पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८७

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(३९४) जात तरल चितवेत चितचोरे । वरणि नजाइ कहाँलगि वरणों प्रेमजलधि वेला बल वोरे।सूरदास सों कौन त्रिया जिनि हरिके अंग अंग बलतोरे ॥३७॥ काहेको पिय भोरही मेरे गृह आए। इतने । गुण हमपै कहाँ जे रौन रमाए। ताहीक पगुधारिए चकृत मैं जाने। चिन गुण गडि माला रही नहि कहुँ विहराने ॥ आएहौ सुखदेनको ऐसेइ हितकारी।सूरश्याम तुम योगको को वैसी नारी ॥३८॥ कृपा करी उठि भोरहीं मेरे गृह आए। अब हम भइ बडभागिनी निशिचिह्न देखाए।।जावक भाल | नसों दियो नीके वश पाए। नैन देखि चकृत भई क्यों पान खवाए ॥ अधरन पर काजरबन्यो बहु रंग कहाए। वंदन विदुली भालकी भुज आप बनाए ॥ यह मोसों तुमही कही उरछत अरु नाए । सुरश्याम यशराशिहौ धनि त्रिया हँसाए ॥ ३९ ॥ भैरव ॥ जाहु तहीं कहा सोचतहो। जासँग रैनि बिहात न जानी भोर भए तेहि मोचतही। औरनको छिन युगवीततहै तुम निहचीते नागरहौ । झुमत नैन जम्हात बारही रतिसंग्राम उजागरहौ ।।मैं अब कहति तिहारे हितकी ताहीके गृह सोइ रहो।सूरश्याम वैसी त्रियकोहै वह रस वाही वननलहौ॥४०॥हमहीपर पिय रूखहो।वोलत. नही मूक क्यों द्वैरहे अँग रंगहीन कछूखेहो।तब निरखत औरहि हित कीधौं हमसों कहुँतुमलूखेहो।तव हँसि बदन मिलत आजुहि कछु और भए निठुर पूषेहो ॥ डगमगात पग उतहि परत है चित चंचल उत हूषहो । सूरदास प्रभु साँच भाषिगए त्रिया अंग बल मूपेहो॥ १३ ॥ विलावल ॥ हरषि श्याम त्रिय बाँह गही ।चूकपरी हमको यह बकसो आवनको कहि गए सही ॥ रिसनउठी झह राइ झटकि भुज छुवत कहा पिय सरम नहीं । भवनगई आतुर वै नागरि जे आई मुख सवै कही। मेरे महल आजु ते आवहु सौंह नंदकी कोटि लही। सूर श्याम जबलौं जग जीवों मिलौं नहीं वरु कामदहीं ॥ ४२ ॥ नट नारायण ॥ नागरि निठुर मान गह्यो । पीठिदै रिस कॉपि वैठी फिरिन उतहि चरो ॥ श्याम मन अनुमान कीन्हों रिसनि व्याकुल नारि । तनकही रिस खोइ डारौं यह प्रतिज्ञा धारिसखी एक स्वभाव अपने गए ताके गेह। यह चरित सब कह्यो तासों चतुरि लख्यो. सनेह॥ गई आतुर नारि ताके लख्यो नैननि कोर । चकित बाला नंद सुतबिन ललो हठको छोर॥ भुजागहि कहि कियो कारिस कहि सही बजग्वारि । सर प्रभुसों मान कीन्हों हृदय देखि विचारि ४३ ॥ कान्हरो ॥ बाँह गयो कहि आँगन ल्याई । वहुनायक उनको नहिं जानति बड़ी चतुर हो माई ।। मैं जो कहति श्रवण सुनि चितधरि जोवन धन सपनेको । चलु गहि भुजा मिलै किन हरि सों कहा निठुर भई तोको॥तूंही गहति न बाँह जाइकै मोसों बाँह गहावति । सुनहु सूर मैं सहि करी है तू मोहिं तिनहिं मिलावति ॥१४॥कहाकहति त मिलिंहि रहीहै । मोसों करति कहा। चतुराई,उन इह भेद कही है ॥ जो हठ करयो भली नहिं कीन्ही एदिन ऐसेनाहीं । की. इहँई. पिय को न बुलावै की तहँई चलिजाहीं ॥ वे सब गुण लायक तू नागरि जोवन दिन द्वैचारि। सूर श्यामको मिलि सुख लेहि न पुनि पछितैहै नारि॥ ४५ ॥ बहुरि पछितैहैरी ब्रजनारि । देखि जाइ ठाढे मग जोवत सुंदर श्याम मुरारि ॥ ऐसी निठुर नैक नहिं चितवति चंचल नैन पसारि। कहा गर्व या झूठे तनको देखि हाथलै वारि ॥ ताजि अभिमान मानरी मानिनि में जु करति मनु हारि । सूर हंस स्वाती सुत धोखे कबहुँक खात जुवारि ॥४६॥ केदारो ॥ मोसों मानि भाव न मानि लाल मनाइ है री तेरी आँखि न मैं पैयत है । कत सकुचति मैं तो सब जानति ऐसी. प्रीति क्यों दुरैयत है । मेरो विलग मानति यह जानति या बातन में कछु पैयत है । सूरश्याम न्यारे न बूझिये यह मोको नहिं भावै काहे को अनखैयत है ॥ १७॥ विलावल ॥ . बहुरि मिला 7

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