पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४७२

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दशमस्कन्ध-१० (३७९) भँवर उडि न सकत फिरि बैठत जा समीप रतिमानी संगलिए आवत रतिकीरति गावत । सूरदास प्रभु प्यारे प्यारी रसवश कीन्हे मुखकी हमहि वनावत ॥ ६॥ कान्हरो ॥ जाके रस रैनि आज जागे हो लाल जाई । जावक तिलक भाल दीयो है नंदलाल विनु गुन बनी माल कहत अनोखी अरु वातनि बनाई ॥ अधर अंजन दाग मिव्योहै पीक पराग और मिटी वंदनकी ललाई । अंग अंग सिथिल भएही प्रेम सुरके स्वामी मिटि गई चंचलताई ॥७॥ रंग भरि आएहौ मेरे ललना बातें कहतही अटपटी । अति अलसात जम्हातही प्यारे पिय प्रगट त्रिया प्रताप छूटत नहिंन अंतरकी गटी ॥ यह चतुराई अधिकाई कहाँ पाई श्याम वाके प्रेमकी गढि पढेही पटी। सूरदास प्रभु गिरिधर बहुनायक तन मन नैन चटपटी ॥८॥ । ईमन ॥ डोलत महल महल इहै टहल हम जानति तुम बहु नाइक पीये । आयेही सुरति किए ठाठकरख लिये सकसकी धकधकी हिये । छूटे वंदन अरु पागकी बांधनि छुटी लटपटे पेच अट पटे दिये। सूरदास प्रभुही बहुनायक मेरे पाँव धारे बैठो जू बैठो भली किये॥ ९ ॥ महल महल अब डोलतहौ । इहै कामते धाम विसारयो बूझे काहि न बोलतहौ ॥ बहुनायककी आज मैं जानी कहा चतुरई तोलतहौ । निशि रस कियो भोर पुनि अटके शिथिल अंग पुनि डोलतही ॥ तटके चिह्न पाछिले न्यारे धकधकात उर जोलतही। जाहु चले गुन प्रगट सूर प्रभु कहा चतुरई छोलत हो ॥१०॥अंग अंग रंग भरे आएहौ। रंगभरी पाग भाल रंग सोभा रंग रंग नैन पगाएहौ ॥ रंग कपोल रँग पलकनि सोभा अधरन श्याम रंगाएहौ । नख छत रंग चारु उर रेखा रति रंग रैनि जगाएहौ ॥ कंकन वलय पीठि गडि लागे उरपर छाप बनाएहो । सूरश्याम वा मारग पागे अनु रागे मन भाएहो॥११॥ विलावल ॥ वारवार में कहतिहाँ पिय तहां सिधारो । आएही मन हर । नको हरि नाम तुम्हारोभली वनी छवि आजुकी क्यों लेत जम्हाई। रैनि आज सोए नहीं रतिकाम जगाई।वह रति तुम रतिनाथही हम कैसे भाव।सूरझ्यामते बहु गुणी जे तुमहिं रिझावै ॥ १२ ॥ सोरठ ।। सकुचत श्याम कहउ मृदुवानी । किनि देख्यो किनि कही बात यह मो हुजूर कहै आनी।याते वचन वोलि नहिं आवत रिस पावतही भारी । जोरि कहति वा तुम आगे खोटी ब्रजकी नारी।तुमहूंते ऐसीको प्यारी सौंह करो जोमानों।सुनहु सूरजो बूझति मोको मैं काहुन पहि चान॥१३॥ विलावल ॥ को पति आइ तुम्हारी सोहनि । वा तियको अनुराग देखियत प्रगट रावरी भौहनि । तुलसीको कहा नीम प्रगट कियो मोहीते कार वोहनि । प्रात आइ मनु पोपन लागे आए घालन खोहनि ॥ मुंहहींकी हमसों मिलवत जिय वसत जहाँ मनमोहनि । सूर सुवंस घर छाँडि हमारो क्यों रति मानत खोहनि ॥ १४॥ भैरव ॥ विन बोले पिय रहिएजू । नाहीं कही कहै कहा ताको अव ऐसे जिनि दहिएजू ॥मौन रहौतौ कछू गवावहु इनवातन कछु लहि एजू । सौंह कहाँ करिही सुनि पावहिं सन्मुख है धौ कहिएजू ॥ एतेपर कहा वादन लागे कैसे रिस मन सहिएन । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि रसिकहि सब गुण चहिएजू॥ १६॥ विलावल ॥ आइंगई बजनारी तहाँ। सौंह करत पिय प्यारी आगे आनंद विरह महा ॥ प्यारी हँसि देखी सखियनको अंतर रिसह.भारी । नैन सैन दै अंग देखावति पिय सोभा अधिकारी | श्याम रहे मुख मंदि संकुचिके युवति परस्पर हेरें । सूरदास प्रभु अँग अनूपछवि कह पायो केहिकरें ॥१६॥ तब नागरी कहति सखियन सों एतेपरक्यों सौंह करें । दरशन प्रात देत है हमको निशि औरन' के चित्त हरें । तुमही देखि लेहु अँगवानक एतेपर क्यों सही परे । कृपाकरें अब तहीं सिधारें मो ।