पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०५

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(११२) सूरसागर। . . . . . . . - नकी साधा। यमुना पुलिन अतिही पुनीत- पिय इहां हिंडोर रचौ सूरज प्रभु हँसति कहति ब्रज तरुनी राधा॥७८॥राज्ञी मल्लारीपाहिंडोरे हरि सँग झुलिएहो अरु पियको देहि झुलाय ।गई वीति ग्रीपम शरद हितु ऋतु सरस वर्षा आय।।अब इहै साध पुरावहू हो सुनहूँ त्रिभुवन राई। गोपांगना गोपालजू सों कहति गहि गहि पाई ॥ गढनहार हिंडोरनाको ताहि नलेहु वोलाई । वन वननि कोकिल कंठ निरखत करत दादुर सोर । घनघटा पीरी श्वेतवगपंगति निरखि ये नभ ओर ॥ तैसिए दमकति दामिनी तैसोइ अमर घोर । तैसोई रटत पपीहरा विच तैसोई बोलत मोर ॥ तैसिएँ हरी हरी भूमि हुलसति होति नहिं रुचि थोर । तैसिए रंग सुरंग विधिवधू लेति है चितचोर ॥ तैसिए नन्हीं बूंद नि वरपतु झमकि झमकि झकोरि । तैसिए भरि सरिता सरोवर उमॅगि चली मति फोरि ॥ मुनि विनय श्रीपति विहँसि बोले विश्वकर्मा श्रुति धारि । खचि खंभ कंचनके रचि पचि राजति मरु वा मयारिपिटुली लगे नग नाग बहु रंग बनी डाँडी चारिभिँवरा भवै भजि केलि भूले नागरनाऽगरि नाशिपहरि चुनि चुनि चीर चुहि चुहि चूनरी बहु रंग। कटि नील लहँगा लाल चोली उवटि केसरि अंग ॥ नवसात सजि नई नागरी चली झुंड झुंडनि संग । मुख श्याम पूरण चंदको मनो उमाँगे उदधि तरंग । तहँ त्रिविध मंद सुगंध शीतल पवन गवन सुभाइ। उर उडत. अंचल उपरि मुख मिलि नैन नैन लगाइ॥ तैसो यमुना पुलिन परम पुनीत सब सुखदाइ । तैसिए गोपी कंठ लगावति मोहनऽमोहन राइ॥गिरिराज धारन गोपिकन सों करत कौतुक केलि।झुलत झुलावत कंठ लावत बढी आनंद वलिकबहुँ रहसत मचत लै सँग एक एक सहेलि ।झकझोरि झमकत डरत. प्यारी प्रीतम अंकम मेलितिहि समय सकुची मनोजकी छविजक्योधन शरडा।अमर विमानन सुमन वरपत हरषि सुर सँग नाशिमोहे सुर गण गंधर्व किन्नररहे लोक विसारि।सुनि सूरश्याम सुजान सुंदर सवन के हितकारि॥७९॥ सारंग ॥. सुरंग हिंडोरना माई झुलत श्यामा श्याम । दोयखंभ विश्वकर्मा बनाए काम कुंद चढाइ । हरित चूनी जटित नग सब लाल हीरा लाइ ॥ बहुत विद्रुम बहुत मुक्ता ललितः लटके कोरबहुरंग रेसम वरुह वरुहा होत राग झकोश्याम श्यामा संग झूलत सखी दति झुलाय। सबै सरस शृंगारकीने रूप वरणिन.जाइ । लालसारी नील लहँगा श्वेत अँगिया अंग। रोमावली नहिं मनो यमुना त्रिवाल. तरल तरंगाकहूं यूथनि युवति. ठाढी कहूं ठाढे ग्वाल । कहूं तरुणी गीत गावै कहुँ करें सब ख्याल ॥ कहूं दादुर कहूं चातक कहूं बोले मोर। चहूं ओर चितै चकोरहि गए | देखिरी इहि ओर ॥ दशन दाडिऽमदमाके विकसी हँसी जब मुसुकाइ । दमकि. दामिनि निराखि लजित बहुरि गई छिपाइ॥ मीन खंजन कंज मानो उडत नाहिन भोर । विवके ढिग कीर बैठे गहत नाहिंन ठौर । देखि सखी उरोज कंचनःशंभुःधरयो बनाय । नहिं होहिं श्रीफल सुंदरीके कमलकली सोहाय।। बीच मुक्ताहार मिलि सुरसरी जनु उतरीधायः । वार चकई पार चकवा दिनहु मिलत न आयलखि लंक कह्यो:न जाय सखिरी अंग देखिरि चारु । भंग भ्रमभ्रमः वनगयो कटि गयो केहरिहारु॥चालदेखि मराल लजित गए सरतजि गेहोयह अनुमानके अभिमानगज शिर अजहुँ, डारत खेहोराग राज्ञी सँचि मिलाई गावे सुघर गुंडमलार ।सुहवी सारंग टोडी भैरवों केदारमालवाई राग गौरी अरु आसावरी रागाकान्हरो हिंडोल कौतुक तान बहु विधिलागादेखि सखिरी एक अचरज .. राह शशि इक ठोर।उडत अचल लपटि वेनी दपट झपटे मोरकिनक जटित जराइ वीरे कवि जो.. उपमा पाइ । सूर शाश है एक ब्रजमें मनो. ऊो तीनो आय ॥ ८० ॥ मलार. ॥ यमुना पुलिनहि ... | रच्यो रंग सुरंग हिंडोरनोरमत राम श्याम संग ब्रजबालक सुख पावत हाँस बोलनोटैि खंभ कंचन, .