पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८६

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दशमस्कन्ध-१० निकसि चल युग पूतरी जनु अलि उरझि अधगात ॥ चारि याम जुनिशि उनीदे आलस वश हि जंभात । सूर ऐसे मदनमूरति निरखि रति मुसुकात ।। सकल निशि जागे के हैं नैन । जानति हो अति किए कोकनद आन खनि सुख चैन ॥ लटपटी पाग चाल गति उलटी रसन अटपटे वैन । लगत पलक उपरत न उघारे मनु खडित रस ऐन ॥ तमचुर टेरतही उठि धाए अब दूनो दुखदैन । जानी प्रीति सूर प्रभु अब हम सुरति भई गति मैन ॥३०॥आजु और छवि नंदकिसोर। -मिलि रिस रुचि लोचन भए रोचन चितवत चित्त पराई ओर ॥ सोभित पीठि प्रगट कर कंकन सोभित हार हिए विनु डोर । सोभित पीतवसन दोउ राते अधरन अंजन नैन तमोर ॥ नखशिख ज्यों श्रृंगार अटपटे पाए मन पराए चोर । फूले फिरत दिखावत औरन निडर भए दै हँसनि अकोर॥ कहत नवनै सुनतहु न आवै वैसँधि वर्णत कविन कठोर ॥ अचरज क्यों न होत इन वा तन सूर ग्रहण देखे जनु भोर॥३१॥विलावल मूही॥अतिहि अरुण हरि नैन तिहारामानहु रति रस भएं रँग मगे करत केलि पिय पलकन पारे ॥ मंद मंद डोलत संकितसे सोभित मध्य मनोहर तारे। मनहु कमल संपुट महँ वीधे उड न सकत चंचल अलियारे झलमलात रति नि जनावत अति रस मत्तःभ्रमत अनिआरे।मानहु सकल जगत जीतनको कामवाण खरसान सँवारे।।अटपटात अलसात पलकपट मूंदत कवहूं करत उपारे । मनहुँ मुदित मर्कत मणि आंगन खेलत खंजरीटचटकारे ॥ वारवार अवलोकि कुरुखियन कपटनेह मन हरत हमारे । सुरश्याम सुखदायक लोचन दुखमोचन लोचनरतनारे॥३२॥बिलावला नहिंन दुरत नैना रतनाराबंधुप कुसुम पर सोभित सुंदर श्याम शिली मुसतारे॥ कुटिल अलक रही विथुरि वदन पर सकुच सहित हरि नरम निहारे। भौंह सिथिलमनुमदन धनुप गुन गरेकोकनद वान विसारे । मूंदेई आवत नैन आलस वशलीन भए उपरत न उपारे । सूरदास प्रभु सोइ पै कहो तुमको भामिनि जहँ रति रण हारे ॥३३॥रति संग्राम वीररस माते । हैं हरि शूर शिरोमणि अजहूँ नहिंन सँभारत ताते ॥ आनहि वरन भए दोउ लोचन अपने सहज विनाते । मानहुँ भीरपरी जोधनकी भए क्रोध अतिराते ॥ परिमल लुब्ध मधुप जहाँ बैठत उडि न सकत तेहिठाते । मनहुँ मदनके है शरपा ए फोंक वाहिरी पाते ॥ वैठिजात अलसात उनीदे क्रम २ उठत तहांते।मनो मूरछा कटाक्ष नाटस ल कठिन सकत हियराते ॥ डगमगात घूमत जनु घायल सोभा सुभट कलाते । सूरदास प्रभु रतिरण जीते अवसकात धौंकाते ॥ ३४ ॥ नैन उनीद भए रंग राते । मनह सुरंग सुमन पर सजनी फिरत भंग मदमाते ॥ प्रेम पराग पाँखुरी पल दल प्रफुलित मदन लताते । सुभग सुवास विलास विलोकनि प्रगट प्रीति करि ताते ॥ तैसोइ मारुत मंद जम्हावरि मिली मुदित छवियाते। सीचे सुरश्याम माननिकर हितसों केलि कलाते॥३५॥रामकली||आए सुरति रंग रसमाते । मानहु छिन विश्राम नमित पिय श्रमित भएहैं तातोडगमगात मग परत परत पग उठत नवेगितहांतामनु गजमत्त चरण संकट कर.गहि आनत तेहिठाते।उर नख छत कंकन छत.पाछे सोभित है रुहिराते।। मदन सुभटके वाण लागि मनो निकसि गए वोहि पाते ॥ सांचे करत आपने बोलनि टरत नम यादाते । सूरश्याम कहि गए आइहैं पगधारे तेहि नाते ॥३६॥ विलावल ।। अरुण नैन राजत प्रभु मोरे । राति सुख सुरति किए सखि सँग मनोजीत समर मन्मथ शर जोरे । आति उनीद अलसात कर्मगति गोलक चपल सिथिल कछु थोरोमनहु कमलके कोश तमी तम उठत रहत छवि रिपुदल | दौरे। सोभित सुभग सजल प्रतिकारे संगम छवितारे तनु डोरे ।मनो भारतीके भँवर मीन शिशु