येते पर सब गुणनि भरी। लाजनहीं मेरे गृह आवत जाहु जाहु करि त्रिय झहरी॥ अंजन अधर कपोलन बंदन पीक पलक छबि देखिडरी। सूरश्याम रति चिह्न देखावन मेरे आए भले जुहरी॥९५॥ धनाश्री ॥ श्याम त्रिया सन्मुखनहिं जोवत। कबहुँ नैनकी कोर निहारत कबहुँ बदन पुनि गोवत॥ मन मन हँसत त्रसत तनुपरगट सुनत भावतीवात। खंडित वचन सुनत प्यारी के पुलक होत सब गात॥ यह सुख सूरदास कछु जानै प्रभु अपनेको भाव। श्रीराधा रिस करति निरखि मुख सो छबि पर ललचाव॥९६॥ पियको सुख प्यारी नहिं जानै। जोइ आवत सोइ सोइ कहडारत जाहु जाहु तुम गाने। काहेको मोहिं डाहन आए रौनिदेत सुख वाको॥ भली नवेली नोखी पाई जो जाको सो ताको। चंदन वंदन त्रिय अँग कुमकुम शेष लिए ह्यां आए।
सुरश्याम यह तुमहि बड़ाई औरनको सरमाए॥९७॥ बिलावल ॥ औरनको छबि कहा देखावत। तुमहीको भावत मनमोहन हम देखत रिस पावत॥ आपुनको भई बड़ी प्रतिष्टा जावक भाल लगाए। याको अरथ नहीं कोउ जानत मारत सबन लजाए। पियनिधरक हम आति सकुचतहैं दर्पणले मुखदेखो। सूरश्याम क्यों बोलत नाहीं क्यों हम तन नहिं पेखो॥१८॥
गौरी ॥ श्यामहँसे प्यारी मुखहेरो। रिसहि उठी झहराय कह्यो यह वश कीन्हों मन मेरो॥ जाय हँसो पिय ताही आगे मैं रीझी अति भारी। ऐसे हँसि हँसि ताहि रिझावहु देउँ कहा अब गारी॥ होत अवार गमन अब कीजे धरणी कहा निहारत। सुरश्याम मनकी मैं जानी ताके गुणहि विचारत ॥९९॥ देवगंधारी ॥ मैं जानी पिय मनकी बात। धरनी पग नख कहा करोवत अब सीखे ए घात॥ तुम जानत जिय हमहि सयाने अरु सब लोग अयाने। रैनि बसत कहुँ भोर हमारे आवत नहीं लजाने॥ यह चतुरई पढी ताहीपै सो गुण हमते न्यारो। धनि धनि सूरदासके स्वामी काहे हम न विसारो॥२०००॥ मैं जाने होजू ललना तहीं न सिधारिए जहां नयो नेहरा। मुँहकी हल भलई मोहूसों करन आए जिय की जासों ताही सों तुम बिन सूनो वाको गेहरा॥ निशिके सुखकी कहे देत अधर नैना उर नख लागे छबि देहरा। वेगि सँवारे पाँइ धारिए सूरके स्वामी नतर भीजैगो पियरो पट आवतहै पिय मेहरा॥१॥ मलार ॥ ठाढे रहो आंगनही हो पिय जौलौं मेहन नख शिख भीजौ। परन देहु बडी बडी बूंदै तुम चीर उतारि और वस्त्र पहिरौ तब गेह देहरी पांव दीजौ। कहिए बात रैनिकी सांची ता पीछे सोहैं की जो। सुरश्याम तुमहौ बहु नायक देह सुधारि मोहिं छीजौ॥२॥ मोंहूसो निठुरई ठानी मोहन प्यारे काहेको आवन कह्यौ सांचे। प्रीतिके वचन वाचे विरह अनल आंचे अपने गरजको तुम एक पांइ नाचे॥ भलेहोजू जाने लाल अरगजे भीने माल केसरि तिलक भाल मैन मंत्र काचे। निशि चिह्न चीन्हे सूरश्याम रति भीने ताहीके सिधारोपिय जाके रंग राचे॥३॥ मालकौशिक ॥ तुम जिनि सकुचो प्यारे लाल मेरे जो त्रिय सों रति मानी ताहीके रहो अब। मैं इतनेहीमें भलो मानौ प्रीतम जो मेरे आंगन पांव धारे आपन जब॥ नैन तृप्त भए दरश देखतही श्रवण तृप्त भय वचन सुने तब। सूरदास प्रभु चरण छुए कहति रोम रोम पुलकित अंग भए सब॥४॥ कान्हरो ॥
नैन चपलता कहां गँवाई। मोसों कहा दुरावत नागर नागरि रेनि जगाई॥ ताहीके रँग अरुण भएहैं धनि यह सुंदरताई। मनो अरुण अंबुज पर बैठे मत्त भंग रस आई॥ उड़ि न सकत ऐसे मतवारे लागत पलक जभाइ। सुनहु सूर यह अंग माधुरी आलस भरे कन्हाई॥५॥ बिलावल ॥ नैनकी चंचलता कहा कीन्हे भीने रंग कौनकेहो श्याम हमहूँसों कहत दुरावत। और
के बदन देखिवेको नेम लियो ताके पलकनि राखे भार भरे नए आवत॥ पुहुप गंध लाभ
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सूरसागर।
