की वेलि सों कौने विरमाए॥ सिथिल पाग दस्तारकी जावक रँग भीने। पाँइपरे अपवश करे तब सरवसदीने॥ लाली मेरे लालकी सबतन ढीले। लाली ले लालनगए आए मुख पीले॥ बिन गुनमाल हिये लसै पिय प्रीति निसानी। सखी रसाल हमको दई तुम देहु बिरानी॥ पग डगमग इत को धरौ उतको दृगधाए। अभ्यंतर अंतर बसे पिय मोमन भाए॥ उलटि तहां पग धारिए जासों मनमान्यो। छपदकंज तजि बेलिसों लटि प्रेम नजान्यो॥ तब हँसि बोले श्यामजी तुमते को प्यारी। तुम बिनु कल मोको नहीं अतिही सुखकारी॥ वचन चतुरई छांडिदेहु कहा पढि आए। सूरश्याम गुणराशि हौ नीके प्रगटाए॥६४॥ सुघराइ ॥ आए लाल यामिनी जागेसे भोर। नील कलेवर कोमल ऊपर रगडि गए कुच जे कठोर॥ निशिवसि रहे मानिनीके गृह ह्यां उठि आए भोर। सूरदास प्रभु वचन बनावत अब चोरत मनमोर॥६५॥ आए लाल ललित भेष किए। पीक कपोल अधर पर काजर जावक भाल दिए॥ चंदन खौरि मोट अब आए कुमकुम रंग हिए। पीतांबर कहां डारि कौनको लीला बरहि लिए॥ लालीदै पियरी लैआए देखत पुलकि जिए। सूरदास प्रभु नवल रसीले वोऊ नवल त्रिये॥६६॥ मैं जानी जिय जहँ रति मानी। तुम आएहौ ललना जब चिरिआं चुहचुहानी॥ मुखकी बात कहा कहौं ठानी बात नहीं पहिचानी। येते पर आँखियां रससानी अरु पगिया लपटानी॥ भाल जावक रंग बनानी अधर अंजन प्रगट जानी। बिन गुण बनी माल सब अंग उलटे निसानी॥ सूरदास प्रभु निधानी अंतर गतिकी मैं सब जानी। धनि त्रिय तुमको जो सुखदानी संग जागत रैनि बिहानी॥६७॥ विभास ॥ मैं जानी पियबात तुह्मारी। भोर भए मेरे गृह आए ऐसे भोरे भारी॥ ह्यां आए मुख परसम मेरो हृदय टरति नहिं प्यारी कपट चतुरई दूरि करौजू अपयश लेतरु गारी॥ कहा सांच मैं खोवत करते झुठे कहा फवावति। सूरश्याम नागर नागरि वह हम तुम्हरे मन आवति॥६८॥ काफी ॥ रैनि रझि की बात कहौ। काहेको सकुचत मनमोहन ठाढे क्यों न रहौ॥ पीताँरब कहा भयो तुम्हारो कीधौं लियोगहो। नीलांबर पहरावन पाई सन्मुख क्योंन चहौ॥ तब हँसि चले श्याम मंदिर तन कछु जिय लाजगहो। सूरश्याम ह्यांई अब रहिए आते पुनीत तुमहो॥६९॥ बिलावल ॥ तुम रीझेकी उनहि रिझाए। हाहा यह पिय प्रगट सुनाऊं कोटिक सोंह दिवाए॥ जावक भाल चिह्न में जान्यो हठकरि
पांय लगाए। नैनन पीक मया उनि कीन्ही अंजन अधर लगाए॥ बिनु गुनमाल मिली कहँ तुमको कंकन पीठि देखावहु। सूरश्याम हमतौ यों जानति तुमहू कहि न सुनावहु॥७०॥ माधव नीकी विधिसों आए। नखरेखाउर मंडित मानो द्वितिया चंद उगाए॥ विगलित वसन पाग डोलतिहै केहरि चाल चलाये। सर्बसु आनि जु रहे सूर प्रभु उत मेरे मन भाए॥ पाउँ धारिए वाम धाम जहँ चारो याम गँवाए ॥७१॥ बिलावला ॥ आजु हरि पायोहै मुंह मँग्यो। जबते तुमसों विचारयो मनसिज दैसिलवारयो त्यागो॥ कहुँ जावक कहुँ बने तमोर रँग कहुँ अंग सेंदुर दाग्यो। मानौ इन छूटे घायलको जहां तहां शोणित लाग्यो॥ नखमानो चंद्र बाण साजिकै झझकारत उर आग्यो। सूरदास माननि रण जीत्यो समर संग डारि रण भाग्यो॥७२॥ आजु हरि रौनि उनीदे आए॥ अंजन अधर ललाट महाउर नैन तमोर खवाए। बिनु गुनमाल बिराजत उर पर चंदन खौरि लगाए। मगन देह शिरपाग लटपटी जावक रंग रँगाए। हृदय सुभग नख रेख बिराजत कंकन पीठि बनाए। सूरदास प्रभु इहै अचंभव तीन तिलक कहाँ पाए॥७३॥ आजु हरि आलसरंग भरे। कबहुँक बाँह जोरि ऐंडावत बहुत जम्हात खरे॥ बैठोगे की पांव धारिए देखत नैन
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दशमस्कन्ध-१०
