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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५८

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दशमस्कन्ध-१०


यह कहतहि लोचन भरि आए पायो विरह सहाइ। चाहत कह्यो भेद ता आगे वाणी कही न जाइ॥ और सखी तेहि अंतर आई व्याकुल देखि मुरारी। सूरश्याम मुख देखि चकित भई क्यों तनुरहे बिसारी॥७२॥ विहागरो ॥ कहति दूतिका सखिन बुझाइ। आज राधिका मान करयो है श्याम गए कुँभिलाइ॥ करसों कर धरि लाल लेगई सखिन सहित वनधाम। सुखदै कह्यो लिए आवतिहौं संग विलसो बाम॥ मो आगेकी महरि बिटनिआं कहा करै वह मान। सुनहु सूर प्रभु कितिक बात यह करौ न पूरण काम॥७६॥ भैरव ॥ श्याम कुंन बैठारि गई। चतुर दूति का सखियन लीन्हें आतुरताई जानि लई॥ मनहीं मन इक रचि चतुराई इहै कहौंगी बात नई। अबहीं लै आवतिहौं ताको इहै भई कछु बहुत दई॥ करि आई हरिसों परतिज्ञा कहा कहै वृषभानु जई। सूरश्याम सो मान करयो है आजुहि ऐसी कहा भई॥७७॥ नट ॥ सखिन सँग लै तहां गई। दूतिका मुख निरखि राधा जानि हृदय लई॥ अति चतुर वृषभानुतनया सहज बोलि लई। सहज वचन प्रकाश कीन्हो कहाँ कृपा भई॥ तुरतही यह कहि सुनायो श्याम बोले तोहिं। सूर प्रभु वन बोलि पठई तोहिं कारण मोहिं॥७८॥ टोडी ॥ काहेको वन श्याम बोलाई। याहीते तुम धाई आई॥ कहा कहौं तोकोरी माई। तुमहुँ भली अरु भले कन्हाई॥ अब इक नई मिली है आई। ताहीको अब लेहिं बुलाई॥ ताको राखी हृदय दुराई। तोको ह्वांते टारि पठाई॥ सूर श्याम ऐसे गुण राई। उनकी महिमा कही न जाई॥७९॥ धनाश्री ॥ आजु कछू घर कलह भयोरी। तऊ आज अनमनी वत्यानी यह कहि मान ठयोरी॥ मोसों कछुक कह्यो नहिं मोहन सहज पठाई लेन। कहा पुकार परी हरि आगे चलो न देखो नैन॥ तेरो नाम लेत हरि आगे कहत सुनाइ सुनाइ। सूर सुनहुका को काको गथ तै धौं लियो छँडाइ॥८०॥ सूही ॥ वृंदावन हरि बैठे धाम। काहेको गथ हरयो सबनको काहे अपनो कियो कुनाम॥ डारि देहु कह लियो परायो मेरो कह्यो मानिरी बाम। तबहीं ते उन सोर लगायो तोकों बोली है यहि काम॥ चलहु तुरत जिनि झेर लगावहु अबहीं आइ करौ विश्राम। सूरश्याम तेरी घां झगरत तू काहे तिनसों करै ताम॥ ८१॥ जैतश्री ॥ यह कछु नोखी बात सुनावति। काको गथ धौं मैं लीन्हों है बार बार वन मोहिं बोलावति॥ मेरी घां हरि लरत कौनसों इतीमया मोहिं कीन्हीं। जैसे हैं हरि तेरे माई मैं नकि करि चीन्हीं॥ की बैठो की भवन जाहुकी मैं उनपै नहिं जाउँ। सूरदास प्रभुको री सजनी जन्म न लेहौं नाउँ॥८२॥ गौरी ॥ मैं कहा तोहं मनावन आई। प्रगट लिए सबको ब्रज बैठी कहा करति अधिकाई॥ जाइ करौ ह्वां बोध सबनिको मोपर कत सतरानी। श्यामलरत तबहीते उनसों तिन पर अतिहि रिसानी। बार बार तू कहा कहतिरी ब्रज काको मैं लीन्हों। सूरदास राधा सहचरिसों ज्वाब निदरिकै दीन्हों॥८३॥ सोरठ ॥ तैं कछु नाहिं काहूको लीन्हों। प्रगट कहौं तबहीं मानोंगी ज्वाब निदरि मोहिं दीन्हों॥ तब वदिहौं ऐसेहि ह्वां कहै जहँ बैठे सब बैरी। मेरे कहे बहुत रिस पावति संपति सबकी लैरी॥इक इक करि सब तोहिं दिखाऊँ कहि आवहु बनजाइ। की दीजो की पुनि सब लीजौ सूर श्याम पै आइ॥८४॥ सूही ॥ जिन जिन जाइ श्याम के आगे तेरी चुगली बहुत करी। बार बार जिन सों हरि खीझे तेरी घां ह्वै महूं लरी॥ श्याम भेद करि मोहिं पठाई तू मोहीं पर खीझ परी। जाइ करो रिस वैरिनि आगे जाके जाके गथहि हरी॥ धरनि अकाश बनहु के आए देखत तिनको अतिहि डरी। सूरश्याम बिनु न्याव चुकै क्यों तिन पर तू अतिही झहरी॥८६॥ धनाश्री ॥ ते जन पुकारे