निकुज कालिंदीके तट सुरभी सखा छांडि सुखधाम। विरह वियोग महायोगी ज्यों जागतही बीतत युग याम॥ कबहुँक किसलय पीठ सुचिर रुचि कबहुँक गान करत गुणग्राम। कबहुँक लोचन मंदि मौनह्वै चित चिंतत अँग अँग अभिराम॥ तर्पण नैन हृदय होमत हवि मन वचक्रम औरै नहिं काम। तरफत नैनहु देत मनोहर ब्रह्मभोज बोलत विश्राम। सूरश्याम कृष गात सबहि विधि दरशन दै पुरवै पियकाम॥३१॥ अडानो ॥ मोहन नीकोरी अति नीको। तासों नरूसन कीजै हितकै मनाइ लीजै हँसत हँसत दूरि करै न रिसजीको॥ अतिहि मानिनी जे जे जेऊ मैं मनाइ दई अतिहि कठिन हठ देख्योरी तो त्रीको। दूसरी यामिनि गई त्यों त्यों तू हठीली भई सूर निरखि मुख देखौ प्यारी पीको॥३२॥ विहागरो ॥ और सखी इक श्याम पठाई। हरिको विरह देखि भई व्याकुल मान मनावन आई॥ बैठी आइ चतुरई काछे वह कछु नहीं लगार। देखतिहौं कछु और दशा तुव बूझति बारंबार॥ मन मन खिझति मानिनी याको कौने इहां पठाई। सूर सबन कछु मान
मनायो सो सुनिकै इह आई॥३३॥ विहागरो ॥ अजहूं मान तजत नहिं प्यारी। मदन नृपतिके सैन साजिकै घेरे आनि विहारी॥ इतने कटक देखि मनमोहन भीत भए भए भारी। कुसुम बाण जित तितते छूटत खगरव घटा सवारी॥ पल्लव षटनिसान भँवरा भर मंजरीस ललसाटी। सूरदास प्रभुके सहायको उठि चलि वेगि हकाटी॥३४॥ सारंग ॥ वेगि चलौ बलि कुँवरि सयानी। समय वसंत विपिन रथहैंगै मदन सुभट नृप फौज पलानी॥ चहुँ दिशि चांदिनि निशा चंचली मनो धवल धरे धूरि उडानी। सोरहकला छपाकरकी छबि सोभित शीश छत्र शिरतानी॥ बोलति हँसति चपल वंदीजन मनहु प्रशंसत पिक वर वानी। धीर समीर रटत वर अलिगण मनहुँ कमोदिक मुरलि सुठानी॥ कुसुम शरासन अधिक विराजत कठिन मानगढ अति अभिमानी। सूरदास प्रभुकीहै यह गति करहु सहाय राधिका रानी॥३५॥ मलार ॥ सुनरी सयानी त्रिय रूसिवेको नेमलियो पावस दिनन कोउ ऐसोहै करतरी। दिशिदिशि घटा उठी मिलिरी पियासों रूठी निडर हियो है तेरो नेक न डरतरी। चलिएरी मेरी प्यारी मोको मान देनहारी प्राणहूते प्यारेपति धीर न धरतरी। सूरदास प्रभु तोहिं दियो चाहै हित चित हँसि क्यों न मिलै तेरो नेम है टरतरी॥३६॥ सेजरचि पचि साज्यो सघन कुंज निकुंज चित चरणन लाग्यो छतियां धरकि रही। हाहाचल प्यारी तेरो प्यारो चौंकि चौंकि परै पातकी खरक पिय हियमें खरकरही॥ बात न धरत कान तानति है भौंहबान तऊ न चलति वाम अंखिया फरक रही। सूरदास मदन दहत पिय प्यारी सुनि ज्यों ज्यों कह्यो त्यों त्यों वरु उतको सरकिरही॥३७॥ तूतो मोसों बात न कहति माई चलोगी कहांते। काहेको गहरु कीजै बिन थर कहा लीजै दीजै जाइ उत्तर मैं आईहौं जहांते॥ अनोखी मानिनी नई यह पाहन पूतरी भई वैनन वदति और जरति नहाते। आई हौं शपथ खाइ जात न परत पाँइ सूरदास प्रभु नवल पहाते॥३८॥ सारंग ॥ उतते वे पठवत इतते ए नहिं मानत हौं तौ दुहुनि बिच चकडोरी कीनी। क्रोध भेष मुख सुदेश नैनन छबि नकहि आवै आतुरह्वै उठिधाइ रावरेलीनी॥ तामरस लोचन हाव भाव बिन करै मानै नमानिनी मान रंगभीनी। सूरजप्रभु राइ शिरोमणि आपुहि चलि देखौ क्योंन नायका नवीनी ॥३९॥ हो पिय रीझि आइ गइही मान छुडावन पिय रीझि आइ। ऐसी छबि राजत है मौपै सोवरणीनहिं जाइ॥ आपुन चलिए बदन देखिए जौलौं रहै निठुराइ। सुरश्याम प्यारी आति राजति रावरीय दुहाइ॥४०॥ कल्याणा ॥ मैं तुम्हें हँसत खेलत छांडिगई अब न्यारे अनबोले रहे दोऊ। इत तुम रूखे ह्वै
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सूरसागर।
