सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४१४)
सूरसागर।


रूप अगाध॥ कोउ डरपति हाहाकार विनवति प्यारी अंकमलाय। गाढे गहति पियहि अपने कर पुलकित अंग डरायण॥ अब जिनि मचो पांय लागतिहौं मोको देहु उतारि। यह सुनि हँसत मचत अति गिरिधर डरत देखि अतिनारि॥ प्यारी टेरि कहत ललितासौं मेरीसों गहि राषि। सूर हँसति ललिता चंद्रावलि कहा कहति पियभाषि॥८३॥ राज्ञीरामगिरी ॥ हिंडोरना माई झूलतहै गोपाल। संगराधा परमसुंदार चहूंघां ब्रजबाल॥ सुभग यमुना पुलिन मोहन रच्यो रुचिर हिंडोर। लाल डाडी स्फटिक पटुली मणिन मरुवा घोर॥ भँवरा मयारिनि नील मरकंत खचे पांति अपार। सरल कंचन संभ सुंदर रच्यो काम श्रुतिहार॥ भांति भांतिन पहिरि सारी तरुणी नवसत अंग। सुंदरी वृषभानुतनया नैन चपल कुरंग॥ हँसति पिय सँगलेति झुमक लखति श्यामलगात। मनो घनमें दामिनी छबि अंगमें लपटात॥ कबहुँ पुलकित कबहुँ डरपति हँसतिं निरखंति नारि। कबहुँ देति झुलाइ गोपी गावहीं नवनारि॥ सूर प्रभुके संगको सुख वरणि कापैजाइ। अमर वर्षत सुमन अंबर विविध अस्तुति गाइ॥८४॥ राज्ञीमलारी ॥ यमुना पुलिन रच्यो हिंडोर। घोष ललना संग तरुणी तरुण नवल किसोर॥ एक सँगलै मचत मोहन एक देत झुलाय। एक निरखति अंग माधुरि एक एक उठि गाय॥ श्यामसुंदर गोपिकागण रही घेरि बनाय। मनो जलदको दामिनी गण चाहति लेन लुकाय॥ नारि सँग बनवारि गावत कोकिला छबि थोर। डुलत झुलत मुकुट शिरपर मनों नृत्यत मोर॥ सुभग मुख दुहुँ पास कुंडल निरखि युवती भोर। चक्रवाक चकोर लोचन करि रही हरि ओर॥ थकित सुरललना सहित नभ श्याम निरखि विहार। हरषि सुमन अपार बरषत मुखहि जैजोकार॥ कहत मन मन इहै बांछा भए नवन द्रुमडार। देह धरि प्रभु सूर विलसत ब्रह्म पूरण सार॥८५॥ केदारो ॥ हिंडौरने हरि सँग झुलन आई। पचरंग बरन पाटको डडिया अतिही वानक सौंजु बनाई॥ झुलति युवति नंदललना सँग एकै वबैस इकदाई। सूरदास प्रभु मोहन नागर आपुन झूलि झुलाई॥८६॥ ईमन ॥ झूलन आई रंग हिडोरे। पचरंग बरन कुसुभीसारी पहिरे कंचुकी सौंधे वोरे॥ मुक्तामाल ग्रीवतेलर छूटी छविके उठत झकोरे। सूरदास प्रभु मेरो मन हरि लीन्हों चपल नयनकी कोरे॥८७॥ विहागरो ॥ ललना झूलत रंग हिंडोरे। सोभा तनु श्याम गोरे। नील पीतपट घनदामिनिडोरे। सोभा सिंधु मन बोरे॥ गोपी जन चहुंओरे। नैननसोंनैन जोरे॥ झुलवति थोरे। पवन गवन आवे सोंधेकी झकोरे॥ तन मन वारौं छबि पर तृणतोरे। सूरदास प्रभु चितचोरे ठोरेक अंग मोरे॥ सुन मुरलीकी घोरैं सुरवधू शीश ढोरैं॥८८॥ रागमलार ॥ झूलत श्याम सहाय॥ निरखि दंपति अंग सोभा लजित कोटि अनंग॥ मंद त्रिबिध बयारि शीतल अंग अंग सुआनंद उडत सुवासु सँग गण रहे मधुकर बंध॥ तैसिये यमुना सुभग जहां रच्योरंग हिंडोर। तैसिये ब्रजवधू बनि हरि चितै लोचन कोर॥ तैसोई बृंदाविपिन घन बनकुंज द्वारवि हार। विपुल गोपी विपुल वनगृह रवन नंदकुमार॥ नित्य लीला नित्य आनँद नित्य गान मंगल सूर सुर मुनि मुखन स्तुति धन्य गोपी कान्ह॥८९॥ मलार ॥ हिंडोरे हरि सँग झूलहि घोष कुमारि। ब्रजवधू विधि क्यों न कीनी कहति सब सुरनारि॥ मरुवा लगे नगललित लीला सुविधि शिल्प सँवारि। ब्रजकी कीलैं लगीं सुटि सुभग शोभा कारि॥ खंभ जंबूनदि सुविद्रुम रची रुचिर मयारि। मनुसुता रविको दिखावति भुज भुज युगल पसारि॥ मणिलाल माणिक जटित भँवरा सुरंग रंगरसार। शुक शेष नारद शारदा उपमा कहै को पार॥ डाँडी खचि पचि पाँच मर्कत मय पांति सुढार। उवत