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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०३

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सूरसागर।


नाचत जाके डर त्रिभुवन तेहि नेकहुं मान नचावै। जिन नैनन देखत सुख भूले ते दुख नैन समोवै। जो मुख सकल सुख निको दाता सो मुख नेक न जोवै॥जेहि लिलाट त्रिभुवनकोटीको सोपाँइन तन सोवै। राजहि जाहि सनक अरु शंकर विरचै ताहि विगोवै॥ एते मान भए वश मोहन बोलत कटुक डराई। दीपक प्रेम क्रोध मारुत छिन परसत जिनि बुझिजाई॥ ताते करि हरि छल दूतीको कहत बात सकुचाई। कपटी कान्ह पत्याहिं न राधे तोहिं वृषभानु दोहाई॥ पठई मोहिं दई उरमाला जहां कहूं रति मानी। हौं बहराइ इतहि आईरी आली तोहिं डरानी॥ काहेको रूसनो वद्यो है मोसों कहो कहानी। नवनागर पहिचानि राधिका यह छल अधिक रिसानी॥ जनिए कहां कौन अपराधिान आनि कान है लागी। सुनि सुनि उठी सुंदरी के जिय प्रगट कोपकी आगी॥ यद्यपि रसिक रसाल रसीली प्रेम पियूषन पागी। किती दई शिख मंत्र साँवरे तउ हठ लहरि न जागी॥ कहिए कहा नंदनंदन सों जैसे लाड लड़ाई। कौन न भई मानिनी उनसों जेते मान मनाई॥ नवनागर तबहीं पहिचाने नागरि नागरताई। इन छँद बंदनि छंदै पैए प्रेम न पायो जाई॥ हारे बल अबलासों मोहन तजत नपाणि कपोलै। मानहुँ पाहनकी प्रतिदासी नैक न इत उत डोलै॥ इन द्योसनि रूषनो करति हो करिहौ कबहिं कलोलै। कहा दियो पढि शीश श्यामके खैंचि आपनो सोलै॥ तोहिं हठ परयो प्राणवल्लभ सों छूटत नहीं छुड़ाए। देखहु मुरछि परयो मनमोहन मनहु भुअंगिनि खाए॥ काहेको अपराध लेतिहै करति कामको भायो। नैक निरखि उठि कुँअरि राधिका जो चाहति है ज्यायो॥ बहुरौ लियो जगाइ मनोहर युवतिन जतन बनायो। विरहताप बरदाप हरनको सरस सुगंध चढायो॥ जिते करे उपचार मनहुँ तनु जरत मांझ घृत नायो। कामअग्नि ते बिना कामिनी कहि कौने सच पायो॥ जिनके हित तू त्रिभुवन गाई ठकुरानी करि पूजी। आनँद अंग संग सुख विलसत बननायक ह्वै कूंजी॥ अनुदिन काम विलास विलासिनि वै अलि तू अंबूजी। ऐसे पिय सों मानकरतिहै तोसी मुग्ध न दूजी॥ मेरो कह्यो मानती नाहिन ह्यां अरु कौन कहैगो। राखत मान तिहारो मोहन ऐसी कौन सहैगो॥ जानहुगी तब मानहुगी मन जब तनु मदन दहैगो। करतिहौ मान मदन मोहनसों मानै हाथ रहैगो॥ नख लिखि कह्यो जाहु तहँई उठि नाके हाथ बिकाने। राचे रहत रैनि दिन मोहन हरद चून ज्यों साने॥ मुख मेरो है मान मनावत मन अंतहि रुचि माने। गावत लोग विरद सांचोई हरिहित कौन सिराने॥ तुम मम तिलक तुमहिं मम भूषण तुमहि प्राण धन मेरे। हौं सेवक शरणागत आए जानहु जतन घनेरे॥ तेरी सों वृषभानु नंदिनी एक गांठि सौ फेरे। हित सों बैर नेह अनहित सों इहै न्याव है तेरे॥ पर धन रवन दवन दारुन द्रुम डोलनि कुंजन माहीं। चारन धेन फेन मथि पीवन जीवन रोकत खाहीं॥ डासन कांस कामरी ओढन बैठन गोपसभाही। भूषण मोर पयूषन मुरली तिनके प्रेम कहाही॥ प्रेम पतंग परै पावक में प्रेम कुरंग बँधसे। चातक रटै चकोर न सोवै मीन बिना जल जैसे॥ जहां मान तहां मान मनायो प्रेमन गनिये ऐसे। प्रेम मांझ जो करहि रूषनो तिनहि प्रेम कहि कैसे॥ कांपत रिसन पीठिदै बैठी मणि माला तनहेरयो। निरखि आप आभास सयानी बहुरि नैन मुख फेरयो॥ लिए फिरत उरमाँझ दुराए जानत लोग अँधेरो। एते मान भावती तौ कत मान मनावत मेरो॥ तेरीसों आभास तिहारो यहां और को जोहै॥ लै दर्पण मणिधरयो पांइतर देखिदुहुनिमें कोहै॥ लघु अपराध दासको त्राषै ठाकुरको सब सोहै। निरखि निरखि प्रतिबिंब उहै तनु नैन नैन मिलि मोहै॥ नैक मोहिं मुसकात