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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८८

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दशमस्कन्ध-१०


गी कालिही चित समुझि सयानी। मेरो कह्यो न क्यों करै क्यों भई अयानी॥ अनलहि ओषधि अनलहे सब जानिरहीहौ। धरणी धर व्याकुलखरेरी गर्वगहेली। सूरकह्यो सुनि मानिलै मैं कहति सहेली॥४८॥ सोरठ ॥श्याम धरयो त्रिय मोहन रूप। दूती प्रिया संग इक लीन्हें अंग त्रिभंग अनूप॥ अंतर द्वार आइ भए ठाढे सुनत त्रियाकी बातैं। सरसवचन जु कहति सखि आगे कहौ मिलौं केहि नातैं॥ कपटी कुटिल क्रूर कहि आवत यह सुनि सुनि मुसकाने। सूरदास प्रभुहैं बहुनायक तुही कहति यह वाने॥४९॥ मलार ॥ जोलौं माई हो जीवन भरि जीवों। तब लगि मदन गोपाल लालके पंथ न पानी पीवों॥ करौं न अंजन धरौं न मरकत मृगमद तनु न लगाऊँ। हस्त वलय कटिना पटु मेचक कंठ न पोति बनाऊँ। सुनौं न श्रवणन अलि पिक वाणी नैनन नवधन देखों। नील कमल कर धरौं नकवहूं श्याम सरीसे लेखों॥ इतनी कहत आइगए मोहन लिये प्रिय दूती संग। छूटि गई रिसटेक मानकी निरखि रसिकके अंग॥ अति रति लीन भई भामिनि सँग तब करगहि करलीन्हों। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि मिलि जु सुधासुख दीन्हों॥५०॥ धनाश्री ॥ कवि गावत हरि मोहन नाम। गाढो मान दूरि करि डारयो हरषभई मन वाम॥ ऐसे चरित औरको जाने धन्य धन्य नँदलाल। जो ए गुण तौ हरत त्रियन मन अति हरषित भई बाल॥ मिट्यो काम तनु ताम तुरतही रिझई मदन गोपाल। सूरश्याम रस वश करि लीन्हीं इहै रच्यो इक ख्याल॥॥५१॥ मलार ॥ सखीरी कठिन मानगढ टूट्यो। श्रीगोपाल विहँसनि बलयातसचल्यो अतिहि गोलनको नृत्यो॥ करि प्रतिहार तज्यों सुर गोपुर कंच कोट सन फूट्यो। कामअग्नि उपजी उर अंतर मौन सुभट को तब रण छूट्यो॥ कुच लोचन दोउ लरैं सोहह्वै भौंह कमान कुटिल शर छूट्यो। विद्वाचारि गोपालकी सूरतजि सर्वसु लूट्यो॥५२॥ गुंडमलार ॥ श्याम गुण राशि मानिनि मनाई। रह्यो रस परस्पर मिट्यो तनु विरह झर भरी आनंद त्रिय उर नमाई॥ कबहुँ रति सहज कबहूं करति विपरीत वासरहुते सब रैनि बीती। श्रमित दोउ अंग भए अतिहि विह्वल परे सेन रति पति अधिक बढी प्रीती॥ भोरभए चले निज सदन पितु मातके फिरे सकुचे देखि नंद द्वारे। सूर प्रभु श्याम सकुचि गए प्रमुदा धाम कहत ए गुण भले हरि तुम्हारे॥५३॥ सुखमाके धामते आए प्रमदाके धाम ॥ गुंडमलार ॥ कहाहै श्याम कहाँ गमन कीन्हों। कहां तुम रहत कबहूं दरश देत नहिं धोखे गए आय हम मानि लीन्हों॥ नैन आलस भरे चरण उर लरखरे कहाहौ डरेसे कही मोसों। रैनि कहुँ बसे त्रिय कौनसों रसेहौ उर करज कसे सो कहौ गोंसों॥ भले जू भले नँदलाल वेऊ भली चरण जावक पाग जिनहि रंगी। सूरप्रभु देखि अँग अँग वानक कुशल मैं रही रीझि वह नारि चंगी॥५४॥॥ कल्याण ॥ सुनत हँसि चले हरि सकुचि भारी। यह कह्यो आजु हम आइहैं गेह तुव तरक जिनि कहौ हम समुझि डारी। नारि आनँद भरी राँगसी ह्वै ढरी द्वार अपने खरी अंग पुलकी। गए कहि सूर प्रभु रैनि बसिहैं आज सजति श्रृंगार कछु सकुच कुलकी॥५५॥ अँग श्रृंगार सुंदरी बनावै। मिलौंगी श्याम निज धाम करि आजुही रैनि विलसौं काम मन मनावै॥ सरस सुमना जात शीश करसों करति श्रीमंत अलक पुनि पुनि सँवारै। मांग सूधी पारि निरखि दर्पण रहति ग्रँथि कुँवरिछाँहपाटी निहारै। कमल खंजन मृगज मीन लोचन जीते सारंग सुतलेति तहां आँजै। हार उरधरति नख शिखहू भूषण भरति सूर प्रभु मिलनहित नारि राजै॥५६॥ कान्हरो ॥ विधुवदनी अरु कमल निहारै। सुमनासुत लै कमलन मंजित धनपति धामको नाम सँवारै॥ तरनि तात वनिता सत ता छबि कमलन रचि ग्रंथित थति चारै। कमल कमलपर रेख बनावति सारंग रिपु पाहन गति