पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५००

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दशमस्कन्ध-१० (१०७) दूसरी निशि आजु । तव परे मुरछाइ धरणी काम करयो अकाउ ।। सखिन तव भुजगहि उचाए कहा वावरे होत । सूर प्रभु तुम चतुर मोहन मिलो अपने गोत ॥६॥ बिलावल मूही। श्याम चतुरई कहाँ गवाई । अब जाने घरके वाढेहो तुम ऐसे कहा रहे मुरझाई ॥ विना जोर अपनी जांघनके कसे सुख कियो चाहत । आपुन दहत अचेत भए क्यों उत मानिनि मन काहे दाहत ।। उहँई रहो कहेंगी तुमको कतहूं जाइ रहे बहुनायक । सुरश्याम मनमोहन कहियत तुमही सवही गुणके लायक ॥ ६२ ॥ रामफली ॥ तव हरि रच्यो दूती रूपागए जहाँ मानिनी राधा त्रिया स्वांग अनूप॥ जाइ बैठे कहत मुख यह तू इहाँ वन श्याम । में सकुचि तहाँ गई नाही फिरी कहि पति वाम ॥ सहज वातें कहत मानों अब भई कछु और । तू इहां वे वहाँ बैठे रहत एकहि ठौर ॥ कहो मोसों कहा उपजी वे रटत तुव नाम । सुनतिह कछु वचन राधा सूर प्रभु वनधाम ॥ ६३॥ राधेते अति मान करयो । यह कहि हरि पछितात मनहि मन पूरव पाप परयो ॥ || पहिली अपनी कथा चलायो जब त्रिय भेप धरयो । तवतेहि रूप अनूप सुमुखि सुनि त्रिभुवन चित्त हरयो । मोहे असुर महामद माते सुर मुख अमृत भरयो। शिव गण सहित समेत महामुनि को व्रतते न टरयो।तातनकी छवि निरखि सूर शिव छतज्यों ज्ञानगरयो। जोहि जारयो जग कामसु माधों तेरे हठ जात जरयो ॥६॥ विहागरो ॥ इतो श्रम नाहिन तवहूं भयो । धरणीधर विधि वेद उधारयो मधुसों शत्रुदयो । द्विजनृप कियो दुसह दुखमेव्यो बलिको राजलयो त्रियवपु परयो असुर सुर मोहे को जग जो नद्यो । जानो नहीं कहा यारसमें जेहि शिरसहज नयो।सूर सुवल अब तोहिं मनावत मोहिं सब विसरि गयो॥६६॥मलार ॥ समुझरी नाहिन नई सगाई (सुन राधिके तोहिं माधोसों प्रीति सदा चलिआई॥ जब जब मान कियो मोहनसों विकल होत अधिकाई । विरहानल सब लोक जरतह आपु रहत जलसांई ।। सिंधु मथ्यो सागर बल यांच्या रिपुरणजीतिमिलाइ।। अब सो त्रिभुवननाथ नेहवश वन बांसुरी बजाइ ॥ प्रकृति पुरुष श्रीपति सीतापति अनुक्रम कथा सुनाइ । मृर इतीरसरीति श्यामसोत ब्रजवासि विसराइ॥६६॥राधिका तजि मान मया करु । तेरे चरणशरण त्रिभुवनपति मेटि कल्प तू होहि कल्पतरु ।। जिनके चरण कमल मुनि वंदत सो तेरो ध्यान घर धरणाघर | अहो वादरी कहात कीन्हो प्रीतम पठे दियो वरनि घर ॥ तुम नागरि वैश्री नागर वर तुम सुंदर व श्रीसंदरवरवि हरि तो दुख हरत सवनको तू वृपभानु सुता हरिको हर ।। जो झुकि कछुक कह्यो चाहतिहो उनहि जानि सखि मोहीं सों लर । तवही सूर निरखि नैननभरि आयो उपरि लाल ललता छर॥६जाविलानलाश्याम चतुरई जानतिहीं।एगुण तुम अजहूं नहिं छांडो इन छंदनिमें मानतिहीं ॥ तुम रसवाद करन अब लागे जे सवतेर पहिचानतिहों ॥ 4 बातें अब दूरि गई जूते गुणगुणगुणिगानतिहों ॥ यह कहि बहुरि मान गहि बेठी जियही जिय अनुमानतिहौं सरकरो जोइ जोइ मन भावे इहे वात कहि भानतिहों ॥ ६८॥ विहागरो ॥ यह कहि बहरि मान कियो। रिसनि घर धर होति वाला योग नेम लियो। कहति मन मन बहुरि मिलिहौं अब नकरौं विलास । ध्यान धरि विधिको मनावे लेति उरध उसास ॥ त्रियाको जिनि जन्म पाऊं जिनिकरै पतिनारि । जनम तो पापाण मांगों सूर गोद पसारि ॥ ६९ ॥ विलावळ ॥ श्याम चले पछिताइकै अति कीन्हो मान । व्याकुल रिस तन देखिके सब गयो सयान ॥ वैठे शीशनवाइकै विन धीरज प्रान । दूती तुरत बोलाइकै पठई देान ॥ विरहाके वश हरिपरे त्रियकियो अनुमान । धीरधरो मैं जातिहीं करिये कछु ज्ञान ॥ सावधान कारकै गई दूतिका सुजान । सूर महा वह Fam - mm- - - - -