पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशमस्कन्ध-१० (३७७) माई। कहा श्याम अचरज सो कीन्हों कहत कहो नहिं जाई ॥ कैसे लाल अनतते आए कैसे तेरे गेह । कैसे मान कियो क्यों मिटिगएं कैसे बढ्यो सनेह ॥ तब गद्गद वाणी मुख प्रगटी सुन सजनी दै कानासूरज प्रभुके चरित सुनाऊँ जैसे विसरयोमाना॥८॥विलावलाप्रातसमै मेरे मोहन आए कुंचित केश कमल मुख ऊपर हृदय रहो मन अलि कुलछाए ॥ डगमग चाल परत न सूधे पग इहि विधि तो मेरे मन भाए । कहुँ कहुँ पीक कहूं काजर कहुँ नखरेखा अति बनत सुहाए ॥ मो तन बीच निरखि सुसुकाने छोरि पीतपट अंक दुराए।सूरश्याम माधव बालि अब बलि श्याम जानि हौं पाए॥८५॥गौरी। मैं हरि सो हो मान कियोरी।आवत देखि आनवनितारति द्वार कपाट दियोरी॥ अपनेही कर संकर सारी संधि संधि सियोरी । जो देखों तौ सेज समूरति काप्यो रिसनि हियोरी । जब झुकि चलो भवनते बाहर तब हठि लोट लियोरी। कहा कहीं कछु कहत न आवै हेतु गोविं द वियोरी ॥ विसरि गई सब रोष हरष मन पुनि फिरि मदन जियोरी । सूरदास प्रभु अति रति नागर छलि मुख अमृत पियोरी।। ८६॥ दिलावल ॥ तवहीते भयो हरष हियोरी। वैसे आइ चरित ए कीन्हे सदन पैठि मन चोरि लियोरी। अंग वाम छवि शेष देखिकै रिस उपजी जियभारी। क्रोध गयो उर आनंद उपज्यो सुख तनु दशा विसारी ॥ ऐसे चरित कौनको आवे जे कीने गिरिधारी । सूरश्याम रतिपतिके नायक सब लायक बनवारी ॥ ८७ ॥ भैरव ॥ नंदनंदन सुखदायक हैं। नैन सैनदै हरत नारि मन कामं कामतन दायक हैं ॥ कवहूं रैनि बसत काहूके कबहुँ भोर उठि आव तं हैं। सुनहु सुर जेइ जेइ मनभापत तेइ तेइ रंग उपजावत हैं ।। ८८ ॥ विलापल ॥ अनतहि रैनि रहे कहुँ श्याम । भोर भए आए निज धाम ॥ नागरि सहज रही मनमाहीं। नंदसुवन निशि अनत नजाहीमहरसदनकी मेरे मेहासादय है त्रिय इहै सनेह ॥आयेश्याम रही मुख हेरािमन मन करन लगी अवसरि । रतिरस चिह्ननारिके वानि । सूर हँसी राधा पहिचानि ॥ ८९ ॥ रामकली ॥ आज बने पिय रूप अगाधापरउपकाज हेतु तनु धारचो पुरवत सब मन साधा।धर्म नीति यह कहा पटी जूहमहूं वात सुनावहु । कहाँ कहां काको सुख दीनों काहेन प्रगट बतावह ॥ धनि उपकार करत डोलतही आज बात यह जानी। सूरश्याम गिरिधर गुण नागर अंगनिरखि पहिचानी।।९०॥गुजरी। पिय छवि निरखि हसति त्रियभारी।कहां महाउर पाग रँगाई यह सोभा इकन्यारी|अरुननयन अल सात देखियत पलक पीकलपटानो। अधर दशन छत वंदन राजत बंधुकंपुर अलिमानो ॥ हृदय रुचिर मोतिनकी माला नसरेखा तेहि तीराविनु गुनमाल सूरके स्वामी कुंकुम श्यामशरीर॥९॥ ॥बिलावल। धन्य आजु यह दरशदियो। धन्य धन्य जासों अनुरागे तव जानी नहि और वियो। भले श्याम वह भली भावती भले भली मिल भलीकरी । यह मेरे जिय अतिहि अचंभित तौं विछुरत क्यों एक घरी ॥ जाहु तहीं सुख दीनो मोको वै मुनिकै रिस पावेगी । सूरयाम अतिचतुर कहावत बहुरों मनन मिलार्वैगी। ९२॥ क्यों आये उठि भोर इहां। काहेको इतनो सरमाने निर हे फिरि जाहु तहां ।। हमको कहा इती गरुआई उनही क्यों न सम्हारोजू । उनआए ह्यांनाही जा न्यो अजहूं लौं पगधारौजू ॥ हमहूं बोलि वहाँई लीजो डर उनको हमहूं कोहै । सूरश्याम तिनहीं सुख दीजै जो विलसैं सँग तुमकोले ॥ ९३ ॥ रामकली ॥ उनहीको मन राखे काम । ह्यां तुम आए हौजू नाही बात सुनतही नाहीं श्याम॥ देखो अंग अंग प्रतिसोभा मैतौ भूलीहौं यहिरूप । धनि पिय वने वनी वेऊ हैं इक इक रूप अनूप।।सोछवि मोहिं देखाउन आए मायाकरी बहुत हरिआजु सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि वह उरसिकनी बन्यो समाजु ॥९॥ विलावल ॥ रसिक रसिकई जानिपरी । नैननते अब न्यारे हजै तबहीते अति रिसनि मरी । तुम जोवन अरु सो नवजोवनि