नाहीं कहा परी हम चूक। पीतांबर गहि कह्यो बैठिए रहे कहा ह्वै मूक॥ उघरि गयो उरते उपरैना नखछत बिन गुणमाल। सूर देखि लटपटी पागपर जावककी छबिलाल॥३५॥ ईमन ॥ ऐसी कहौ रँगीले लाल। जावकसों कहाँ पाग रँगाई रँगरेजिनमिलि है को बाल॥ वंदन रंग कपोलन
दीन्हों अधर अरुणभए श्याम रसाल। जिनि तुम्हरे मन इच्छा पुरई धनि धनि पिय धनि धनि वह बाल॥ माला कहाँ मिली विन गुनकी उरछत देखिभई बेहाल। सूरश्याम छबि सबै बिराजी इहै देखि मोको जंजाल॥३६॥ गुंडमलार ॥ काहेते सकुचत पिय दृष्टि नहीं तुम जोरत मोहन रूप
विहारी। निकसे समाचार सब सोवत घूमति ऑखि तिहारी॥ नैन जगे पल लगे जातहैं योठत तल्प हमारी। विविध कुसुम रचना रचि पचिकै आने हाथ सवाँरी॥ कहत सूर उर तप्यो भोर भयो हम बैठी रखवारी॥३७॥ बिलावल ॥ ज्वाब नहीं पिय आवई क्यों कहाँ ठगाने। मैं तबहीं की बकतिहौं कछु आजु भुलाने॥ हाँ नाहीं नहिं कहतहौ मेरीसों काहे। आए क्यों चकृतभए मोको रिसिदाहे॥ कहाँरहे कासों बन्यो तहाँई पगधारो। सूरश्याम गुणरावरे हिरदै नविसारो॥ ॥३८॥ बिलावल ॥ काहेको कहि गए आइहैं काहे झूठी सोंहैं खाए। ऐसे मैं जाने नहिं तुमको जे गुणकरि तुम प्रगट देखाए। भलीकरी दरशनहरि दीन्हें जन्म जन्मके ताप नशाए। तब चितए हरिनेक त्रियातन इतनेहि सब अपराध क्षमाए॥ सूरदास सुंदरी सयानी हँसि लीन्हे पिय अंकम लाए॥३९॥ बिलावल ॥ नैनकोरहरि हेरिकै प्यारी वश कीन्हीं। भावकह्यौ आधीनको ललिता लखिलीन्ही॥ तुरतगयो रिस दूरिह्वै हँसि कंठ लगाए। भलीकरी मनभावते ऐसेहु मैं पाए॥
भवनगई गहिवांहलै निशिजागे जाने। अंग सिथिल निशिश्रम भयो मनहीमन ज्ञाने॥ अंग सुगंध मर्दनकियो तुरतहिं अन्हवाये। अपनेकर अंग पोंछिकै मन साध पुराए॥ चीर अभूषण अंगदे बैठे गिरिधारी। रुचिभोजन पियको दियो सूरज बलिहारी॥४०॥ कल्याण ॥ कियो मन काम नहिं रही बाकी। प्रिया रिस दूरिकै दियो रसपूरिकै अनंगबलदूरिकै गोपजाकी। नंदसुत लाडिले प्रेमके चांडिले सोंहदै कहतहै नारिआगे। तुम परमभावती प्राणहूँ ते खरी सुख नहीं लहत मैं तुमहिं त्यागे॥ तुमहिधन तन तुमहि तुमहि मनही सबै और त्रिय नहीं मो मनहि भावै। सूर प्रभु चतुरवर चतुर नागरिनके चतुरई वचन कहि मन चुरावै॥४१॥ भैरव ॥ इहै भाव सब युवतिनसों।
ऐसे वचन कहत सब आगे भूलि रहति मनमोहनसों। बिनदेखे रिसभाव बढावत मिलिआई दै सोंहनि सों। मुख देखत दुख रहत नहीं तनु चितवत मुरि दोउ भौंहनसों॥ और त्रियाअँध चिह्न विराजत रिस मनहीं मन छोहनसों। सुरश्याम सब गोप कुमारी टरति नहीं कहुँ गोहनसों॥४२॥ बिलावल ॥ ललिताको सुख दै चले अपने निजधाम। बीचमिली चंद्रावली उन देखे श्याम॥ मोर मुकुट कछनी कछे नटवर गोपाल। रही बदन तनु हेरिकै अतिहित ब्रजबाल ॥ गली साँकरी कोउ नहीं आतुर मिलि धाई। कहां कहां पिय रहतहौ हमको बिसराई॥ श्याम कह्यो हँसि वाम सों तुम्हरे निशिवास। सूर हृदयकी कल्पना सुनि भई हुलास॥४३॥ आसावरी ॥ श्याम वामको सुख दै बोले रैनि तुम्हारे आऊंगो। मात पिता जिय त्रास धरत हौं तऊ आइ सुख
पाऊंगो॥ तुव मिलवेकी साध भुना भरि उरसों कुच परसाऊंगो। नैन बिसाल भाल उर बैठे ते तुव हाथ कहाऊंगो॥ तब तनु परसि काम दुख मेटों जीवन सफल कराऊंगों। सुनहु सूर अधरन रस अँचवो दुहुँ मन तृषा बुझाऊंगो॥४४॥ गूजरी ॥ सुनि सुनि वचन नारि मुसुकानी। गई सदनु अति ह्वै उतावली आनँद सहित लजानी॥ फूली फिरति कहति नहिं काहूमीन मिल्यो
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सूरसागर।
