पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५३

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(३६०) करि आनहि जान पीर । कुच थंभन अवलंबहै * तुम्हरी रही बहुत पिय आशं। विन अपराध नकरहु निराश ॥ कैतौ रुखाई छांडिये निठुर वचन जिनि बोलहु नाथ । निजदासी जिनि करहु. अनाथ ॥ रासरसिक गुणगाइहो ॥ ९ ॥ मुख देखत सुख पावत नैन । श्रवण सिरात सुनत मृदु बैन ॥ सैननहीं सरवसहरयो * मंदहँसनि उपजायो काम । अधरसुधा ध्वनि करि विश्राम । वरपि सींचि विरहानला * मुरली सुनतै भई सवाइ । तवते. और न कळू सोहाइ ।। कहौ घोष हम जाहिँ क्यों - सजन बंधु को करिहै कानि । तुम विछुरत पिय. आतमहानि । रास रसिक गुण गाइहो ॥ १०॥ वेनु वजाइ बुलाई नारि । सहि आई कुल सबकी. गारि ॥ मन मधुकर लंपट भयो * सोऊ सुंदरि चतुर सुजान । आरज पंथ सुनै तजि जान ॥ तिनः देखत पुरुषउ लजै * बहुत कहा वरणों यह रूप । और न त्रिभुवन शरण अनूप ॥ बलिहारी या. राति की सुन मोहन विनती दै कान। अपयश होइ किये अपमान ॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥ . ११॥ तुम हमको उपदेश्यो धर्म । ताको कछू न पायो मर्म ॥ हम अवला मतिहीन हैं * दुख दाता सुत पति गृह बंधु । तुम्हरि कृपा विनु सब जग अंधु।।तुमते प्रीतम औरको * तुमसों प्रीति करहिं जे धीर । तिनहि न लोक वेदकी पीरापाप पुण्य तिनके नहीं * आशापाश बँधी हम वाल। तुमहि विमुख हूँ हैं बेहाल || रास रसिक गुण गाइहो ॥ १२॥ विरद तुम्हारो दीनदयाल । कर सों कर धरि करि प्रतिपालभुजदंडनि खंडहु व्यथा * जैसे गुणी देखावै कला । कृपण कवहुँ नहिं मानै भला ॥ सदय हृदय हमपर करौ ब्रजकी लाज बडाई तोहि । करहु कृपा करुणा करि जोहि॥ तुमाहं हमारे गति सदा * दीन वचन जव युवतिन कहे । सुनत वचन लोचन जल बहे ॥ रास रसि. क गुण गाइहो ॥ १३॥ हँसि बोले हरि बोली वोडि । करजोरे प्रभुता सब छोडि ॥ हौं असाध तुम साध हो * मो कारण तुम भई निसंक। लोक वेद वपुरा को रंका। सिंह शरन जंबुक बसै *विन दमः कनहौं लीन्हो मोल । करत निरादर भई न लोल ॥ आवहु हिलि मिलि खेलिये - ब्रजयुवतिन घेरेब्रजराज । मनहुँ निशाकर किरन समाज ॥ रास रसिक गुण गाइहौ ॥ १४॥ हरि मुख देख त भूले नैन । उर उमंग कछु कहत न वैन ॥श्यामहि गावत काम वश * हँसंत हँसावत. करि परिहास । मनमें कहत करें अव रासा|अंचल गहि चंचल चल्यो * ल्यायो कोमल पुलिन मँझार । नख शिख भूषण अंग संवार । पट भूषण युवतिन सजे *कुच परसत पुजई सब साथ। रससागर मनो। मदन अगाध ॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥ १६॥ रस में विरस जु अन्तर्ध्यान. । गोपिनके उपजै. आभभान ॥ विरह कथा में कौन सुख * द्वादश कोश रास परमान । ताको कैसे होत वखान ॥ आस पास यमुना हिली* ताम मान सरोवर ताल । कमल विमल जल परम रसाल ।।.सेवहि खग मृग शुकभरे * निकट कल्पतरु वसीवटा । श्रीराधा रति कुंजनि अटा ॥ रास · रसिक गुण गाइहो ॥ १६॥ नव कुमकुम रज वरषत जहां। उड़त कपूर धूरि तहँ तहां। और फूल फल को गनै * तहां घनश्याम रास रस रच्यो । मर्कत मणि कंचन सों खच्यो ॥ अद्भुत कौतुक प्रगट कियो * मंडल जोरि युवति जहां बनी। दुहुँ दुहुँ बीच श्याम धन धनी । सोभा कहत न आवई बूंघट मुकुट विराजत शीश। सोभित शशि मनो सहस वतीस॥ रास रसिक गुण गाइहो । ॥ १७॥ मणि कुंडल ताटक विलोल । विहँसत लज्जित ललित कपोल ॥ अलक तिलक वेसार । वनी * कंउशिरी गजमोतिन हार । चंचार चुरि किंकिणि झनकार ॥ चौकी चमकति उरलगी* । कौस्तुभमणि राजति रुचिपोति.। दशन दमक दामिनितेज्योति।। सरस अधर पल्लव बने चिबुक: