सहस बतीस॥ रास रसिक गुण गाइहो॥१७॥ मणि कुंडल ताटंक विलोल। विहँसत लज्जित ललित कपोल॥ अलक तिलक वेसरि बनी*कंठशिरी गजमोतिन हार। चंचार चुरि किंकिणि झनकार॥ चौकी चमकति उरलगी*कौस्तुभमणि राजति रुचिपोति। दशन दमक दामिनिते ज्योति॥ सरस अधर पल्लव बने*चिबुक