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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४९३

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सूरसागर।


चितवत दृष्टि बाण भरि मारत घूमत ज्यों मतवारे॥ करि अंजन मनोपिय मन रंजन खंजन नैन सँवारे। चलि मुसक्याय श्याम सुंदर पै नाचत ज्यों नट वारे॥ थकित भए देखत नँदनंदन तिनसों कहिकै हारे। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन को कोटि मान पचिहारे॥९३॥ सारंग ॥ चपल भामिनिके भौहैं वंक। अलक तिलक छबि चित्र लिखीसी श्रुति मंडल ताटंक॥ तेरो रूप कहाँलौं वरणौं नागर ताको अंग। उर सुदेश रोमावलि राजत मृगअरि कोसो लंक॥ तेरे नैन सुभट अनियारे नगवर धरन निसंक। सूरजचरित चुनौती पठवत भयो मदन मन रंक॥९४॥ मलार ॥ यह ऋतु रूसिवेकी नाहीं। बरषत मेघ मेदिनीके हित प्रीतम हरषि मिलाहीं॥ जे तमाल ग्रीषम ऋतु डाही ते तरवर लपटाहीं। जे जल बिन सरिताते पूरण मिलि न समुद्रहि जाहीं॥ जोबन धनहै दिवस चारिको ज्यों वदरीकी छाँही॥ मैंदंपति रस रीति कहीहै समुझि चतुर मनमाहीं। यह चित्त धरहु सखीरी राधिका दै दूतीको बाहीं। सूरदास हठ चलहु राधिका सँग दूती पिय पाहीं॥९५॥ बिलावल ॥ दधिसुत वदनी राधिका दधि दूरि निवारौ। दधिसुत दृष्टि मेलि दधिसुत में दधिसुत पतिसों क्यों न विचारौ॥ घरहि छांडिकै घरहि पकरिलै घरहु लता घनश्याम सवारौ। हारपहरि कहि हार पकरि करि हार गुवर्धननाथ निहारौ॥ समुझि चली वृषभानुनंदिनी आलिंगन गोपाल पियारौ। विद्यमान कलहंस जात गलि सूरदास अपनो तनुवारौ॥९६॥ सोरठ ॥ राधे हरि रिपु क्यों न छपावति। मेरुसुतापति ताके पति सुत ताको क्यों न मनावति॥ हरि वाहन ता वाहन उपमा सो तैं वरे दृढावति। नव अरु सात वीस तोहिं सोभित काहे गहरु लगावति॥ सारंँग वचन कहो करि हरिको सारँग वचन निभावति। सूरदास प्रभु दरश बिना तुव लोचन नीर बहावति॥९७॥ नट ॥ राधे हरिरिपु क्यों न दुरावति। शैल सुतापति तासु सुतापति ताके सुतहि मनावति॥ हरि बाहन सोभा यह ताकी कैसे धरे सुहावति। द्वै अरु चारि छहो वै बीते काहे को गहरु लगावति॥ नौ अरु सात राज तहँ सोभित ते तू कहि क्यों दुरावति। सूरदास प्रभु तुमरे मिलनको श्रीरंग भरि आवति॥९८॥ सारंग ॥ राधे हरिरिपु क्यों न दुरावति। सारँग सुत वाहनकी सोभा सारंग सुतन बनावति॥ शैल सुतापति ताके सुतपति ताके सुतहि मनावति। हरि वाहनके मीत तासुपति तापति तोहिं बुलावति॥ राकापति नहिं कियो उदो सुनि या समये नहिं आवति। विधि विलास आनंद रसिक सुख सूरश्याम तेरे गुण गावति॥९९॥ राधा तैं बहु लोभ करयो। लावनरथ तापति आभूषण आनन ओप हस्यो। भ्रुकुटि कोदंड अवनि धरि चपला विवस ह्वै कीर अस्यो। पिक मृणाल अलि अरित रूप समते वषु आप धस्यो॥ जलचर गति मृगराज सकुचि जिय सोच नजाइ परयो। सूरदास प्रभुको मिलि भामिनि निशि सब जात टरयो॥२२००॥ गौरी ॥ राधे यामें कहा तिहारो। मुकहि मकर तनु हाटक वेनी सो पन्नग अँग कारो॥ गति मराल केहरि कटि कदली युगल जंघ अनुहारो। नैन कुरंग वचन कोकिलके नाशा शुक कहां गारो॥ विद्रुम अधर दशन दाडिम कन करो न तुम निरवारो। सूरदास प्रभु त्रिभुवन पतिको एको न उनहिं उवारो॥१॥॥ विहागरो ॥ तोहिं किन रूठब सिखई प्यारी। नवल वैस नव नागरि झ्यामा वै नागर गिरिधारी। सिगरी रैनि मनावत बीती हाहाकार हों हारी। एते पर हठ छांडत नाही तू वृषभानु दुलारी॥ शरद समय शशि दरशि समर सर लागे उन तन भारी। मेटहु त्रास दिखाय वदन विधु सूरश्याम हितकारी॥२॥ ईमन ॥ आजु तेरे तन में नयो जोबन और ठौर सुवनयो पिय मिलि मेरे मन काहे रूपि रही बेकाज। अधिक राखैं बड़ाई तोहि तोहि करै माई और सब त्रियन में तू अधिकाई