पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४९४

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दशमस्कन्ध-१० (१०१) अरु तिनमें भाग सुहाग विराजत आज ॥ रिस दूरि करौ छिआ मानि मेरे कहे तोहि रूपनैन. आवे लाज । सूरप्रभुको औसेर अतिही भई अवेररी वेग चलि सजि श्रृंगार काढि माठी खग वारो आइके साज ॥३॥ रवा ॥ देखरी कमलनेन मधुर मधुर वैननि हँसि हँसि. कवके करत मनु हारि । जव हरि नीचे चितवत भरि भरि आँखियन लाडिली वारति मानकी रिस निवारि ॥ अति आसक्त जानि मनमोहन रीझि मान दानदै प्रीति विचारि । सूरदास प्रभुके चरणन पूजरी आली प्रेम उमॅगि अँसु दारि॥ ४॥ ईमन ॥ अनवोली क्यों न रहेरी आली तू आइ मोसों वात बनावन । बहुत सहीहो पर आएते ऊपर जात न तू लागीहै पाछिली सुरति दिवावन ॥ वै अति चतुर प्रवीन कहा कहाँ जिनि पठई तोको बहरावन । सूरदास प्रभु जियकी होनीकी जानति कांच करोती में जली जैसे ऐसे तू लागी प्रगटावन ॥५॥ कान्हरो ॥ तू आई है वात वनावन । जाहि न ह्यांते वैठि रही है ए आई है मोहिं मनावन ॥ आरि करत कहि मोहिं सुनावत जाइरहै नाहि ताके । को उनकी ह्यां बात चलावे इतनो हितहै काके ॥ इक रिस जरति मनहि मन अपने तोहीको वै भावत । सूरदास दरशन ता गृहको उहै ध्यान मन भावत ॥ ६ ॥ कंदारी ॥ यह कहि क्रोध मगन भई । रही एकटक सांस विना तन विरहा विवस भई ॥ वारंवारहि सखी बुलावति कहा भई दई । नारि नउमी दशा पहुँची है अचेत गई ॥ श्याम व्याकुल धरणि मुरछे त्रिया रोप हुई। सूर प्रभु गए तीर यमुना काम जरनिठई ॥७॥ कान्हरो ॥ रिसमें रसकी बात सुनाई । चतुर सखिन यह बुधि उपजाई ॥ क्रोध मगन त्रिय चतुर जगाई । जागतै दूतिका वोली तोको श्याम वलाई ॥ उमाधि गई तनु सुरति संभारी फिरि बैठी लै मान । कान्ह गए यमुनातट व्याकुल यह गति देखि अजान ॥ काहेको विपरीति वढावति यह कहि गई हरि पास । देखे जाई सुरके स्वामी कुंजद्रुमन तर वास ॥८॥ विहागरो ॥ हरि मुख राधा राधा वानी ।धरणी परे अचेत नहीं सुधि सखी देखि विकलानी ॥ वासरगयो नि इक वीती विनभोजन विनपानी । वाँहपकरि तब सखिन जगायो धनि धान सारंग पानी ॥ ह्यां तुम विवस भए हो ऐसे हां तोवै विवसानी । सूर बने दोउ नारि पुरुप तुम दुहुँकी अकथ कहानी ॥९॥ अडानो ॥ लाल अनमने कत होत हो तुम देखो धों देखो कैसे करि ल्याइहौं । जलनिकटकी वारु जैसे गाढे गहि ऐसी कठिन होती त्रियाकी प्रकृतिहों तो करही कर पविलाइहौं। रिस अरु रुचि हों समुझि देखि हो वाके मनकी ठरनि वाकी भावती बात चलाइहौं ! सूरदास प्रभु तुमहिं मिलेहों नेक न होन्यारे जैसे पानी में रंग मिलाइहो॥१०॥भैरवासखी गई हरिको सुख दै। व्याकुल जानि चतुरई कीन्ही अब आवति प्यारीको लै ॥ आतुरगई मानिनी आगे जाइ कह्यो अजहूं रिस है । मोहन रहे | मुरछि द्रुमके तर त्रिभुवन में हहे यश है। अजहूं कह्यो मानिरी मानिनि उठि चलि मिलि पियको जियले । सूर मान गाढो त्रिय कीन्हो कहें बात कोउ कोटिकले ॥११॥सारंग ॥ तू चलिरी वन बोली श्याम । कमलननके तू अति वल्लभ सुरति करी हरि आतुर काम ।। मुरली में तुव नाम प्रकाशत तेरे हितको सुनरी वाम । कोमल करनि सुमन बहु तोरेत रुचिसों सेज रचत गृह धाम ॥ मन क्रम वचन शपथ चरणन की विसरत नहीं तुम्हारो नामासूरदास प्रभुको मिलि भामिनिज्यों पायो चाहत विश्राम ॥१२॥ रामकली ॥ रसिक राधे बोली नंदकुमार । दरशन को तरसत हरि लोचन तू सोभाकी धार ।। खंजरीट मृग मीन मधुप मिलि रंभारचि अनुसार । गौरि सकुचि शशिविरथ कियो रथ मेरु उलट्यो पडितार ॥ कोनहेतुते मिटयो सितासित विछुरी कौन विचार । मंदकि ।। पा