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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६७

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सूरसागर।


पी ढब लैगई नागरि अंक भरेसेहो॥५३॥ सारंग ॥ तहँइ जाहु जहँ रैनि रहे बसि। कैतवकत दामिनि पद प्रगटत आए मारन दुअन बानकसि॥ सिथिल सरोज रोर सुठि सोभित शीशहुते कछु पागरही धसि। जावक रस मनौ संबर अरिगण पिया मनाई पदललाट घसि॥ बिन गुणमाल मराल तरनिगति मगन चालपद परत रहत खसि। चंदन चरचित कुच उर उपटित मनु नवघनमें उदित दोउ शशि॥ सखियन समाचार लिखि पठए तन कागज नखलेखनि रुधिरमसि। सूरदास प्रभु श्रीगोपालहै मानो जागत भई निशा नशि॥५४॥ ॥ बिलावल ॥ तहँइ जाहु जहां निशा बसेहो। जानतहो पिय चतुर शिरोमणि नागरि जागर रास रसेहो॥ घूमतहौ मनो प्रिया उरगिनी नव विलास श्रमसे जडसेहो। काजर अधरनि प्रगट देखियत हो नागवेलि रँग निपट लसेहो॥ श्याम उरस्थल पर रेखा मनहुँ गगन शशि उदित दिसेहो। लटपटी पाग महावरके रँग माननि पग पर शीश घसेहो॥ विगलित वसन मरगजी माला पीठ बलयके चिह्न लसेहो। सूरदास प्रभु प्रिया वचन सुनि नागर नगधर नैक हँसेहो॥५५॥ तहँई जाहु जहँ रैनि हुते। काहे दुराव करत मनमोहन मिटे चिह्न नहिं अंगजुते॥ विनही गुन उरहार विराजत परम चतुर हियलाइ सुते। विथुरीं अलक अटपटे भूषण काम कुटिल कुच बीचगुते॥ दशन दाग नखरेखवनी है भामिनि भवन भले भुगुते। सुर सुदेश अधर मधु फीके लोचन अलस उनीदहुते॥५६॥ तहांई जाहु जहां रैनि गँवाई। काहेको मुँह परसन आए जानति हौं चतुराई॥ वाके गुण मनते नहिं टारत बोलत नाहीं वैन। याछबिपर मैं तन मन वारों पीक विराजित नैन। भली करी यह दरश दिखायो ताते नैन सिराने। सूर श्याम निशिको सुख लूट्यो हमकों मया विहाने॥५७॥ सुघराई ॥ आएलाल ललित भेष किए। पीककपोल अधर पर काजर जावक भाल दिए॥ चंदन खौरि मेटि अब आए कुमकुम रंग हिए। पीतांबर तहां डारि कौनको नीलांबरहि लिए॥ लालीदै पीरी लै आए देखत पुलकि जिए।सूरदास प्रभु नवल रसीले वोऊ नवल त्रिए॥५८॥॥ मूही ॥ जागे होजू रावरे पै नैना क्यों नखोलौ। भये त्रियाके वंश निशि जागे सरवस भोरभए उठि आए भूले कहा डोलो॥ चंदन मिटाए तनु अतिही अलसात नागरीकी पीक लागी तो कपोलो। पीतांबर भूलि आए प्यारी जीको षटु ल्याए भोर भए उठे सुरकिए आए दोलो॥५९॥॥ बिलावल ॥ पीतांबर पट कहा भयो। नीलांबर ओढेहो आए अति दुहुँ डहो नयो॥ तैसोइ अंग बसन रंग तैसोइ कहा कहौं यह सोभा। तैसिय बनी मरगजीकेसरि ता त्रियके मनलोभा॥ एते पर क्यों बोलत नाहीं कहा खोइसे आए। सूरश्याम यह अब मैं जानी नागरि चित्त चुराए॥६०॥ भैरव ॥ हाहाहो पिय बात कहौ। आप कछू जिय तरक गहत हो तौ तुम मोसों मैं नगहो॥ कहाचूक हमको पिय लागै रूसि रहेहौ कहिजू। तबहींते वैसेहि हो ठाढे मोतनकौ नहिं चाहेजू॥ अब हमको अपराध क्षमैंगे कृपा करौ मुख बोलोजू। सूरश्याम अब तजो निठुरई गांठि हृदयकी खोलोजू॥६१॥ बिलावल ॥ रूखे हो पिय रूखेहो। उत्तरको उत्तर नदेतहौ देखतही न कछूखेहौ॥ वह चितवनि नहोइ नैननकी वचननहूं ते उतहूषेहौं । वह मुखकमल विकास नहीं रति सायक शिरहि विदूषेहौ॥ की छुटि गई संपदा करते की ठग ठगे कछूषेहौ। मेरेहु जान सूर प्रभु सचि मदनचोर मिलि मूषेहौ॥६२॥ मदनचोर सों जानि मुषायो। अपनी लाली खोइ पीककी लाली पलकनि पायो॥ ह्यांते गए चतुरई लीन्हें सो सब उनहि छपायो। आलस अबल जम्हात अंग ऐंडात गात दरशायो। कंचन खोय कांच लै आये बिढतो भलो फवायो। सूर कहूं घर परमन नाहीं जैसे हाल करायो॥६३॥ काफी ॥ लाल उनीदे नयना आलस भरि आए। अरुझि काम