पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४९८

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दशमस्कन्ध-१० (१०८) रहे गिरिधर उत अनमनी अंचल उरमाई मुख जंघ लगाइ रही ओऊ ॥ नीची दृष्टि करी धरणी नखनि करोवति एहो पिया तवहौं एक एक घुपट तन चितै रही आहि कहाहो करो अब सोऊ। सूरदास प्रभु प्यारोआको भरिजाइ लीजै छोडो छोडो कहन देहु और नमानै कोऊ४१॥ईमन।अजहुँ रौने तीन यामहैजू काहेको हरवरात श्यामन मैंतो वाकी प्रकृति,लिए कैहों बात जोपै रिस देखि होती परिक लागि है तिहारी प्यारी लाडिलीवामहैपिज किए जाति ताहि अवलिए आवतिहौं मेरेतौति हारे सुख सुख है याते कौन काम हैज़ । सुनहु सूरज प्रभु अबके मनाइ ल्याउँ बहुरि रुठाय हो जू तो मेरी राम राम है जू॥४२॥ सारंग।।जहां वैठे माधौ तहां तू बुलाई राधे यमुना निकट शीतल छहिआं। आठी नीकी लागति कुसुभिसारी गोरे तन परम चतुर चलि हरि पहिआं ॥ दूती एक गई मोहन पैजाइ कहो यह पिय पहिआं । सूरदास सुनि चतुर राधिका श्याम रैनि वृंदावन महि ॥४३हीझुमक सारी तनगोरोहोजगमग रहो जराइ को दीको छविकी उठत झकोरोहो॥ रत्न जडितके सुभग तरौना मनहु जात रवि भोरेहो।दुलरीकंठ निरखि पिय इकटक हगभए रहे च कोरे हो।सूरदासप्रभु तुम्हरे मिलन को रीझि राझि तृणतोरहो४४ईमन॥ विरसकीजै नभामिनी रस में | रिस की बात। हों पठई तोहिलैन साँवरे तोहि विनु कछु न सोहात ॥हाहाकरति तेरे पार्यंत परतिहाँ छिन छिन निशि घटिजात । सूरश्याम तेरो मगजोवत अति आतुर अकुलात ॥४५॥ विलावल। उठ राधे कत रैनि गँवावै । महिसुत गति तजि जलसुत गति ले सिंधुसुता पति भवन न भावै ॥ अलि वाहनको प्रीतम वाला तावाहन रिपु ताहि सतावै । सो निवारि चलि प्राणपियारी धर्म सुनहि मति भाव न पावै ॥ शैलसुता सुत वाहन सजनी तारिपु तामुख शब्द सुनावै । सूरदास प्रभु पंथ निहारत तोहिं ऐसो हठ क्यों पान आवै॥४६॥विहागरो।उत्तर न देत मोहनी मौन ढ रहीरी सुनि सब बात नैकहु नमटकीरी। अवधौं चलैगी कव रजनी गईरी सव शशि वाहन घरनी वै देखि लट कीरी । सुरसखि जाइ बलि राधिका कुँअरि चलि आज छवि नीकी तेरे आछे लीलपटकीरी॥४७॥ सारंग ॥ जिनि हठ करहु सारंग नैनी । सारंग सजि सारंग पर सारंग ता सारंग पर सारंग वेनी॥ सारंग रसन दशन पुनि सारंग सारंग सुत हग निरखी पैनी ॥ सारंग कहौ सुकौन विचारौ सारंग पति सारंग रचि मैनी ॥ सारंग सदनहिलै जु वरनगई अजहुँ न मानति गति भई रैनी। सूरदास प्रभु तुव मग जोवै तू अंधकरिपु तारिपु सुखदैनी॥४८॥विहागरोसर्वरी सर्व विहानी तोहिं मनावति राधारानी।शुक्र उदय होन लाग्यो जागे तमचुर दरिआई जु मृगानी । प्रफुलित कमल गुंजार करत अलि पहफाटी कुमुदिनि कुभिलानी।सूरश्याम वन मुछि परे, माननिवारोमोपरक्योंझहरानी४९॥ विहागरो॥ श्यामा प्यारी बोलन लागे तमचर पटि गई रजनी । अरी वै मनमोहन वजनायक ठाढे सजनी ॥ गढे हैं हरि कुंज द्वारे ललित वेणु बजाइ हो ।श्रवण सुनत कैसे रहत कैसे तोहिं गेह सुहातहो । तुम कुँअरि वृपभानुको कछु नेह प्रीति नजानहू । कहि पठई हरि तोहिं काहेन चित्त में कछू आनहू। नंदनंदन को ऐसे सुंदरी ह्यां आइहो।और नहिं कछु काज वनमें नेक मधुर सुरगाइहो । सूर प्रभुहि विचारि मनमें प्रीति सों उरलाइए । यहै पुनि पुनि मैं कहति राधिका मन वांछित फल पाइए॥५०॥केदागामोहन तेरे अधीन भएरी इति रिस कवते कीजतरी गुण आगरी नागरीतिरे अनउत्तर मुनि मुनि श्याम हँसि हँसि देत नैक चितै इत भाग आगरीतिरोई भाग सुहाग तेरोई अनुराग तेरेही माथे रतिरी तू सुन रूप उजागरी।सूरदास प्रभु तेरो मग जोवत तुही तुही रट लागी जैसे मृगिनी भूली वागरी५॥नयाकौन कुमति आईरी जो करो न मानति । छड़े मान सुन - - - - - - -- -- - -- - -