पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६५

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(३७२) सूरसागर। नाहीं कहा परी हम चूक । पीतांवर गहिकह्यो वैठिए रहे कहावै मूक | उपरि गयो उरते उपरेना नखछत विन गुणमाल । सूर देखि लटपटी पागपर जावककी छविलाल ॥ ३५ ॥ ईमन ॥ ऐसी कहौ रँगीले लाल । जावकसों कहाँ पाग रँगाई रंगरेजिनमिलि है को वाल ॥ वंदन रंग कपोलन दीन्हों अधर अरुणभए श्याम रसाल। जिनि तुम्हरे मन इच्छा पुरई धनि धनि पिय धनि धनि वह बाल ॥ माला कहाँ मिली विन गुनकी उरछत देखिभई वेहाल । सूरश्याम छवि सबै विराजी इहै दखि मोको जंजाल ॥३६॥ गुंडमलार ॥ काहेते सकुचत पिय दृष्टि नहीं तुम जोरत मोहन रूप विहारी। निकसे समाचार सब सोवत घूमति ऑखि तिहारी ॥ नैन जगे पल लगे जातहैं योठत तल्प हमारी। विविध कुसुम रचना रचि पचिकै आने हाथ सवारी ।। कहत सूर उर तप्यो भोर भयो हम बैठी रखवारी ॥ ३७॥ विलावल ॥ ज्वाब नहीं पिय आवई क्यों कहाँ ठगाने । मैं तवहीं की वकतिहौं कछु आजु भुलाने ॥ हाँ नाही नाह कहतहौ मेरीसों काहे । आएक्यों चकृतभए मोको रिसिदाहे ॥ कहाँरहे कासों वन्यो तहाँई पगधारो। सूरश्याम गुणरावरे हिरदै नविसारो ॥ ॥३८॥ विलावल ॥ काहेको कहि गए आइहैं काहे झूठी साह खाए। ऐसे में जाने नहिं तुमको जे गुणकरि तुम प्रगट देखाए । भलीकरी दरशनहरि दीन्हें जन्म जन्मके ताप नशाए । तव चितए हरिनेक नियातन इतनेहि सब अपराध क्षमाए ॥ सूरदास सुंदरी सयानी हँसि लीन्हे पिय अंकम लाए॥३९॥ विलावल ॥ नैनकोरहरि हेरिकै प्यारी वश कीन्हीं। भावकह्यौ आधीनको ललिता लखिलीन्ही ॥ तुरतगयो रिस दूरिहै हँसि कंठ लगाए । भलीकरी मनभावते ऐसेहु मैं पाए । भवनगई गहिवाहलै निशिजागे जाने । अंग सिथिल निशिश्रम भयो मनहीमन ज्ञाने ॥ अंग सुगंध मर्दनकियो तुरतहिं अन्हवाये । अपनेकर अंग पोंछिकै मन साध पुराए । चीर अभूषण अंगदे बैठे। गिरिधारी । रुचिभोजन पियको दियो सूरज बलिहारी ॥४०॥ कल्याण ॥ कियो मन काम नहि I रही वाकी। प्रिया रिस दूरिकै दियो रसपूरिकै अनंगवलदूरिकै गोपजाकी । नंदसुत लाडिले प्रेमके चांडिले सोहदै कहतहै नारिआगौतुम परमभावती प्राणहूँ ते खरी सुख नहीं लहत मैं तुमहि । त्यागे। तुमहिधन तन तुमहि तुमहि मनही सवै और त्रिय नहीं मो मनहि भावै । सूर प्रभु चतुर वर चतुर नागरिनके चतुरई वचन कहि मन चुरावै ॥४१ ॥ भैरव ॥ इहै भाव सब युवतिनसों। ऐसे वचन कहत सब आगे भूलि रहति मनमोहनसों । विनदेखे रिसभाव वढावत मिलिआई दै सोहनि सों। मुख देखत दुख रहत नहीं तनु चितवत मुरि दोउ भौंहनसों ।। और चिया अँध चिह्न विराजत रिस मनहीं मन छोहनसों। सुरश्याम सब गोप कुमारी टरति नहीं कहुँ गोहन सों॥ ४२ ॥ विलावल । ललिताको सुख दै चले अपने निजधाम । बीचमिली चंद्रावली उन देखे श्याम ॥ मोर मुकुट कछनी कछे नटवर गोपाल। रही बदन तनु हेरिकै अतिहित ब्रजवाल ॥ 'गली साँकरी कोउ नहीं आतुर मिलि धाई । कहां कहां पिय रहतही हमको बिसराई ॥ श्याम कह्यो हँसि वाम सों तुम्हरे निशिवास । सूर हृदयकी कल्पना सुनि भई हुलास ॥४३॥ आसावरी । श्याम वामको सुख दे वाले रैनि तुम्हारे आऊंगो । मांत पिता जिय त्रास धरत हौं तऊ आइ सुख पाऊंगो ॥ तुव मिलवेकी साध भुना भरि उरसों कुच परसाऊंगो । नैन विसाल भाल उर बैठे ते तुव हाथ कहाऊंगो। तव तनु परसि काम दुख मेटों जीवन सफल कराऊंगों । सुनहु सूर अधरन रस अँचवो दुहुँ मन तृषा बुझाऊंगो ॥ १४॥ गूलरी ॥ सुनि सुनि वचन नारि मुसुकानी। गई सदनु अति वै उतावली आनँद सहित लजानी ॥ फूली फिरति कहति नहिं काहूमीन मिल्यो। ।