पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०२

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दशमस्कन्ध-१० (४०९) कत पलकन पल जोरै । तुव मुख दरश आशके प्यासे हरिके नयन चकोरै ।। तेरे वल भामिनी वदत नहिं उपजत काम हिलोरे । सुनियत हते चतुर नागरते तनक मान भये भोरे । तब दूती फिरि गई श्यामपैश्याम वहां पगधीरए । जेहि हठतजै प्राणप्यारी सो जतन सवार करिए। वे वैसे तुम ऐसे वैसे कहो काजका सरिए । कीजे कहा चाव अपनी कत इहां. मसूसन मरिए । अपनी चोप आप उठि आए ढरहे आगे गढे । भूलि गयो सब चतुर सयानप हुते जो बहु गुण गाढे । डोलत नहिं बोलत न बुलाए मनहुँ चित्र लिखि काढे। परयो नकाम नारि नागरसों हैं घर होके वाढे ॥ निवह्यो सदा ओरहीको हठ यह जो प्रकृति तुम्हारी। आपुनही अधीन ठाढे देखि गोवर्धन धारी॥ प्राणहि पियहि रूपनो कैसो सुन वृषभानु दुलारी । कहूं न भई सुनी नहिं देखी रहै तरंग जल न्यारी ॥ रिस रूसनो मिलन पलकनको अति कुसंभरंग जैसो । रहै न सदा छुटत छिन भीतर प्रात ओस तृण तैसो ॥ वे हैं परम मलीन किए मन उठि कहि मोहन वैसे । घर आए आदर न चूकिए पेठी दूध अचेसे ॥ वेतौ भँवर भावते वनके और वेलिके तोपी । कीजै मान मदन मोहनसों बात करें हँसि नोपी।तुम जानहु की लाल तुम्हारो तुमहि उनहि है ऐसी । याहीते तुम गर्व भरीही वेठाढे तुम वेसी॥जोवन जल वाकि नदीज्यों चारि दिनाको आवै। अंत अवधिही | लों नातो जो कोटिक कलह उठावै ॥ वल्लभको वल्लभको मिलिवो तुमहि कौन समुझावै । ले चलि भवन भावतेहिं भुजगहि कोकहि गारि दिवावै ॥ झुकि ठेली ह्यांते रिस हाती कौने सिखै पठाई । ले किन जाहि भवन अपने ह्वां लरन कौनसों आई ॥कांपति रिसन पीठि दे बैठी सहचरि और बुलाई। कछु सीरी कछु ताती वाणी कान्हहिदेत दोहाई ॥ कबहुँकलै धरि दर्पण मोहन ह रहे आगे ठाढो। इत नागरी उतहि वै नागर इन पातनको चाढो । बड़े बढाईको प्रतिपाले बडो बडाई छीजै । ताके बडी बडी शरणागत वैर वडे सों काजै ॥ तू वृपभानु बडे की बेटी तेरे ज्याए जीजे । राखहु वैर हिए गहि मोसो वेरिहि पीठि न दीजै ॥ भामिनि और भुअंगि नि कारी इनके विपहि डरैए । राचेहूं विरचे सुखनाही भूलि न कबहुँ पत्यैए ॥ इनके वश मन परे मनोहर बहुत जतन करि पए।कामी होइ काम आतुर तेहि कैसे के समुझैए। जेजे प्रेमछके में देखे तिनहि न चातुरताई । तेरे मान सयान सखी तोहिं कैसेकै समुझाई ॥ बहुरो भए सह चरी मोहन ताकें अपनी पाते । लागे काम सखीके धोखे कहत कुंजकी बातें ॥ सुधिकरि देखि रूसनो उनको जव खाई हाहाते । आप पीर परपीर न जानति भूली जोवन मातें ॥ कबहुँ न भयो सुन्यो नाहि देख्यो तनुते प्राण अबोले।होत कहा है आलसहू मिस छिन चूंघट पट खोले॥ पावति कहा मानमें तूरी कहा गँवापतिहे हँसि बोले । कालिहि प्राणनाथ तुम प्यारी फिरिहो कुंजनि डोले। कहा रही अति क्रोध हिए धरि नैक न दयादयानी प्रगट्यो जानि मदनमोहन तनु वात वात अधिका नी ॥ हितकी कहे अनख लागति है समुझह भले सयानी। मनकी चोप मान कीजतु कह थोरेही गरवानी ॥ रही नदि पटसों हाठि भामिनि नैक न बदन उपारे । हरि हित वचन रसाल कठिन पाहन ज्यों दून उतारै ॥ धरे ग्रीव पट सन्मुख ठाढे नेक न कोप निवारै । जा आधीन देव सुर नर मुनि सो हीनता पुकारे । खन गावै खन वैन वजावै कमल भंगकी नाहीं । सन पायन तन हाथ पसार छुवन नपाचे छाहीं ॥ खन खन लेहि वलाइ वामकी लालच करि ललचाही। कहै आनकी आन सोहंद खन खन हाहा खाही ।। कबहुँक निकट वैठि कुसमावाल अपने कर पहिरावै ।जोइजोइ वात भावतिहि भावे सोइ सोइ बात चलावै ॥ जितहि जितहि रुखकरै लडैती तितही आपुन आवै । - - - --- - -