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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४७७

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सूरसागर।


काढति रेखमही। सूरश्याम बहुरो मिलि विलसहु जाति अवधि अबही॥५४॥ सारंग ॥ चली बन मान मनायो मानि। अंचल ओट पुहुप दिखरायो धरयो शीशपर पानि॥ शचितन चितै नैन दोउ मूंदे मुखमहँ अँगुरी आनि। यहतौ चरित सुप्तकी बातैं मुसकाने जियजानि॥ रेखा तीनि भूमि पर खाँची तृणतोरयो करतानि। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि विलसहु श्यामसुजानि॥ ॥५५॥ गुंड ॥ सैनदै कह्यो वनधाम चलिए श्याम इहै करिकान अबआनि मिलिहौं। भावही कह्यो मन भाव दृढराखियो देसुख तुमहि सँग रंग रलिहैं॥ जान्हि पियअतिहि आतुर नारि आतुरी गई वन तीर तनु शुद्धिहेती। सूर प्रभु हरष भए कुंजवन तहाँ गए सजत रतिसेज जे निगम नेती॥५६॥ गुंडमलार ॥ श्यामवन धाम मगवाम जोवै। कबहुँ रचि सेज अनुमान जिय जिय करत लता संकेत तर कबहुँ सोवै॥ एक छिन इक घरी घरी इक याम सम याम बासर हुते होत भारी। मनहि मन साध पुरवत अंग भावकरि धन्य भुज धनि हृदयमिले प्यारी॥ कबहिं आवै सांझ सोच अति जिय माँझ नैन खग इंढुह्वै रहे दोऊ। सूरप्रभु भामिनी बदन पूरन चंद्र रस परस मनहिं अकुलात वोऊ॥५७॥ नट नारायणी ॥ दूती संग हरिके रही। श्यामअति आधीन ह्वैकै जाहु जाहु तासों कही॥ बेगि आनि मिलाइ मोको परम प्यारी नारि। देखि हार तनुकाम व्याकुल चली मनहि विचारि॥ गई तहँ जहँ करति राधा अंग अंग श्रृंगार। सूरके प्रभु नवल गिरिधर संग जानि बिहाए॥५८॥ विहागरो ॥ राधा सखी देखि हरषानी। आतुर श्याम पढाई याको अंतर्गतिकी जानी॥ वह सोभा निरखत अँग अँगकी रही निहारि निहारि। चकित देखि नागरि मुखवाको तुरत श्रृंगार निसारि॥ ताहि कह्यो सुख दै चलि हरिको मैं आवति हौं पाछे। वैसेहि फिरी सूरके प्रभुषै जहां कुंज गृह काछे॥॥५९॥ केदारो ॥ दूती देखि आतुर श्याम। कुंजगृह ते निकति धाए काम कीन्हो ताम॥ बोलि उठी रसाल वाणी धन्य तुव बड़भाग। अबहि आवति बनी वाला किए मन अनुराग॥ कहा वरणौं अंग सोभा नैनन देखों आज। सूर प्रभु नैक धरौ धीरज करौ पूरण काज॥६०॥ ईमन ॥ बड़े भाग्यके मोटे हौ। ऐसी त्रिया औरको पावै बने परस्पर जोटे हौ॥ वैसिय नारि सुंदरी छोटी तैसेइ तुम बलि छोटे हौ। पूरवपुण्य सुकृत फल की वह आपु गुननकार घोटे हौ॥ परम सुशील सुलक्षण नारी तुमहि त्रिभंगी खोटे हौ। सूरश्याम उनके मन तुमही तुम बहुनायक कोटेहौ॥ ॥६१॥ काफी ॥ सुनिहो मोहन तेरी प्राण प्रियाको वरणौ नंदकुमार। जो तुम आदि अंत मेरो गुण मानहु यह उपकार॥ चंद्रसुखी भौंहैं कलंक बिच चंदन तिलक लिलार। मनु बेनी भुवंगिनि के परसत श्रवत सुधाकी धार॥ नैन मीन सरवर आनन में चंचल करत बिहार। मानो कर्ण फूल चाराको रवकत बारंबार। बेसरि बनी सुभग नाशा पर मुक्ता परमसुढार। मनों तिल फूल अधर बिंबाधर दुहुँ बिच बूंद तुषार॥ सुठि सुठान ठोढी अति सुंदर सुंदर ताको सार। चितवत चुअत सुधारस मानो रहि गई बूंद मैंझार॥ कंठाशिरी उर पदिक बिराजत गजमोतिन को हार दहिनावर्त्त देत मनो ध्रुवको मिलि नक्षत्रकी मार। कुच युग कुंभ शुंडिरोमावलि नाभि सुहृदय अकार। जनु जल सोखि लयो से सबिता जोबन गज मतवार॥ रत्न जटित गजरा बाजूबंद सोभा भुजन अपार। फूंदा सुभग फूल फूले मनो मदन विटपकी डार। छनि लंक कटि किंकिणि ध्वनि बाजत अति झनकार॥ मौर बाँधि बैठो जनु दूलह मन्मथ आसन तार। युगल जंघ जेहरि जरावकी राजत परम उदार। राजहंस गति चलति किसोरी अतिनि