दुरत दुराए। मनो इंदुपर अरुण रहे वसि प्रेम परस्पर भाए॥ अधर दशन छतकी अति सोभा उपमा कही नजाइ। मनो कीर फल विंवोंचदै भरव्यो नगयो उड़ाइ॥ कुच नखरेख धनुषकी आकृति मनो शिव शिरशशिराजै॥ सुनत सूर प्रियवचन सखी मुख नागरि हँसि मन लाजै॥२०॥ धनाश्री॥ प्यारी सुनत सखी मुखवानी हँसि मुसकाइ रही। नैनन रही लजाइ मुदितचित मानी बात सही। तोसों कहा दुराव करौंरी तू प्राणनते प्यारी। कहा कहौं वह मिलनि श्याम की क्रीड़ा कहति उघारी॥ रति सुख अंत रची इकलीला कहै कि धरौं दुराइ। सूरदास प्रभुके गुणआली चित्तहि रह्यो समाइ॥२१॥ सोरठ ॥ राधा अब जिनि कछू दुरावै। हाहाकरि चरणन शिर नावति
अपनी सौंह दिवावै॥ उहै कथा मोसों कहि प्यारी चरित कहारी कीन्हों। जा रस में तू मगनभई है कौन अंग सुख दीन्हों॥ उछलत भए सुधाउर घटते मुखमारग न सँभारै। सूरश्याम रस छकी राधिका कहत न बनै विचारै॥२२॥ गुंडमलार ॥ श्याम रति अंतर रस इहै कीन्हो। कहत पुनि पुनि कहा अंग अंबरजहू मैं रही सकुच गहि आप लीन्हों॥ कियो तब मैं कहा लरी सारंग सों सारंग धर धरति तब चरण चापी। शेष सहसों फननि मणिनकी ज्योति अति त्रासते कंठ लपटाइ कांपी॥ रही उनकी टेक चलै मेरी कहा धरणि गिरिराज भुज सबल धारी। सूरप्रभुके सखी सुनहु गुंण रैनि के वै पुरुष मैं कहा करौं नारी॥२३॥ नट ॥ आजहौं अधिक हँसी मेरी माई।काम विवस मोसों रति बाढी अवलोकत मुरझाई॥ रवि शशि कांति उग्र भवन में ठढीही इक ठाइ। विस्मय बढी प्रतिबिंब प्रतिह प्रति अंकदई यदुराइ॥ करअंचर मुख मुदित रहीहौं दीन देखि हँसि आई। सूरदास प्रभु निश्चय जानी तबहिं उलटि उरलाई॥२४॥ आसावरी ॥ धन्य धन्य वृषभानुकुमारी गिरिवरधर वश कीन्हेरी। जोइ जोइ साधकरी पियरसकी सो सब उन को दीन्हेरी॥ तोसी त्रिया और को त्रिभुवन में पुरुष श्यामसे नाहींरी। कोककला पूरण तुम दोऊ अब न कहूं हरिजाहीं री॥ ऐसे वश तुम भई परस्पर मोसों प्रभू दुरावैरी। सूरसखी आनँद न सम्हारति नागरि कंठ लगावैरी॥॥२५॥ बिलावल ॥ श्याम गए उठि भोरही वृंदाके धाम। कामाके गृह निशि बसे पुरयो मनकाम॥ सांझ गए कहि आइ हैं बहुनायक नाम। सेज सँवारति आशलै ऐसेहि गई याम॥ अरुण उदय द्वारे खरे देखत भई ताम। रिसनि रही झहराइकै मनही मन वाम॥ चिह्न और अंगनारिके बिन गुन
उरदाम। सूरदास प्रभुगुण भरे आलस तनु झाम॥२६॥ अथ वृंदागृहगमन ॥ बिलावल ॥ लालन आए रैनि गँवाई। निशि भई छीन बोलि तमचुर खग ग्वालन ढीली गाई। अरुन किरन सुख पंकज विगसित मधुप लियोरसजाइ। चंद्रमलीन भयो दिनमणि ते कुमुद गए कुँभिलाइ॥ आज कि रैनि गई मुहिं जागत तुम बिनु कछु न सोहाइ। सूरश्याम या दरश परश बिनु निशि गई नींद हेराइ॥॥२७॥ बिलावल ॥ नीके आए गिरिवर धारी नागर। तुम्हरी चिंताते अरुन नैन भए सकल निशाके जागर॥ रतिके समाचार लिखि पठए सुभग कलेवर कागर। जियकी कृपा हम तबहीं जानी भोर भुलाए आगर॥ बलि बलि गई मुखार्विंदिकी सुरति सिंधु रससागर। जाके रसवंश भए हौ सूर प्रभु ऐसी व कौन उजागर॥२८॥ विभास ॥ तुम्हारे पूजिये पिय पाँइ। बहुत बात उपजति है तुमको कहत बनाई बनाइ॥ अरुण अधर श्याम भए कैसे आए षट लपटाई॥ चारु कपोल पीक कहाँ लागी ऊरज पत्र लिखाई॥ नंदकुमार जहाँ निशि जागे तहँ सुख देखौ जाई। सूरदास सब भांति अटपटी अब मन क्यों पति आई॥२९॥ बिलावल ॥ मोहन काहेको लजात। मूँदिकर मुख रहे सन्मुख कहि न आवत बात॥ अहिलता रंग मिट्यो अधरन लग्यो दीपक जात।
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सूरसागर।
