दूसरी निशि आजु। तब परे मुरछाइ धरणी काम करयो अकाजु॥ सखिन तब भुजगहि उचाए कहा बावरे होत। सूर प्रभु तुम चतुर मोहन मिलो अपने गोत॥६१॥ बिलावल सूही ॥ श्याम चतुरई कहाँ गँवाई। अब जाने घरके बाढेहौ तुम ऐसे कहा रहे मुरझाई॥ बिना जोर अपनी जांघनके
कैसे सुख कियो चाहत। आपुन दहत अचेत भए क्यों उत मानिनि मन काहे दाहत॥ उहँई रहौ कहैंगी तुमको कतहूं जाइ रहे बहुनायक। सुरश्याम मनमोहन कहियत तुमहौ सबही गुणके लायक॥६२॥ रामकली ॥ तब हरि रच्यो दूती रूप। गए जहाँ मानिनी राधा त्रिया स्वांग अनूप॥ जाइ बैठे कहत मुख यह तू इहाँ वन श्याम। मैं सकुचि तहाँ गई नाहीं फिरी कहि पति वाम॥ सहज बातैं कहत मानों अब भई कछु और। तू इहां वै वहाँ बैठे रहत एकहि ठौर॥ कहौ मोसों कहा उपजी वै रटत तुव नाम। सुनतिहै कछु वचन राधा सूर प्रभु वनधाम॥६३॥ राधेतैं अति मान करयो। यह कहि हरि पछितात मनहि मन पूरव पाप परयो॥ पहिली अपनी कथा चलायो जब त्रिय भेष धरयो। तबतेहि रूप अनूप सुमुखि सुनि त्रिभुवन चित्त हरयो। मोहे असुर महामद माते सुर मुख अमृत भरयो। शिव गण सहित समेत महामुनि को व्रतते न टरयो॥तातनकी छबि निरखि सूर शिव छत ज्यों ज्ञानगरयो। जोहि जारयो जग कामसु
माधौं तेरे हठ जात जरयो॥६४॥ विहागरो ॥ इतो श्रम नाहिन तबहूं भयो। धरणीधर विधिवेद उधारयो मधुसों शत्रुदयो॥ द्विजनृप कियो दुसह दुखमेट्यो बलिको राजलयो। त्रियवषु धरयो असुर सुर मोहे को जग जो नद्रयो॥ जानो नहीं कहा यारसमें जेहि शिरसहज नयो। सूर सुबल अब तोहिं मनावत मोहिं सब विसरि गयो॥६६॥ मलार ॥ समुझरी नाहिन नई सगाई। सुन राधिके तोहिं माधौसों प्रीति सदा चलिआई॥ जब जब मान कियो मोहनसों विकल होत अधिकाई। विरहानल सब लोक जरतहै आपु रहत जलसांई॥ सिंधु मथ्यो सागर बल बांध्यों रिपुरणजीति मिलाइ॥ अब सो त्रिभुवननाथ नेहवश वन बांसुरी बजाइ॥ प्रकृति पुरुष श्रीपति सीतापति अनुक्रम कथा सुनाइ। सूर इतीरसरीति श्यामसोतैं ब्रजवासि बिसराइ॥६६॥ राधिका तजि मान मया करु। तेरे चरणशरण त्रिभुवनपति मेटि कल्प तू होहि कल्पतरु॥ जिनके चरण कमल मुनिं वंदत सो तेरो ध्यान धरै धरणाधर। अहो बावरी कहा तैं कीन्हो प्रीतम पठै दियो वैरनि घर॥ तुम नागरि वै श्रीनागर वर तुम सुंदरि वै श्रीसुंदरवर। वै हरि तो दुख हरत सबनको तू वृषभानु सुता हरिको हर॥ जो झुकि कछुक कह्यो चाहतिहौ उनहि जानि सखि मोहीं सों लर। तबही सूर निरखि नैननभरि आयो उघरि लाल ललता छर॥६७॥ बिलावल ॥ श्याम चतुरई जानतिहौं। एगुण तुम अजहूं नहिं छांडो इन छंदनिमें मानतिहौं॥ तुम रसवाद करन अब लागे जे सबतेउ पहिचानतिहौं॥ वैं बातें अब दूरि गई जू ते गुणगुणगुणिगानतिहौं॥ यह कहि बहुरि मान गहि बैठी जियही जिय अनुमानतिहौं सरकरो जोइ जोइ मन भावै इहै बात कहि भानतिहौं ॥६८॥ विहागरो ॥ यह कहि बहुरि मान कियो। रिसनि घर धर होति बाला योग नेम लियो॥ कहति मन मन बहुरि मिलिहौं अब नकरौं
विलास। ध्यान धरि विधिको मनावै लेति उरध उसास॥ त्रियाको जिनि जन्म पाऊं जिनिकरै पतिनारि। जनम तौ पाषाण मांगों सूर गोद पसारि॥६९॥ बिलावल ॥ श्याम चले पछिताइकै अति कीन्हो मान। व्याकुल रिस तन देखिकै सब गयो सयान॥ बैठे शीशनवाइकै बिन धीरज प्रान। दूती तुरत बोलाइकै पठई दैआन॥ विरहाके वश हरिपरे त्रियकियो अनुमान। धीरधरो मैं जातिहौं करिये कछु ज्ञान॥ सावधान करिकै गई दूतिका सुजान। सूर महा वह
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दशमस्कन्ध-१०
