पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४९१

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(३९८) सूरसागर .. .. a प्रिय तेरे जासों प्रेम जनावैगी।मेरी सों उनकीसों तोको कहा दुराए पावैगीऔरनसी मोहूको जानति मोते बहुरि रमाबैगी। सूरश्याम तोहिं बहुरि मिलैहौं आखिरतौ प्रगटावैगी७८प्रमुदा अति हर्षितभई. सुनि बात सखीके । रोम रोम पुलकित भई उपनी रुचिहीके ॥ कहति अवहिंयाँते गए नंदसुवन कन्हाई । चरित कहा उनके कहौं मुखं कह्यो नजाई । साँझगए कहि आइहैं मोसोरी आली । अन त विरमि कतहूं रहे बहुनायक ख्याली ॥ रैनि रही मैं जागिकै भोरहि उठिाए । मान कियो रिस पाइकै पलमाँह उँडाए ॥ अगणित गुण प्रभु सूरके कहि तोहिं सुनाऊं। अबहिंचरित करिकै गए तेही गुण गाऊं ॥७९॥ रामकली ॥ आज सखी यमुना मग मोहन मोहिं छदी छंदलाइ । कोतू आहि कौनकी वनिता बात एक सुनि आइ॥विहाँस को मोहिं श्याम पठायो सुनत विरह गति भूली । रति जल जलज हियो हुलस्यो मन पलक पाखुरी फूली ॥ जानि कुमार गह्यो करसों कर ल्याई भवन बोलाइ । नैन मदि अंचल गहि डारयो मैं माधो मिलि आइ ॥ छैल छुयो उर वदन विलो क्यो सकुचि रही मुसकाइ । छाँडहु सूरश्याम तुम्हरी अब आवनि जानि न जाइ ॥८॥धनाश्री।। आवत ही मैं तोहिं लख्योरी । तुमहु भली उन को मैं जानाति अधर विव मनो कीर भख्योरी॥ अँग मरगजी पटोरी देखी उरनख छत छविभारी । धनि वै नंद सुवन धनि नागरि कियो सुरति रण हारी॥ हँसतगई सखी भवन आपने मन आनंद वढाए । सुरश्याम राधिका धामके द्वारे शीश नवाए ॥८॥सारंग। राधिका श्याम तन देखि मुसक्यानी। हार विन गुण वन्यो अधर काजर रेख नैन तमोर तुतरातवानी ॥ पागलटपटी बनी उरह छूटी तनी अंगकी गति देखि मन लजानी । उलटि कंकन पीठि बाह विह्वल ढीठ चतुरई चतुर्भुज अधिक ठानी॥पाणि पल्लव अधर दशन गहिरही बैन बोली वचन निहारि मानी। बलि बलि सूर प्रभु अंगभार प्राणपति नागरी नवल उरघालि सानी ॥ ८२ ॥ विलावल ॥ भली करी पिय ऐसेहूं मेरे गृह आए । लीन्हें कंठ लगाइ कै वडभागिनि पाए ॥ कहा सोच जिय करतही भुजगहि कर लीन्हों। गई भवन भीतर लिये तहँ बैठक दीन्हों ॥ श्याम सकुचि अँग हेरही नागरि पहिचानी। चिह्न निहारत डर कहा आवतही जानी ॥ या छविपर उपमा कहाँ जो त्रिभुवन होई । तुम जानत यह रूपको अरु लखै न कोई ॥ चंदन वंदन पानरंग अधरन काजर छवि । सूरश्याम उर करजको को वरणि सकै कवि ॥ ८३॥ काहेको पिय सकुचतही । अब ऐसो जिनि काम करौ कहुँ जो अतिही जिय अकुचतहौ । अबकी चूक नहीं जिय मेरे और दिननको जानि रहो। सौंह करौ मेरी मो आगे डरडारौ जिन मौन गहौ ॥ यह सुनि श्याम हरषि कुच परसे वारवार शिव सौंह करी। सुरश्याम गिरिधर गुण नागर बात आजुते सहीपरी॥८॥ गुंडमलार ॥ श्याम सौंह कुच परस कियो। नंदसदनते अवहीं आवत और नियनको नेमलियो॥ ऐसी शपथ करौ काहेको। जु कछु आजुते करी सुकरी।अब जु कालित अनत सिधारो तब जानोगे तुमहि हरी ॥ मैं सतिभाव मिली हाँस तुमको कहा आजुकी सौह करौं । सूरझ्याम जो भई सुभई जू अवते सवको नेम धरौं। ॥ ८५ ॥ गुंडमलार ॥ अहौ राजत राजीवनैन मोहन छवि उरग लता रंग लाग । जेहि बनिता रस वश कीन्हें निशि प्रगट होत अनुराग ॥ सिथिल अंग अरु सिथिल पाग वनी सिथिल चरण गति आज । मनहुँ सेज रेवा हृदते उठि आवतहै. गजराज ॥ भालमध्यं जावकरंग देखत लागतिहै मोहि लाज । तुम अपने जिय यों जानतही तिलकलोक जई राज ।। हंस बंधु ख लोचन ललना मिलित निशाकृति काज । वदन चंद वियसंधि जानि नहिं बढ़त किरनि मनलाज ॥ भवन जीव -