पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५५

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..सरसागर ।. .... Npan कोटि अनंग छवि * हस्तक भेद ललित गति लई । अंचल उडत अधिक छवि भई।कुच विगलित मालागिरी * हरि करुणाकरि लई उठाइपोंछत श्रमजल कंठलगाइ॥रास रसिक गुण गाइहो॥२८॥ तिनहि लिवाइ यमुनजल गए। पुलिन पुनीत निकुंजनि ठए ॥ अंगश्रमित सबके भए * जैसे मदगज़ कूल विदारि । तैसे सँग लै खेली नारि ॥ संक नकाहूकी करी* मेटी वेद लोक कुल मेंडि। निकसि कुंवरि खेल्यो करि पेंडि । फवी सबै जो मन.धरी* जल थल क्रीडत ब्रीडत बनी तिन की लीला परत न कही ॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥ २९ ॥ कह्यो भागवत शुक अनुराग । कैसे समुझे बिन बडभाग।श्रीगुरु सकल कृपाकरी * सूर आश कारे वरण्यो रासाचाहतही वृंदावन बास।।श्रीराधा वर इतनी करकृपा * निशि दिन श्याम सके तोहिं । इहै कृपा करि दीजै मोहिं ।। नवनिकुंज सुख पुंज में* हरि वंसी हरि दासी जहां। हरि करुणा कार राखहु तहां ॥ नित विहार आभार दै* कहत सुनत वाढत रस पीते । वक्ता श्रोता हरि पद प्रीति।रास रसिक गुण गाइहो।। ३०॥ १८ ५६॥ धनाश्री ।। मैं कैसे रस रासहि गाऊं। श्री राधिका श्यामकी प्यारी तुव विन कृपा वास ब्रजपाऊं। अन्य देव सपनेहु न जानौं दंपति को शिरनाऊ । भजन प्रताप शरन महिमाते गुरुकी कृपा दिखाऊं ॥ नवनिकुंज वन धाम निकट इक आनंदकुटी रचाऊं। सूर कहा विनती करि विनवै जन्म जन्म यह ध्याऊं ॥१७॥ विलावल ।। तुमही मोको ढीठ कियो। नैन सदा चरणनतर राखे सुख देखत नहिं गनत वियो। प्रभु तुम मेरी सकुच मिटाई जोइ सोइ माँगत पेलि । मांगों चरण शरन वृंदावन जहां करत नित केंलि ॥ यह वाणी भजनकी श्रवण विन सुनत बहुत सरमाऊं । श्रीवृषभानुसुता पति सेऊँ सूर जगत भरमाऊं ॥ २८॥ विहागरो. ॥ रासरस लीला गाइ सुनाऊं। यह यश कहै सुनै मुख श्रवणन तिन चरणन शिरनाऊं। कहा कहाँ वक्ता श्रोता फल इक रसना क्यों गाऊ । अष्टसिद्धि नवनिधि सुख संपति लघुता करि दरशाङी जो परतीति होइ हृदय में जगमाया धृग देखे । हरिजन दरश हरिहि सम पूजै अंतर कपट नभेषै।। धनि धनि वक्ता तेहि धनि श्रोता श्याम निकटहै ताके। सूर धन्य तिनके पित माता भाव भजनहै, जाके ॥ ५९॥ विलावल ॥ वृंदावन हरि रास उपायो । देखि शरद निाश रुचि उपनायो । अद्भुत मुरली नाद सुनायो । युवति सुनत तनु दशा गँवायोमिलि धाई मनको फल पायो । जंगम चले जुचलान थियो । उलटी यमुना धार वहायो । सुनि ध्वनि चंचल पवन थकायो । सुर नर मुनिको ध्यान भुलायो । चंद्रगगन मारग विसरायो।रूपदेखि मन काम लजायोरिसमें अंतर विरसः जनायो । युवतिनके तनु विरह बढायो । बहुरि मिले हित अति उपजायो । हाव भाव करि सवन रिझायो । कल्प रैनि रसहित उपजायो॥ प्रातसमय यमुनातट आयो । नारिनके निशिं श्रमहि मिटायो । युवतिन प्रति प्रति रूप बनायो । शिव नारद शारद यह गायो॥ ध्यान टरयो चितत हां लगायो । राधावर निज नाम कहायो ।। सूरदास कछु कहिके गायो। रमाकंत जासुको ध्या यो। सो सुख नंद सुवन व्रज आयो॥ ६० ॥ गोपी पदरज महिमा विधि भृगुसों कही । वरप सहस्रन कियो तप मैं ताऊ न लही ॥ इह सुनकै भृगु कहो नारद आदिक हरि भक्ता । माँगे || तिनकी चरण रेणु तोहिं यह जुगुता ॥ सोनिज गोपी चरण रज वांछितही तुम देव । मेरे मन संशय भयो कहौ कृपा करि भेव ॥ ब्रज सुंदर नहिं नारि ऋचा श्रुतिकी सब आहिं । मैं अरु शिव पुनि लक्ष्मी तिन सम नाहि ।। अद्भुतहै तिनकी कथा कहों सो मैं अबगाइ । ताहि सुनै जो प्रीतिकै सो हरिपदहि समाइ । प्राकृत लैभए पुरुष जगत सब प्राकृत समाइरहै एक वैकुंठ लोक जहां त्रि.