नकी साधा। यमुना पुलिन अतिही पुनीत पिय इहां हिंडोर रचौ सूरज प्रभु हँसति कहति ब्रजतरुनी राधा॥७८॥ राज्ञी मल्लारी ॥ हिंडोरे हरि सँग झुलिएहो अरु पियको देहिं झुलाय। गई बीति ग्रीषम शरद हितु ऋतु सरस वर्षा आय॥ अब इहै साध पुरावहू हो सुनहूँ त्रिभुवन राई। गोपांगना गोपालजूसों कहति गहि गहि पाई॥ गढनहार हिंडोरनाको ताहि नलेहु बोलाई। वन वननि कोकिल कंठ निरखत करत दादुर सोर। घनघटा पीरी श्वेतवगपंगति निरखि ये नभ ओर॥ तैसिए दमकति दामिनी तैसोइ अंमर घोर। तैसोई रटत पपीहरा बिच तैसोई बोलत मोर॥ तैसिएँ हरी हरी भूमि हुलसति होति नहिं रुचि थोर। तैसीए रंग सुरंग बिधिवधू लेति है चितचोर॥ तैसिए नन्हीं बूंदनि बरषतु झमकि झमकि झकोरि। तैसिए भरि सरिता सरोवर उमँगि चली मति फोरि॥ सुनि विनय श्रीपति बिहँसि बोले विश्वकर्मा श्रुति धारि। खचि खंभ कंचनके रचि पचि राजति मरुवा मयारि। पटुली लगे नग नाग बहु रंग बनी डाँडी चारि। भँवरा भवै भजि केलि भूले नागरनाऽगरि नारि॥ पहरि चुनि चुनि चीर चुहि चुहि चूनरी बहु रंग। कटि नील लहँगा लाल चोली उबटि केसरि अंग॥ नवसात सजि नई नागरी चली झुंड झुंडनि संग॥ मुख श्याम पूरण चंदको मनो उमँगि उदधि तरंग। तहँ त्रिविध मंद सुगंध शीतल पवन गवन सुभाइ। उर उडत अंचल उघरि मुख मिलि नैन नैन लगाइ॥ तैसो यमुना पुलिन परम पुनीत सब सुखदाइ। तैसिए गोपी कंठ लगावति मोहनऽमोहन राइ॥ गिरिराज धारन गोपिकन सों करत कौतुक केलि। झुलत झुलावत कंठ लावत बढी आनँद बेलि॥ कबहुँ रहसत मचत लै सँग एक एक सहेलि। झकझोरि झमकत डरत प्यारी प्रीतम अंकम मेलि॥ तेहि समय सकुची मनोजकी छबि जक्यो धन शर डारि। अमर विमानन सुमन बरषत हरषि सुर सँग नारि॥ मोहे सुर गण गंधर्व किन्नररहे लोक बिसारि।सुनि सूरश्याम सुजान सुंदर सबन के हितकारि॥७९॥ सारंग ॥ सुरंग हिंडोरना माई झुलत श्यामा श्याम। दोयखंभ विश्वकर्मा बनाए काम कुंद चढाइ। हरित चूनी जटित नग सब लाल हीरा लाइ॥ बहुत विद्रुम बहुत मुक्ता ललित लटके कोर। बहुरंग रेसम वरुह वरुहा होत राग झकोर॥ श्याम श्यामा संग झूलत सखी दति झुलाय। सबै सरस श्रृंगारकीने रूप वरणिन जाइ। लालसारी नील लहँगा श्वेत अँगिया अंग। रोमावली नहिं मनो यमुना त्रिवलि तरल तरंग॥ कहूं यूथनि युवति ठाढीं कहूं ठाढे ग्वाल। कहूं तरुणी गीत गावै कहुँ करैं सब ख्याल॥ कहूं दादुर कहूं चातक कहूं बोलैं मोर। चहूं ओर चितै चकोरहि गए देखिरी इहि ओर॥ दशन दाडिऽमदमाकि विकसी हँसी जब मुसुकाइ। दमकि दामिनि निराखि लजित बहुरि गई छिपाइ॥ मीन खंजन कंज मानो उडत नाहिन भोर। बिंबके ढिग कीर बैठे गहत नाहिंन ठौर। देखि सखी उरोज कंचन शंभु धरयो बनाय। नहिं होहिं श्रीफल सुंदरीके
कमलकली सोहाय॥ बीच मुक्ताहार मिलि सुरसरी जनु उतरीधाय। वार चकई पार चकवा दिनहु मिलत न आय॥ लखि लंक कह्यो न जाय सखिरी अंग देखिरि चारु। भंग भ्रमभ्रम वनगयो कटि गयो केहरि हारु॥ चालदेखि मराल लज्जित गए सरतजि गेह। यह अनुमानके अभिमानगज शिर अजहुँ डारत खेह॥ राग राज्ञी सँचि मिलाई गावैं सुघर गुंडमलार। सुहवी सारंग टोडी भैरवों केदार॥ मालवाई राग गौरी अरु आसावरी राग। कान्हरो हिंडोल कौतुक तान बहु विधि लाग॥ देखि सखिरी एक अचरज राहु शशि इक ठोर। उडत अचल लपटि वेनी दपट झपटे मोर॥ कनक जटित जराइ वीरे कवि जो उपमा पाइ। सूर शशि है एक ब्रजमें मनो ऊगे तीनो आय॥८०॥ मलार ॥ यमुना पुलिनहि रच्यो रंग सुरंग हिंडोरनो। रमत राम श्याम संग ब्रजबालक सुख पावत हाँस बोलनो। द्वै खंभ कंचन
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सूरसागर।
