पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५७

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(३६४) ' . . :सरसागर। . . . . Anemamanna-...- animal मन गहरानी।।इकटक चितै रही प्रतिक्विहि सौति शाल जिय जानी।सूरदास प्रभु तुम बडभागी वडभागिनि जेहि आनी ॥शाप्यारी सांच कहतिकी हाँसी । काहेको इतनो रिस पावति कत तुम होहु उदासी । पुनि पुनि कहाति कहा तवहांते कहा उगी सो ठाढी । इकटक चितै रहीहिरदै तन मनो चित्र लिखि काठी । समुझी नहीं कहा मन आई मदन से तुम आगे । सूरश्याम भए काम आतुरे भुजा गहन पिय लागे ॥६६॥ मोहिं छुवौ जिनि दरि रहौजू । जाको हृदय लगाइ लई है ताकी वाह गहौजू ।। तुम सर्वज्ञ और सब मूरख सो रानी अरु दासी । मैं देखति हृदय वह बैठी हम तुमको भइ हांसी ॥ वांह गहत कछु शरम न आवत सुख पावत मनमाहीं। सुनहु सूर मोतनको इकटक चितवति डरपति नाहीं ॥६७॥ बिलावल ॥ कहा भई धनि वावरी कहि तुमहिं सुना। तुमते कोहै भावती को हृदय वसाऊं ॥ तुमहिं श्रवण तुम नैनहो तुम प्राणअधारा । वृथा क्रोध त्रिय क्यों करौ कहि वारंवारा ॥ भुजगहि ताहि वतावहू जो हृदय बतावति । सूरजप्रभु कहै नागरी तुमते को भावति ॥ ६८ ॥ नट ॥ माधौ नाहिंन डराति जो हृदय वसति । ऐसी ढीठ मेरे जानि तुमहि कीन्हीहै कान्ह मोसों सन्मुख देखत्ति न त्रसति ॥ झुके झुकति भाल भृकुटी कुटिल किये रूखीव रहत हँसते हँसति तवहीते इकटक चितवत और सिसकत हौं डरते इत स्तनधसति।। जाही सों लगत नैन ताही खगत वैन नख शिखलौं सवगात असति । नाके रंग राचे हरि सोईहै अंतर संग काँचकी करोतीके जल ज्यों लसति ॥ विहँसि बोले गोपाल सुनिरी ब्रजकी वाल उछंग लेत कत धरणि वसति । अपनी छाया निहारि काहेको करति आरि कामकी कसोटी सर कर्पते कसति ।। ६९ ॥ कान्हरो ॥ काहेको हो बात बनावत । अब तुमको पिय मैं पत्याति हौं अपनी धरणि वतावत ॥ वा देखत हमको तुम मिलिहौ काहेको ताको अनखावत । जहें कहूं: निकास हिरदैते जानि वाझ तेहि क्यों रचटावत ॥ जो वह कह करो तुम सोई कहा मोहि पुनि । पुनि समुझावत । सुरक्ष्याम नागर वह नागरि भले भले जू मोहिं खिझावत ॥ ७० ॥ ॥ गुंडमलार || वृथा हठ दूरि किनि करी प्यारी । कहा रिस करति झां छांह अपनी देखि उरको उनहीं रिस जरति भारी॥ तुमहिं धन रहति मन नैनमें तुव वसति कनक सो कसिलेहु कहा वैठी।। चतुराई कहांगई बुद्धि कैसी भई चूक समुझे विना भौंह ऐठी ।। यह सुनत रिसभरी रही नहिं तहाँ खरी ओटदै झरि हरी मानुकीन्हौं । जाहु मन कह्यो मैं बहुत सुख लह्यो सौति देखराय मोहिं सुर दीन्हो । ७१ ॥ राग कल्याण ॥ कियो अतिमान वृषभानुवारी । देखि प्रतिबिंब पिय हृदयनारी ॥ कहाह्यां करत लैजाहु प्यारी । मनहिमन देत अति ताहिगारी।सुनत यह वचन पिय विरह वाढो।। कियो अति नागरी मानगाहो ॥ कामतनु दहत नहिं धीरधारै । कबहुँ बैठत उठत वारवारै । सूर अतिभए व्याकुल मुरारी । नैनभरिलेत जलदेत ढारी ॥ ७२ ॥ विहागरो । मानकरयो त्रिय विन। अपराधहि । तनुदाहति विनकाज आपनो कहत डरत जिय वादहिौकिहारही मुख मंदि भामिनी मोहिं चूक कछु नाहीं । झझकि रही क्यों चतुर नागरी देखि आफ्नी छाहीं।। अजहूं दूरि करो रिस ! उरते हृदये ज्ञान विचारौ । सूरश्याम कहि कहि पचिहारे हठ कीन्हों जिय भारौ ॥ ७३ ॥ सोरट ! | काम श्याम तनु चटप कियो । मनो धरचो नागरि जिय. गाढो मूख्यो कमल हियो। व्याकुल: .. भए चले वृंदावन मिली दूतिका आनि । वारवार हरि वदन निहारति सकै न दुख पहिचानि ।। कैसी दशा आजु मैं देखाति कहो न मोहिं सुनाइ । सूरझ्याम देखे तुम व्याकुल आए कहा गँवाइ ॥७॥ गौरी ॥ व्याकुल वचन कहत हैं श्याम । वृथा नागरी.मान बढायो जोर कियो तनु काम