पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८४

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- दशमस्कन्ध-१० (३९) मानो विधु जु विधंत ग्रहन डर आयो तेरे शरन सखीरी ॥ मोतिन माल मुकति मन वांछित हरि हर हरिहि जु आज जपत जप । मनहु दक्ष ऋपि शाप निवारन उभैईश जिय जानि करत तप॥ छांडि सकुच सांचो कहि मोसों हौं जानति मन मरम पराए । सूरदास प्रभु मिलन प्रगट भयो पियको परसु कैसे दूरत दुराए॥१३॥ विलावल||सुरत समैके चिह्न राधिका राजत रंग भरे । जहँ जहँ रति रणकोप कियो प्रीतम कर दशन धरे ॥ आदुमिटी छूटी अलक आलस वश लोचन लखि लुकत खरे। मानहु धनुप धरे करसाज्यो जनु तूणके वाण झरे ॥ सिंधुसुता तनु रोम राजि. मिलि राजत वरन खरे। मानहुँ विधु मनकामना तीरथ तप करि तीरपरे॥ दशन अंक सहि पीक प्रगट मुख सन्मुख हून डरासुरश्याम सोभा सुखसागर सब अंग भरनिभरे ॥१४॥ विलावल ॥ भामिनि सोभा अधिक भईरी । सुपक विय शुक खंडित मंडित अधर सुधा मधु लाल लईरी ॥ राजित रुचिर कपोल महावर रद मुद्रापलि नाह दईरी । मनहुँ पीकदल सांचि स्वेदजल आलवाल रति वेलि वईरी ॥ कंचुकि बंद विगलित सुललित छवि उच्च कुचनि नख रेखन ईरी। मनहु सिंदूर पूर दुति दरशित कंचन कुंभदरार लईरी ॥ आलस भ्रुकुटी अलकैं छूटी मन तूटी पनच सत जूझ जईरी। नैन सुवने कटाक्ष लगे शर सिथिल भई मति मैंन ढईरी॥ ढीली नीवी गोरी अति भोरी पियके सँग रंग राग रईरी । सूरज श्री गोपाल विलासिनि चंद्रवदनि आनंद मईरी ॥ १५ ॥ द्वै करजोरि लेत ज॑भुआई । सोभा कहति वनति नहि मोपै आजु सखी पियसंग हुते आई ॥ सोइ आभा पुनि फेरि फवतहै विधि आपुन रुचि रचित बनाई । मानहुँ कुमुदिन कनक मेर चढि शशि सन्मुख मृदु सहित सिधाई । सोभितीचकुर ललाट वदनपर कुंचित कुटिल अलक विथुराई । नागवधू मनु अमी कोशते लै मधुपान अमरकै आई । झुकि झुकि परत प्रेम मदमाती उमगि उमगि तन देत दिखाई । सूरदास प्रभु सखी सयानी चुटकिनि देत तवहि लखि पाई ॥१६॥धनाश्री। आलस भरि सोभित भामिनी । राजत, सुभग नैन रतनारे हरिसँग जागत गई यामिनी ॥ वाँह उँचाइ जोरि जमुहानी अँडानी कमनीय कामिनी । भुज छूटे छवि यो लागीमनो टूटिभई द्वैटूक दामिनी ॥ कुच उतंग वर रचित कंचुकी विलसित त्रिव ली उरदछामिनी। देखिअति मनहु मदन नृप तव हरि रसजीते राधा नामिनी ॥ विथुरी अलक सिंथिल कटिडोरी नखछत छरित मराल गामिनी । दुगुन सुरति सजि श्रीगुपाल भजि समुदित सूरज दास स्वामिनी॥१७॥नया खंजन नैन सुरंग रस माते। अतिशय चारु.विमल हग चंचल पट पिंजरा न समाते॥ वसे कहूं सोइ वात कही सखि रहे इहाँ केहि नाते । सोइ संज्ञा देखात, औरासी विकल उदास कलाते ॥ चलि चलि आवतः श्रवण निकटअति सकुचति टंक फदाते । सूरदास अंजन गुण अटके नतरु कवै उडिजाते॥१८॥विलावलाभोरहि सोभा शिरसिंदूरायुगल पाट पन घटा वीच मनो. उदय कियो नवसूर ॥ मन्मथ स्थ आनंद कंद मुख चंद्रकला परिपूर । चक्र ताटक निसंक सुदृग मृग जनु रन तम सम जूर ॥ सुंदर वर नासिका सुदेशपर वेसरि मुक्तारूरा । किधौं तूल तिलफूल निकरकन किधौं असुर गुरचूर । रद सद दामिनि अधर सुधा मधु रपा झपा झकि झुर ॥ वचन रचन माधुरी सधरपर कवन कोकिला कूर । उच्च उरोज मनोज नृपतिके जोवनकोटि कंगूर ॥ हरि सरि कटि तटि लरकि जाइ जिनि विशद नितंव गरूर । कदली जंध मराल मंदगति रूप अनूप समू।सूरदास सोभा स्वामिनि पर वारत सखितृणतूर।।१९॥रामकली।।मोसों कहा दुराव ति प्यारी । नंदलाल सँगरैनियसीरी कोककला गुणभारी ॥ लोचन पलक पीक अधरनको कैसे