पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८२

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दशमस्कन्ध-१० (३८९) आज वने नव रंग छबीले । डगमगात पग अंग अंग ढीले । जावकपाग रंगी धौं कैसे । जैसे करी कहो पिय तसे ॥ बोलत वचन बहुत अलसाने । पीक कपोलनसों लपटाने ॥ कुमकुम हृदय भुज न छवि वंदन । सूरश्याम नारिन मन फंदन ॥ ९५ ॥ गौरी ॥ आज बने बजते वन आवत । यद्यपि हैं अपराध भरे हरि देखतऊ मोहिं भावत ॥ नख रेखा मुक्तावलिके तट अंग अनूप लसी । मनो सुरसरी ईश शीशते लै विधुकला पसी । केलि करत काहू युवती कर कुमकुम भरि उर दीन्हों। मनो भारती पंचधार नभ ते आगम कीन्हों। वीच बीच कमनीय अंगपर श्यामल रेख रही। सूरसुता मनो कनक भूमिपर धार प्रवाह वही । निरखत अंग सुरके प्रभुको प्रगट भई त्रिवेनी। मन वच करम दुरित नाशनको मानहु स्वर्ग निसेनी ॥ ९६॥ रामकली ॥ सखी सोभा अनूपम अति राजे । नैन कोनकी अंजन रेखा पटतर कहूं नछाजै ।। खंजरीट मनो ग्रसित पन्नगी यह उपमा कछु आवे । दुग्ध सिंधुकी गरल सुधा ज्यों कोटिक भ्रम उपजावै ॥ की सुर सरिता सुरजतनय तट की पय पिवति भुआंगिनि । की अति मान मानि सागरते उलटी यमुन तरंगिनि ।। समरारीको सुयश कुयशकी प्रगट एकही काल । किधों रुचिर राजीवकोशते निकसि चली अलिमाल ॥ सूरदास दासिनि हित करकी हरि हलधरकी जोरी । राधावर निशि रसिक शिरोमणि कवि कुल परी ठगोरी।।९७अडानोपलाल आए हो उनीदे आपुन पौढिये पलका मेरे पलो टिहौं पाइ । मेरी सकुच जियमें कत आनत होतो आज्ञाकारिणि हौं तुम जिनि जानौ मोसों औरनिकेसे सुभाइ ॥ यह अचरज आवत इनि वातन मान करत नहिं मानत मोसों आए मान मनाइ । सूरझ्यामता वामहि वश करि लीन्ही कंठ लगाइ ॥ ९८ ॥ आजु अति रैनि उनीदे लाल। तुम पौटी मैं चरण पलोटौं जिय जनि जानो ख्यालासुमन सुगंध सेज है डासी देखति अंग विहाल। मेरे कहे नाहुँ कछु भोजन करो न मदन गोपाल || निशि श्रम भयो पीर मोहिं आवत सुनत परस्पर वाल । सूरश्याम सुनि वचन कपट त्रिय भरि लीन्ही अंक माल ॥ ९९ ॥ बिलावल ॥ श्यामहि सुख दे राधिका निजधाम सिधारी । चितते कहुँ उतरत नहीं श्रीकुंजविहारी ॥ नि विपिन रतिरस रह्यो सो मनहि विचारे। पिय सँगके अँग चिह्नजे दर्पणहि निहारै ॥ यहि अंतर चंद्रावली राधा गृह आई । अंग सिथिल छवि देखिकै जहँ तहँ भरमाई ॥ कहो चहति कहतन वने मन मन अनुमान । सुरश्याम सँग निाश वसी निहचै यह जान।।२१००॥ आसावरी ॥ चंद्रावलि सखियन सँग लीन्हें राधाके गृह आईहो । आज अंग सोभा कछु और हार सँग रौन महाईहो ॥ अवतो नहीं दुराव रह्यो कछु कहो सांच हम आगेहो । अधर दशन छत उरोजनि नख छत पीक पलक दोउ पागेहो। हम जानी तुम कहौ प्रगट करि श्याम संग सुख मानेहो । सुनहु सूर हम सखी परस्पर क्यों न रैनि यश गानेहो ॥ १ ॥ विलावल ॥ कहति सखिनसों राधिका तुम कहति कहारी । मेरीसों की हँसतिहो सुनि चकित महारी ॥ पीक कपोलन यों लग्यो मुखपोछन लागी। कहां श्याम कहाँ मैंरही कवाँ निशि जागी ॥ उरज करज निज करजको गरहार सँवारत । सहज कछुक निशिम जगी वचनन शरमारत ॥ कहति औरकी औरई मैं तुमहि दुरैहौं । सूरश्याम सँग जो मिलो तुमसों नहिं कहौं ॥२॥ विलावल ।। आज बनी नवरंग किसोरी । रसिक कुँवर मोहन विन जोरी ॥ विथुरी अलक सिथिल कटि डोरी । कनकलता मनो.पवन झकोरी ॥ अधर दशन छत कछु छवि थोरी । दर्पण लै देख्यो मुख गोरी । सुख लूटत अतिही भई भोरी । सूरसखी डारत तृण तोरी.॥३॥ टीडो ॥ आजु. बनी वृपभानु कुमारी । गिरिधर वर राधा। - %3-