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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६४

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दशमस्कन्ध-१०


भवन गई वृषभानुतनया कोक कला सुयाम॥ करत मनकामना पूरण एक निशि सब वाम। सूरप्रभु जा सदन जात न सोइ करत तनु ताम॥२५॥ अथ खंडिता समय ॥ बिलावल ॥ नाना रँग उप जावत श्याम। कोउ रीझति कोउ खीझति वाम॥ काहूके निशि बसत बनाई। काहू मुख ह्वै आवत जाई॥ बहुनायक ह्वै विलसत आप। जाको शिवनहिं पावहिं जाप॥ ताको ब्रजनारी पति जानैं। कोऊ आदर कोउ अपमानैं॥ काहूसों कहि आवत सांझ। रहत और नागरि घर मांझ॥ कबहुँ रैनि सब संग विहात। सुनहु सूर ऐसे नँदतात॥२६॥ बिलावल ॥ अब युवतिन सों प्रगटे श्याम। अरस परस सबहिन यह जानी हरि लुब्धे सबहिनके धाम॥ जादिन जाके भवन न आवत सो मन में यह करति विचार। आजु गए और हि काहूके रिसपावति कहि बडे लवार॥ यह लीला हरिके मनभावति खंडित वचन कहत सुख होत। साँझ बोलदै जात सूर प्रभु ताके आवत होत उदोत॥२७॥ रामकली ॥ ठाढे नंद द्वार गोपाल। बोलि लीन्हें देखि ललिता सैनदै ततकाल॥ हँसत गए हरि गेह ताके कोउ न जानत और। मिली हरिके लाइ उरभार चापि कुचन कठोर॥ कह्यो मेरे धाम कबहूं क्यों न आवत श्याम। सूर प्रभु कहि आजु नागरि आइ हैं हम जाम॥२८॥ बिलावल ॥ ललिता को सुख दै गए श्याम। आज बसैंगे रौनि तुम्हारे प्राण पियारी हौ तुम वाम॥ यह कहिकै अनतहि पगधारे बहुनायक के भेद अपार। साँझ समय आवन कहि आए सौंह बहुत करि नंदकुमार॥ वह बैठी मारग हरि जोवति इक इक पल बीतत इक याम। सूरश्याम आवनकी आशा सेज सँवारी व्याकुल काम॥२९॥ गौरी ॥ सांझहि ते हरि पंथ निहारै। ललिता रुचि करि धाम आपने सुमन सुगंधनि सेज सँवारै॥ कबहुँक होत वार ने ठाढी कबहुँक गनति गगनके तारे। कबहुँक आइ गली मग जोवति अजहुँ न आए श्याम पियारे॥ वै बहुनायक अनत लुभाने और वामके धाम सिधारे। सुरश्याम बिनु विलपति वाला तमचुर शब्द जहँ तहां पुकारे॥३०॥ ललिता तमचुर टेर सुन्यो। वै बहुनायक अनत लोभाने नहिं आए जिय कहा गुन्यो॥ बिन कारण दै आश गए पिय बार बार तिय शीश धुन्यो। सेज सँवारि पंथ निशि जोवत अस्त आनि भयो चंद पुन्यो। तब बैठी मनमारि आपनो कछु रिस कछु मन सोच परयो। सूरश्याम याते नहिं आए मात पिताको त्रास धरयो॥३१॥ जैतश्री ॥ सोचपरचो नागरि मन माहीं। की काहूके अनत लोभाने की पितुमात त्रास मनमाहीं॥ वै निशि बसे महल शीलाके सुख सब रैनि गँवाई। उठे अकुलाइ भोर भयो जान्यो तब नागरि सुधि आई॥ सहज चले गोपी सो कहिकै जिय सकुचे अति भारी। सूरश्याम ललिता गृह आए चितै रही मुँहप्यारी॥३२॥ ललित ॥ प्यारी चितै रही सुख पियको। अंजन अधर कपोलनि वंदन लाग्यो काहू त्रियको॥ तुरत उठी दर्पण करलीन्हें देखो बदन सुधारो। अपनो मुख उठि प्रात देखिकै तब तुम कहूं सिधारौ। काजर बदन अधर कपोलन सकुचे देखि कन्हाई। सुरश्याम नागरि मुख जोवत वचन कह्यो नहिं जाई॥३३॥ शीलाके घरते ललिताफे आएआसावरी ॥ दर्पण लै प्यारी मुख आगे कहति पिया छबि हेरोजू। मेरी सौं हाहा कहि पुनि पुनि उत काहे मुख फेरोजू॥ सकुचत कहा बोलके साँचे मेरे गृहतो आएजू॥ रौनि नहीं तौ अब जु कृपा भई धनि जिनि स्वांग करायोजू॥ मेरी कही विलग जिनि मानो मैं तुब करत बडाईजू। सुरश्याम सन्मुख नहिं चितवत रहे धरणि शिरनाईजू॥३४॥ ललित ॥ क्योंमो हन दर्पण नहिं देखत। क्योंधरणीपग नखन करोवत क्यों हमतन नहिं पेखत॥ क्यों ठाढे बैठत क्यों