पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८८

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दशमस्कन्ध-१० (३९५) गी कालिही चित समुझि सयानी । मेरो कह्यो न क्यों करे क्यों भई अयानी ॥ अनलहि ओपधि अनलहे सब जानिरहीहौ । धरणीधर व्याकुलखरेरी गर्वगहेली । सूरको सुनि मानिलै मैं कहति सहेली॥४८॥ सोरठ॥श्याम धरयो त्रिय मोहन रूप। दूती प्रिया संग इक लीन्हें अंग त्रिभंग अनूप।। अंतर द्वार आइ भए ठाढे सुनत त्रियाकी वारौं । सरसवचन जु कहति सखि आगे कही मिलौं केहि नाते ॥ कपटी कुटिल क्रूर कहि आवत यह सुनि सुनि मुसकाने । सूरदास प्रभुहैं वहुनायक तही कहति यह वाने ॥४९॥ मलार ॥ जोलौं माई हो जीवन भरि जीवों । तब लगि मदन गोपाल ॥ लालके पंथ न पानी पीवों ॥ करौं न अंजन धरौं न मरकत मृगमद तनु न लगाऊँ। हस्त वलय || कटिना पटु मेचक कंठ न पोति बनाऊँ । सुनौं न श्रवणन अलि पिक वाणी नैनन नवधन देखों। नील कमल कर धरौं नकवहूं श्याम सरीसे लेखों ॥ इतनी कहत आइगए मोहन लिये प्रिय दूती संग । छूटि गई रिसटेक मानकी निरखि रसिकके अंग ॥ अति रति लीन भई भामिनि सँग तव करगहि करलीन्हों। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि मिलि जु सुधासुख दीन्हों ॥२०॥धनाश्री॥कवि गावत हरि मोहन नाम । गाढो मान द्वार करि डारयो हरपभई मन वाम ॥ ऐसे चरित औरको जाने धन्य धन्य नंदलाल । जो ए गुण तो हरत त्रियन मन अति हरपित भई वाल ॥ मिन्यो काम तनु ताम तुरतही रिझई मदन गोपाल । सूरश्याम रस वश करि लीन्हीं इहै रच्यो इक ख्याल ॥ ॥५१॥मलागासखीरी कठिन मानगढ टूट्यो। श्रीगोपाल विहँसनि वलयातसचल्यो अतिहि गोलनको नृत्यो ॥कार प्रतिहार तज्यों सुर गोपुर कंच कोट सन फूल्यो । कामअग्नि उपजी उर अंतर मौन सुभट को तब रण छूट्यो । कुच लोचन दोउ ल सोहदै भौंह कमान कुटिल शर छूयो। विद्वाचारि गोपालकी सूरतजि सर्वसु लूट्यो ॥५२॥ गुंडमलार ॥ श्याम गुण राशि मानिनि मनाई। रह्यो रस परस्पर मिट्यो तनु विरह झर भरी आनंद त्रिय उर नमाई । कबहुँ रति सहज कबहूं करति विपरीत वासरहुते सब रैनि बीती। अमित दोउ अंग भए अतिहि विह्वल परे सेन रति पति अधिक वढी प्रीती ॥ भोरभए चले निज सदन पितु मातके फिरे सकुचे देखि नंद द्वारे । सर प्रभु श्याम सकुचि गए प्रमुदा धाम कहत ए गुण भले हरि तुम्हारे ॥५३॥ सुखमाके धामते आए मम दाके धाम ॥ गुंडमलार ॥कहाहै श्याम कहाँ गमन कीन्हों। कहां तुम रहत कवहूं दरश देत नहिं धोखे गए आय हम मानि लीन्हों।निन आलस भरे चरण उर लरखरे कहाहौडरेसे कही मोसों रैनि कहूँ वसे त्रिय कौनसों रसेही उर करज कसे सो कहौ गोंसों ॥ भले जू भले नंदलाल वेऊ भली चरण जावक पाग जिनहि रंगीसूरप्रभु देखि अंग अंग वानक कुशल मैं रही रीझि वह नारि चंगी॥५४॥ ॥ कल्याणासुनत हँसि चले हरि सकुचि भारी।यह कह्यो आज हम आइहैं गेह तुव तरक जिनि कहाँ हम समुझि डारी । नारि आनंद भरी राँगसी द्वै ढरी द्वार अपने खरी अंग पुलकी । गए कहि सर प्रभु रैनि बसिहैं आज सजति शृंगार कछु सकुचकुलकी॥५६॥ अँग भृगार सुंदरी बनावा मिलौंगी श्याम निज धाम करि आजही रैनि विलसौं काम मन मनावै ॥ सरस सुमना जात शीश करसों करति श्रीमंत अलक पुनि पुनि सँवारैः। मांग सूधी पारि निरखि दर्पण रहति गाँथि कुँवरिछाँह पाटी निहारै। कमल खंजन मृगज मीन लोचन जीते सारंग सुतलेति तहां आँजै। हार उरधरति नख शिखहू भूपण भरति सूर प्रभु मिलनहित नारि राजै ॥५६॥ कान्हरो ॥ विधुवदनी अरु कमल निहारै। सुमनासुत लै कमलन मंजित धनपति धामको नाम सँवारैतिरनि तात वनिता सत ता छवि कमलन रचि ग्रंथित थति चारै । कमल कमलपर रेख बनावति सारंग रिपु पाहन गति