प्रिय तेरे जासों प्रेम जनावैगी॥ मेरी सों उनकीसों तोको कहा दुराए पावैगी। औरनसी मोहूको जानति मोते बहुरि रमावैगी। सूरश्याम तोहिं बहुरि मिलैहौं आखिरतौ प्रगटावैगी॥७८॥ प्रमुदा अति हर्षितभई सुनि बात सखीके। रोम रोम पुलकित भई उपनी रुचिहीके॥ कहति अबहिंह्याँते गए नंदसुवन कन्हाई। चरित कहा उनके कहौं मुखं कह्यो नजाई॥ साँझगए कहि आइहैं मोसोरी आली। अनत विरमि कतहूं रहे बहुनायक ख्याली॥ रैनि रही मैं जागिकै भोरहि उठिआए। मान कियो रिस पाइकै पलमाँह छँडाए॥ अगणित गुण प्रभु सूरके कहि तोहिं सुनाऊं। अबहिंचरित करिकै गए तेही गुण गाऊं॥७९॥ रामकली ॥ आजु सखी यमुना मग मोहन मोहिं छदी छँदलाइ। कोतू आहि कौनकी वनिता बात एक सुनि आइ॥ विहँसि कह्यो मोहिं श्याम पठायो सुनत विरह गति भूली। रति जल जलज हियो हुलस्यो मन पलक पाखुरी फूली॥ जानि कुमार गह्यो करसों कर ल्याई भवन बोलाइ। नैन मूँदि अंचल गहि डारयो मैं माधो मिलि आइ॥ छैल छुयो उर बदन बिलो क्यो सकुचि रही मुसकाइ। छाँडहु सूरश्याम तुम्हरी अब आवनि जानि न जाइ॥८०॥ धनाश्री ॥ आवत ही मैं तोहिं लख्योरी। तुमहु भली उन को मैं जानाति अधर बिंब मनो कीर भख्योरी॥ अँग मरगजी पटोरी देखी उरनख छत छबिभारी। धनि वै नंद सुवन धनि नागरि कियो सुरति रण हारी॥ हँसतगई सखी भवन आपने मन आनंद बढाए। सुरश्याम राधिका धामके द्वारे शीश नवाए॥८१॥ सारंग ॥ राधिका श्याम तन देखि मुसक्यानी। हार बिन गुण बन्यो अधर काजर रेख नैन तंमोर तुतरातवानी॥ पागलटपटी बनी उरह छूटी तनी अंगकी गति देखि मन लजानी। उलटि कंकन पीठि बाहु विह्वल ढीठ चतुरई चतुर्भुज अधिक ठानी॥ पाणि पल्लव अधर
दशन गहिरही बैन बोली वचन निहारि मानी। बलि बलि सूर प्रभु अंगभरि प्राणपति नागरी नवल उरघालि सानी॥८२॥ बिलावल ॥ भली करी पिय ऐसेहूं मेरे गृह आए। लीन्हें कंठ लगाइ कै बडभागिनि पाए॥ कहा सोच जिय करतहौ भुजगहि कर लीन्हों। गई भवन भीतर लिये तहँ बैठक दीन्हों॥ श्याम सकुचि अँग हेरहीं नागरि पहिचानी। चिह्न निहारत डर कहा आवतही जानी॥ या छबिपर उपमा कहौं जो त्रिभुवन होई। तुम जानत यह रूपको अरु लखै न कोई॥ चंदन वंदन पानरंग अधरन काजर छबि। सूरश्याम
उर करजको को वरणि सकै कबि॥८३॥ काहेको पिय सकुचतहौ। अब ऐसो जिनि काम करौ कहुँ जो अतिही जिय अकुचतहौ॥ अबकी चूक नहीं जिय मेरे और दिननको जानि रहौ। सौंह करौ मेरी मो आगे डरडारौ जिन मौन गहौ॥ यह सुनि श्याम हरषि कुच परसे बारबार शिव सौंह करी। सुरश्याम गिरिधर गुण नागर बात आजुते सहीपरी॥८४॥ गुंडमलार ॥ श्याम सौंह कुच परस कियो। नंदसदनते अबहीं आवत और त्रियनको नेमलियो॥ ऐसी शपथ करौ काहेको। जु कछु आजुते करी सुकरी। अब जु कालित अनत सिधारो तब जानौगे तुमहि हरी॥ मैं सतिभाव मिली हँसि तुमको कहा आजुकी सौह करौं। सूरश्याम जो भई सुभई जू अबते सबको नेम धरौं॥॥८५॥ गुंडमलार ॥ अहौ राजत राजीवनैन मोहन छबि उरग लता रंग लाग। जेहि बनिता रसवश कीन्हें निशि प्रगट होत अनुराग॥ सिथिल अंग अरु सिथिल पाग बनी सिथिल चरण गति आज। मनहुँ सेज रेवा हृदते उठि आवतहै गजराज॥ भालमध्य जावकरँग देखत लागतिहै मोहिं लाज। तुम अपने जिय यों जानतहौ तिलकलोक जई राज॥ हंस बंधु रव लोचन ललना
मिलित निशाकृति काज। बदन चंद वियसंधि जानि नहिं बढ़त किरनि मनलाज॥ भवन जीव
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सूरसागर।
