जात तरल चितवत चितचोरे॥ वरणि नजाइ कहाँलगि वरणौं प्रेमजलधि वेला बल वोरे। सूरदास सों कौन त्रिया जिनि हरिके अंग अंग बलतोरे॥३७॥ काहेको पिय भोरही मेरे गृह आए। इतने गुण हमपै कहाँ जे रौन रमाए। ताहीक पगुधारिए चकृत मैं जाने। बिन गुण गडि माला रही नहिं कहुँ विहराने॥ आएहौ सुखदेनको ऐसेइ हितकारी। सूरश्याम तुम योगको को वैसी नारी॥३८॥ कृपा करी उठि भोरहीं मेरे गृह आए। अब हम भइ बड़भागिनी निशिचिह्न देखाए॥ जावक भालनसों दियो नीके वश पाए। नैन देखि चकृत भई क्यों पान खवाए॥ अधरन पर काजरबन्यो बहु रंग कहाए। वंदन विंदुली भालकी भुज आप बनाए॥ यह मोसों तुमही कहौ उरछत अरुनाए। सूरश्याम यशराशिहौ धनि त्रिया हँसाए॥३९॥ भैरव ॥ जाहु तहीं कहा सोचतहौ। जासँग रैनि बिहात न जानी भोर भए तेहि मोचतहौ। औरनको छिन युग बीततहै तुम निहचीते नागरहौ। झुमत नैन जम्हात बारही रतिसंग्राम उजागरहौ॥ मैं अब कहति तिहारे हितकी ताहीके गृह सोइ रहो॥ सूरश्याम वैसी त्रियकोहै वह रस वाही वननलहौ॥४०॥ हमहीपर पिय रूखहो॥ बोलत नही मूक क्यों ह्वैरहे अँग रँगहीन कछूखेहो॥ तब निरखत औरहि हित कीधौं हमसों कहुँतुमलूखेहो। तब
हँसि बदन मिलत आजुहि कछु और भए निठुर पूषेहो॥ डगमगात पग उतहि परत है चित चंचल उत हूषहो। सूरदास प्रभु साँच भाषिगए त्रिया अंग बल मूपेहो॥१३॥ बिलावल ॥ हरषि श्याम त्रिय बाँह गही।चूकपरी हमको यह बकसो आवनको कहि गए सही॥ रिसनउठी झहराइ झटकि भुज छुवत कहा पिय सरम नहीं। भवनगई आतुर ह्वै नागरि जे आई मुख सबै कही॥ मेरे महल आजु ते आवहु सौंह नंदकी कोटि लही। सूरश्याम जबलौं जग जीवों मिलौं नहीं वरु कामदहीं॥४२॥ नट नारायण ॥ नागरि निठुर मान गह्यो। पीठिदै रिस काँपि बैठी फिरिन उतहि चह्यो॥ श्याम मन अनुमान कीन्हों रिसनि व्याकुल नारि। तनकही रिस खोइ डारौं यह प्रतिज्ञा धारि॥ सखी एक स्वभाव अपने गए ताके गेह। यह चरित सब कह्यो तासों चतुरि लख्यो सनेह॥ गई आतुर नारि ताके लख्यो नैननि कोर। चकित बाला नंद सुतबिन लह्यो हठको छोर॥ भुजागहि कहि कियो कारिस कहि सही ब्रजग्वारि। सर प्रभुसों मान कीन्हों हृदय देखि विचारि॥४३॥ कान्हरो ॥ बाँह गह्यो कहि आँगन ल्याई। बहुनायक उनको नहिं जानति बड़ी चतुर हौ माई॥ मैं जो कहति श्रवण सुनि चितधरि जोबन धन सपनेको। चलु गहि भुजा मिलै किन हरिसों कहा निठुर भई तोको॥ तूँही गहति न बाँह जाइकै मोसों बाँह गहावति। सुनहु सूर मैं सौंह करी है तू मोहिं तिनहिं मिलावति॥४४॥ कहाकहति तू मिलिहि रहीहै। मोसों करति कहा चतुराई उन इह भेद कही है॥ जो हठ करयो भली नहिं कीन्ही एदिन ऐसेनाहीं। की इहँई
पिय को न बुलावै की तहँई चलिजाहीं॥ वे सब गुण लायक तू नागरि जोबन दिन द्वैचारि। सूरश्यामको मिलि सुख लेहि न पुनि पछितैहै नारि॥४५॥ बहुरि पछितैहैरी ब्रजनारि। देखि जाइ ठाढे मग जोवत सुंदर श्याम मुरारि॥ ऐसी निठुर नैक नहिं चितवति चंचल नैन पसारि। कहा गर्व या झूठे तनको देखि हाथलै वारि॥ तजि अभिमान मानरी मानिनि में जु करति मनुहारि। सूर हंस स्वाती सुत धोखे कबहुँक खात जुवारि॥४६॥ केदारो ॥ मोसों मानि भावै न मानिलाल मनाइ है री तेरी आँखि न मैं पैयत है। कत सकुचति मैं तो सब जानति ऐसी प्रीति क्यों दुरैयत है॥ मेरो विलग मानति यह जानति या बातन में कछु पैयत है। सूरश्याम न्यारे न बूझिये यह मोको नहिं भावै काहे को अनखैयत है॥१७॥ बिलावल ॥ बहुरि मिलौ
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सूरसागर।
