पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६८

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दशमस्कन्ध-१० (३७५) 1 की वेलि सों कौने विरमाए । सिथिल पाग दस्तारकी जावक रंगभीने । पाँइपरे अपवश करे तब सरवसदीने ॥ लाली मेरे लालकी सवतन ढीले । लाली ले लालनगए आए मुख पीले ॥ विन गुन माल हिये लसै पिय प्रीति निसानी । सखी रसाल हमको दई तुम देहु विरानी ॥ पग डगमग इत को धरौ उतको हगधाए। अभ्यंतर अंतर वसे पिय मोमन भाए। उलटि तहां पग धारिए जासों मनमान्यो । छपदकंज तजि बेलिसों लटि प्रेम नजान्यो।तवहाँस वाले श्यामजी तुमते को प्यारी। तुम बिनु कल मोको नहीं अतिही सुखकारी ॥ वचन चतुरई छोडिदेहु कहा पढि आए। सूरश्याम गुणराशि हो नीके प्रगटाए॥६॥सुपराइआए लाल यामिनीजागेसे भोर । नील कलेवर कोमल ऊप र रगडि गएकुच जे कठोर ।। निशिवसिरहे मानिनीके गृह ह्या उठि आए भोर। सूरदास प्रभु वचन बनावत अब चोरत मनमोर ॥६६॥ आए लाल ललित भेष किए। पीक कपोल अधर पर काजर जावक भाल दिए। चंदन खौरि मोट अब आए कुमकुम रंग हिए । पीतांवर कहां डारि कौनको लीला वरहि लिए ॥ लालीदै पियरी लैआए देखत पुलकि जिए । सूरदास प्रभु नवल रसीले वोऊ नवल त्रिये ॥६६॥में जानी जिय जहँ रति मानी। तुम आएहौ ललना जब चिरिआं चहचुहा नी ॥ मुखकी बात कहा कहौं ठानी बात नहीं पहिचानी । येते पर आँखियां रससानी अरु पगिया लपटानी ॥भाल जावक रंग बनानी अधर अंजन प्रगट जानीविन गुण बनी माल सब अंग उलटे निसानी ॥ सूरदास प्रभु निधानी अंतर गतिकी मैं सब जानी धनि त्रिय तुमको जो सुखदानी संग जागत रैनि विहानी॥६७॥ विभास ॥ मैं जानी पियवात तुझारी । भोर भए मेरे गृह आए ऐसे भोरे भारी॥ ह्यां आए मुख परसम मेरो हृदय टरति नहिं प्यारी कपट चतुरई दूरि करौजू अपयश लेत रु गारी ॥ कहा सांच मैं खोवत करते झुठे कहा फवावति । सूरश्याम नागर नागरि वह हम तुम्हरे मन आवति ॥ ६८ ॥ काफी ॥ रैनि रझेि की बात कही। काहेको सकुचत मनमोहन ठाढे क्यों न रहो ॥ पीतांवर कहा भयो तुम्हारो कीधौं लियोगहो। नीलांवर पहरावन पाई सन्मुख क्योंन चहौ ॥ तव हँसि चले श्याम मंदिर तन कछु जिय लाज गहो । सूरश्याम ह्याई अब रहिए आते पुनीत तुमहो॥६९॥ बिलावल ॥ तुम झिकी उनहि रिझा ए। हाहा यह पिय प्रगट सुनाऊं कोटिक सोंह दिवाए ॥ जावक भाल चिह्न में जान्यो हठकरि पांय लगाए । नैनन पीक मया उनि कीन्ही अंजन अधर लगाए ॥ विनु गुन माल मिली कहँ तुम को कंकन पीठि देखावहु । सूरश्याम हमतौ यो जानति तुमहू कहि न सुनावहु ॥ ७० ॥ माधव नीकी विधिसों आए। नखरेखाउर मंडित मानो दितिया, चंद उगाए ॥ विगलित वसन.पाग डोलतिहे. केहरि चाल चलाये । सर्वसु आनि जु रहे सूर प्रभु उत मेरे मन भाए ॥ पाउँ धारिए वाम धाम जहँ चारो याम गवाए ॥७३॥ विलावला आजु हरि पायो मुंह मॉग्यो।जवते तुमसों विचारयो मनसिज देसिलवारयो त्यागो। कहुँ जावक कहुँ बने तमोर रंग कह अंग सेंदुर दाग्यो । मानौ इन छूटे पायलको जहां तहां शोणित लाग्यो । नखमानो चंद्र वाण साजिकै झझकारत उर आग्यो । सूरदास माननि रण जीत्यो समर संग डारि.रण भाग्यो॥७२॥ आजु हरि रौनि उनीदे आए ॥ अंजन अधर ललाट महाउर नैन तमोर खवाए । विनु गुनमाल विराजत उर पर चंदन खौरि लगाए । मगन देह शिरपाग लटपटी जावक रंग रंगाए । हृदय सुभग नख रेख विराजत कंकन पीठिबनाए। सूरदास प्रभु इहै अचंभव तीन तिलक कहाँ पाए ॥७३॥ आज हरि आल सरंग भरे । कबहुँक बाँह जोरि ऐंडावत बहुत जम्हात खरे। बैठोगे की पांव धारिफ, देखत नैन