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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०२

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दशमस्कन्ध-१०


कत पलकन पल जोरै। तुव मुख दरश आशके प्यासे हरिके नयन चकोरै॥ तेरे बल भामिनी वदत नहिं उपजत काम हिलोरे। सुनियत हते चतुर नागरते तनक मान भये भोरे॥ तब दूती फिरि गई श्यामपै श्याम वहां पगधीरए। जेहि हठतजै प्राणप्यारी सो जतन सवारै करिए॥ वे वैसे तुम ऐसे वैसे कहो काजका सरिए। कीजै कहा चाव अपनी कत इहां मसूसन मरिए॥ अपनी चोप आप उठि आए ह्वैरहे आगे ठाढे। भूलि गयो सब चतुर सयानप हुते जो बहु गुण गाढे॥ डोलत नहिं बोलत न बुलाए मनहुँ चित्र लिखि काढे। परयो नकाम नारि नागरसों हैं घर हीके बाढे॥ निवह्यो सदा औरहीको हठ यह जो प्रकृति तुम्हारी। आपुनही अधीन ह्वै ठाढे देखि गोवर्धन धारी॥ प्राणहि पियहि रूपनो कैसो सुन वृषभानु दुलारी। कहूं न भई सुनी नहिं देखी रहै तरँग जल न्यारी॥ रिस रूसनो मिलन पलकनको अति कुसंभरंग जैसो। रहै न सदा छुटत छिन भीतर प्रात ओस तृण तैसो॥ वे हैं परम मलीन किए मन उठि कहि मोहन वैसे। घर आए आदर न चूकिए बैठी दूध अचैसे॥ वेतौ भँवर भावते वनके और बेलिके तोपी। कीजै मान मदन मोहनसों बात कहैं हँसि नोपी। तुम जानहु की लाल तुम्हारो तुमहि उनहि है ऐसी। याहीते तुम गर्व भरीहौ वेठाढे तुम वेसी॥ जोबन जल वर्पाकि कि नदी ज्यों चारि दिनाको आवै। अंत अवधिही लौं नातो जो कोटिक कलह उठावै॥ वल्लभको वल्लभको मिलिवो तुमहि कौन समुझावै। लै चलि भवन भावतेहिं भुजगहि कोकहि गारि दिवावै॥ झुकि ठेली ह्यांते रिस हाती कौने सिखै पठाई। लै किन जाहि भवन अपने ह्वां लरन कौनसों आई॥ कांपति रिसन पीठि दै बैठी सहचरि और बुलाई। कछु सीरी कछु ताती वाणी कान्हहिदेत दोहाई॥ कबहुँकलै धरि दर्पण मोहन ह्वै रहे आगे ठाढो। इत नागरी उतहि वै नागर इन बातनको चाढो॥ बड़े बढाईको प्रतिपालें बडो बडाई छीजै। ताके बडी बडी शरणागत बैर बडे सों कीजै॥ तू वृषभानु बडे की बेटी तेरे ज्याए जीजै। राखहु वैर हिए गहि मोसों वैरिहि पीठि न दीजै॥ भामिनि और भुअंगिनि कारी इनके विषहि डरैए। राचेहूं विरचे सुखनाहीं भूलि न कबहुँ पत्यैए॥ इनके वश मनपरे मनोहर बहुत जतन करि पैए॥ कामी होइ काम आतुर तेहि कैसे कै समुझैए॥ जेजे प्रेमछके में देखे तिनहि न चातुरताई। तेरे मान सयान सखी तोहिं कैसेकै समुझाई॥ बहुरो भए सहचरी मोहन ताकैं अपनी घातैं। लागे काम सखीके धोखे कहत कुंजकी बातें॥ सुधिकरि देखि रूसनो उनको जब खाई हाहातैं। आप पीर परपीर न जानति भूली जोबन मातैं॥ कबहुँ न भयो सुन्यो नहिं देख्यो तनुते प्राण अबोले। होत कहा है आलसहू मिस छिन घूंघट पट खोले॥ पावति कहा मानमें तूरी कहा गँवावतिहे हँसि बोले। कालिहि प्राणनाथ तुम प्यारी फिरिहो कुंजनि डोले॥ कहा रही अति क्रोध हिए धरि नैक न दयादयानी। प्रगट्यो जानि मदनमोहन तनु बात बात अधिकानी॥ हितकी कहे अनख लागति है समुझहु भले सयानी। मनकी चोप मान कीजतु कह थोरेही गरवानी॥ रही मूँदि पटसों हठि भामिनि नैक न बदन उघारे। हरि हित वचन रसाल कठिन पाहन ज्यों दून उतारै॥ धरे ग्रीव षट सन्मुख ठाढे नेक न कोप निवारै। जा आधीन देव सुर नर मुनि सो हीनता पुकारै॥ खन गावै खन वैन बजावै कमल भृंगकी नाहीं। सन पाँयन तन हाथ पसारै छुवन नपावै छाहीं॥ खन खन लेहि बलाइ वामकी लालच करि ललचाही। कहै आनकी आन सोहंदै खन खन हाहा खाही॥ कबहुँक निकट बैठि कुसमावलि अपने कर पहिरावै।जोइ जोइ बात भावतिहि भावै सोइ सोइ बात चलावै॥ जितहि जितहि रुखकरै लडैती तितही आपुन आवै।

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