पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५८

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दशमस्कन्ध-१० (३६५) यह कहतहि लोचन भरि आए पायो विरह सहाइ । चाहत कहो भेद ता आगे वाणी कही न जाइ ॥ और सखी तेहि अंतर आई व्याकुल देखि मुरारी। सूरश्याम मुख देखि चकित भई क्यों तनुरहे विसारी ॥ ७२ ॥ विहागरो ॥ कहति इतिका सखिन बुझाइ । आज राधिका मान करयो है श्याम गए कुँभिलाइ॥ करसों कर धरि लाल लेगई सखिन सहित वनधाम । सुखदै कह्यो लिए आवतिहौं संग विलसो वाम ॥ मो आगेकी महरि विटनिआं कहा करै वह मान । सुनहु सूर प्रभु कितिक वात यह करौ न पूरण काम ॥ ७६ ॥ भैरव ॥ श्याम कुंन बैठार गई । चतुर दूति का सखियन लीन्हें आतुरताई जानि लई ॥ मनहीं मन इक रचि चतुराई इहै कहौंगी बात नई । अवहीं ले आवतिहों ताको इहै भई कछु बहुत दई । करि आई हरिसों परतिज्ञा कहा कहै वृपभा- नु जई । सूरश्याम सो मान करयो है आजुहि ऐसी कहा भई ॥ ७७ ॥ नट ॥ सखिन सँग लै तहां गई । दूतिका मुख निरखि राधा जानि हृदय लई ॥ अति चतुर वृपभानुतनया सहज बोलि लई । सहज वचन प्रकाश कीन्हो कहाँ कृपा भई । तुरतही यह कहि सुनायो श्याम बोले तोहि। सूर प्रभु वन बोलि पठई तोहि कारण मोहि ॥ ७८ ॥ टोडी ॥ काहेको वन श्याम बोलाई। याहीते तुम धाई आई ॥ कहा कहाँ तोकोरी. माई । तुमहुँ भली अरु भले कन्हाई ॥ अब इक नई मिली है आई । ताहीको अब लेहिं बुलाई ॥ ताको राखी हृदय दुराई । तोको हाते टार पठाई ॥ सूर श्याम ऐसे गुण राई । उनकी महि मा कही न जाई.॥ ७९ ॥ धनाश्री ॥ आजु कछू घर कलह भयोरी । तऊ आज अनमनी व- त्यानी यह कहि मान ठयोरी ॥ मोसों कछुक कह्यो नहिं मोहन सहज पठाई लेन । कहा पुकार परी हरि आगे चलो न देखो नैन । तेरो नाम लेत हरि आगे कहत सुनाइ सुनाइ । सूर सुनहुका को काको गथ तै धौ लियो उँडाइ ॥ ८०॥ मूही ॥ वृंदावन हरि बैठे धाम । काहेको गथ हरयो सवनको काहे अपनो कियो कुनाम ॥ डारि देहु कह लियो परायो मेरो कह्यो मानिरी वाम । तवहीं ते उन सोर लगायो तोको बोली है यहि काम ॥ चलहु तुरत जिनि झेर लगावहु अवहीं आइ करौ विश्राम । सूरश्याम तेरी घां झगरत तू काहे तिनसों करै ताम ॥ ८॥ गैती ॥ यह कछु नोखी बात सुनावति । काको गथ धौं मैं लीन्हों है वार वार वन माहि बोलावति ॥ मेरी घां हरि लरत कौनसों इतीमया मोहिं कीन्हीं । जैसे हैं हरि तेरे माई मैं नकि कार चीन्हीं ॥ की बैठो की भवन जाहुकी मैं उनपै नहिं जाउँ । सूरदास प्रभुको री सजनी जन्म न लेहौं नाउँ ॥ ८२॥ गौरी ॥ मैं कहा तोहं मनावन आई । प्रगट लिए सवको व्रज बैठी कहा करति अधिकाई ॥ जाइ करौ हां बोध सवनिको मोपर कत सतरानी । इयामलरत तवहीते उनसों तिन पर अतिहि रिसा नी। बार बार तू कहा कहतिरी ब्रज काको मैं लीन्हों। सूरदास राधा सहचरिसों ज्वाव निदरिकै दीन्हों।। ८३॥ सोरठ। तें कछ नाहि काहूको लीन्हाँ । प्रगट कहीं तवहीं मानोगी ज्वाव निदरि मोहि दीन्हों। तव वदिहीं ऐसेहि हां कहै जहँ बैठे सब बैरी । मेरे कहे बहुत रिस पावति संपति सबकी लैरी॥इक इक करि सब तोहिं दिखाऊँ कहि आवहु बनजाइ । की दीजो की पुनि सब लीजो सूर श्याम पै आइ ॥ ८॥ सूही ॥ जिन जिन जाइ श्याम के आगे तेरी चुगली बहुत करी। बार वार जिन सो हरि खीझे तेरी पां है महूं लरी ॥ श्याम भेद करि मोहिं पठाई तू मोहीं पर खीझ परी। जाइ करो रिस वैरिनि आगे जाके जाके गथहि हरी ॥ धरनि अकाश बनहु के आए देखत तिनको अतिहि डरी।सूरश्याम विनु न्याव चुकै क्यों तिन पर तू अतिही झहरी॥८६॥धनाश्रीति जन पुकारे -