पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८५

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(३९२) सूरसागर। . ... - दुरत दुराए । मनो इंदुपर अरुण रहे वसि प्रेम परस्परभाए ॥ अधर दशन छतकी अति सोभा उपमा कही नजाइ । मनो कीर फल विवोंचदै भरव्यो नगयो उड़ाइ ॥ कुच. नखरेख धनुषकी आकृति मनो शिव शिरशशिराजै॥ सुनत सूर प्रियवचन सखी मुख नागरि हँसि मन लाजै॥२०॥ धनाश्री॥ प्यारी सुनत सखी मुखवानी हसि मुसकाइ रही। नैनन रही लजाइ मुदित चित मानी वात सही। तोसों कहा दुराव करौंरी तू प्राणनते प्यारी । कहा कहीं वह मिलान श्याम कीक्रीड़ा कहति उघारीरिति सुख अंत रची इकलीला कहै कि धरौं दुराइ । सूरदास प्रभुके गुण आली चित्तहि रह्यो समाइ॥२१॥सोरगाराधा अव जिनि कछू दुरावै ।हाहाकरि चरणन शिर नावति अपनी सौंह दिवावै ।। उहै कथा मोसों कहि प्यारी चरित कहारी कीन्हों। जा रस में तू मगनभई है कौन अंग सुख दीन्हों ।। उछलत भए सुधाउर घटते मुखमारग न सँभारै । सूरश्याम रस छकी राधिका कहत न बनै विचारै॥२२॥गुंडमलार॥श्याम रति अंतर रस इहै कीन्हो। कहत पुनि पुनि कहा अंग अंबरजहू मैं रही सकुच गहि आप लीन्हों। कियो तब मैं कहा लरी सारंग सों सारंग धर धरति तब चरण चापी। शेष सहसों फननि मणिनकी ज्योति अति त्रासते कंठ लपटाइ कांपी॥ रही उनकी टेक चलै मेरी कहा धरणि गिरिराज भुज सवल धारी। सूरप्रभुके सखी सुनहु गुंण रैनि के वै पुरुष मैं कहा करौं नारी॥२३॥ नयाआजही अधिक हँसी मेरी माई।काम विवस मो । सों रति बाढी अवलोकत मुरझाई ॥ रवि शशि कांति उग्र भवन में गढीही इक ठाइ । विस्मय । बढी प्रतिबिंब प्रतिह प्रति अंकदई यदुराइ ॥ करअंचर मुख मुदित रहीहौं दीन देखि हँसि आई। सूरदास प्रभु निश्चय जानी तबहिं उलटि उरलाई॥२४॥आसावरीधन्य धन्य वृषभानुकुमारी गिरिवर । धर वश कीन्हेरी । जोइ जोइ साधकरी पियरसकी सो सव उन को दीन्हेरी ॥ तोसी त्रिया और को त्रिभुवन में पुरुष श्यामसे नाहीरी । कोककला पूरण तुम दोऊ अब न कहूं हरिजाही री॥ ऐसे वश तुम भई परस्पर मोसों प्रभू दुरावैरी । सूरसखी आनंद न सम्हारति नागरि कंठ लगावैरी।। ॥२६बिलावलाश्याम गए उठि भोरही वृंदाके धाम । कामाके गृह निशि वसे पुरयोमनकाम।।सांझ गए कहि आइ हैं बहुनायक नाम । सेज सँवारति आशलै ऐसेहि गई याम ॥ अरुण उदय द्वारे खरे देखत भई ताम । रिसनि रही झहराइकै मनही मन वाम ॥ चिह्न और अंगनारिके विन गुन उरदाम । सूरदास प्रभुगुण भरे आलस तनु झाम॥२६॥अथ बुंदागृहगमन ॥ विलावल "लालन आए रैनि. गँवाई। निशि भई छीन बोलि तमचुर खग ग्वालन ढीली गाई । अरुन किरन सुख पंकज विग. सित मधुप लियोरसजाइ । चंद्रमलीन भयो दिनमणि ते कुमुद गए. कुँभिलाइ ॥ आज कि रैनि गई मुहि जागत तुम विनु कछु न सोहाइ । सूरश्याम या दरश परश विनु निशि गई नींद हेराइ॥ ॥२७॥ विलावल। नीके आए गिरिवर धारी नागर ।तुम्हरी चिंताते अरुन नैन भए सकल निशाके जागर ॥ रतिके समाचार लिखि पठए सुभग कलेवर कागर। जियकी कृपा हम तवहीं जानी भोर भुलाए आगर ॥ बलि बलि गई मुखादिकी सुरति सिंधु रससागर । जाके रसवंश भए हौ सूर प्रभु ऐसी व कौन उजागर ॥ २८॥ विभास ॥ तुम्हारे पूजिये पिय पाँइ । बहुत वात. उपजति है तुमको कहत बनाई बनाइ ॥ अरुण अधर श्याम भए कैसे आए. पट लपटाई ।। चारु कपोल पीक कहाँ लागी ऊरज पत्र लिखाई ॥ नंदकुमार जहाँ निशि जागे तहँ सुख देखौ जाई।" सूरदास सब भांति अटपटी अब मन क्यों पति आई॥२९॥विलावल।। मोहन काहेको लजात । मुंदि कर मुख रहे सन्मुख कहि न आवत वात ॥ अहिलता रंग मिल्यो अधरनः लग्यो दीपक जात ।। - - - -. -- -- %