पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४९३

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(४००) चितवत दृष्टि वाण भरि मारत घूमत ज्यों मतवारे॥कार अंजन मनोपिय मनं रंजन खंजन नैन सँवारे । चलि मुसक्याय श्याम सुंदर पै नाचत ज्यों नट वारे । थकित भए देखत नँदनंदन तिन सों कहिकै हारे। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन को कोटि मान-पचिहारे॥१३॥सारंगाचपल भामिनिके. भौहैं वंक । अलक तिलक छवि चित्र लिखीसी श्रुति मंडल ताटक ॥ तेरो रूप कहाँलौं वरणौ नागर ताको अंग । उर सुदेश रोमावलि राजत मृगरि कोसोलंक ॥ तेरे नैन सुभट अनियारेनगः वरधरन निसंकासूरजचरित चुनौती पठवत भयो मदन मन रंक९४॥मलार।यह ऋतुरूसिवेकी नाही। वरपत मेघ मेदिनीके हित प्रीतम हरषि मिलाहीं॥ जे तमाल ग्रीषम ऋतु डाही ते तरवर लपटाहीं। जे जल विन सरिताते पूरण मिलि न समुद्रहि जाहीं॥ जोवन धनहै दिवस चारिको ज्यों वदरीकी छाँही ॥ मैंदंपति रस गीत कहीहै समुझि चतुर मनमाहीं । यह चित्तं धरहु सखीरी राधिका दै दूतीको बाहीं । सूरदास हठ चलहु राधिका सँग दूती पिय पाहीं॥९५ ॥ बिलावल ॥ दधिसुत वदनी राधिका दधि दूरि निवारौ। दधिसुत दृष्टि मेलि दधिसुत में दधिसुत पतिसों क्यों न विचारौ ॥ घरहि छांडिकै घरहि पकरिलै घरहु लता घनश्याम सवारौ। हारपहरि कहि हार पकरि करि हार गुवर्धननाथ निहारौ॥ समुझि चली वृषभानुनंदिनी आलिंगन गोपाल पियारौ । विद्यमान कलहंस जात गलि सूरदास अपनो तनुवारौ ॥ ९६ ॥ सोरठ ॥ राधे हरि रिपु क्यों न छपावति । मेरुसुतापति ताके पति सुत ताको क्यों न मनावति ॥ हरि वाहन ता वाहन उपमा-सो त घरे दृढावति । नव अरु सात वीस तोहिं सोभित. काहे गहरु लगावति ॥ सारंग वचन कहो. करि हरिको सारंग वचन निभावति । सूरदास प्रभु दरश विना तुव लोचन नीर बहावति ॥९७॥ नट ॥ राधे हरिरिपु.क्यों न दुरावति । शैल सुतापति तासु सुतापति ताके सुतहि मनावति ॥ हरि वाहन सोभा यह ताकी कैसे धरे सुहावति । द्वै अरु चारि छहो वै बीते काहे को गहरु लगावति ॥ नौ अरु सात राज तहँ सोभित ते तू कहि क्यों दुरावति । सूरदास प्रभु तुमरे मिलनको श्रीरंग भरि आवति ॥ ९८॥ सारंग ॥ राधे हरिरिपु क्यों न दुरावति । सारँग सुत वाहनकी सोभा सारंग सुतन बनावति ॥ शैल सुतापति ताके सुतपति ताके सुतहि मनावति । हरि वाहनके मीत तासुपति तापति तोहिं बुलावति ॥राकापति नाहि कियो उदो सुनि या समये नहिं आवति । विधि विलास आनंद रसिक सुख सूरश्याम तेरे गुण गावति।।९९॥ राधा ते बहु लोभ करयो।लावनरथ तापति आभूषण आनन ओप हस्यो । भ्रुकुटि कोदंड अवनि धरि चपला विवस है कीर अस्यो । पिक मृणाल अलि अरित रूप समते वपु आप-धस्यो॥जलचर गति मृगराज सकुचि जिय सोच नजाइ परयो । सूरदास प्रभुको मिलि भामिनि निशिः सब जात टरयो॥२२००॥ गौरी ॥ राधे यामें कहा तिहारो। मुकहि मकर तनु हाटक वेनी-सो पन्नग अँग कारो॥ गति मराल केहरि कटि कदली युगल.जंघ अनुहारो। नैन कुरंग वचन कोकिलके नाशा शुक कहां गारो ॥. विट्ठम अधर दशन दाडिम कन करो न तुम निरवारो। सूरदास-प्रभु त्रिभुवन पतिको एको न उनहिं उवारो॥१॥ ॥ विहागरो॥ ताहि किन रूठब सिखई प्यारी नवल वैस नव नागरि झ्यामा वै नागर गिरिधारी। सिगरी रैनि मनावत वीती हाहाकार हों हारी। एते पर हठ छांडत नाही तू वृषभानु दुलारी। शरद समय शशि दरशि समर सर लागे उन तन भारी । मेटहु त्रास दिखाय वदन विधु.सूरश्याम हित कारी॥२॥ईमन ॥ आज तेरे तन में नयो जोवन और ठौर सुवनयो पिय मिलि. मेरे मनः काहे रूपि रही वेकाज। अधिक राखें बड़ाई तोहि तोहि करै माई और सब. त्रियन में तू. अधिकाई..