पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०७

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सूरसागर। रूप अगाध ॥ कोउ डरपति हाहाकार विनवति प्यारी 'अंकमलाय । गाढे गहति पियहि अपने कर पुलकित अंग डरायण ॥ अब जिनि मचो पांय लागतिहौं मोको देहु उतारि। यह सुनि हँसत मचत अति गिरिधर डरत देखि अतिनारि ॥ प्यारी टेरि कहत ललितासौं मरीसों गहि राषि । सूर हँसति ललिता चंद्रावलि कहा कहति पियभाषि ॥ ८३ ॥ राज्ञीरामगिरी | हिंडो रना माई झूलतहै गोपाल। संगराधा परमसुंदार चहूंघां ब्रजबाल ॥ सुभग यमुना पुलिन मोहन रच्यो रुचिर हिंडोर । लाल डाडी स्फटिक पटुली मणिन मरुवा घोर ।। भंवरा मयारिनि नील मर कंत खचे पांति अपार । सरल कंचन संभ सुंदर रच्यो काम श्रुतिहार ॥ भांति भांतिन पहिरि सारी तरुणी नवसत अंग। सुंदरी वृषभानुतनया नैन चपल कुरंग ॥ हँसति पिय सँगलेति झुमक लखति श्यामलगात । मनो घनमें दामिनी छबि अंगमें लपटात ॥ कबहुँ पुलकित कबहुँ डरपति हँसतिं निरखंति नारि । कबहुँ देति झुलाइ गोपी गावहीं नवनारि ॥ सूर प्रभुके संगको सुख वरणि कापैजाइ । अमर वर्षत सुमन अंबर विविध अस्तुति गाइ ॥ ८४ ॥राज्ञीमलारी ॥ यमुना पुलिन रच्यो हिंडोर । घोष ललना संग तरुणी तरुण नवल किसोर ॥ एक सँगले मचत मोहन एक देत झुलाय । एक निरखति अंग माधुरि एक एक उठि गाय ॥ श्यामसुंदर गोपिकागण रही घेरि बनाय । मनो जलदको दामिनी गण चाहति लेन लुकाय ॥ नारि सँग वनवारि गावत कोकिला छवि थोर । डुलत झुलत मुकुट शिरपर मनों नृत्यत मोर ॥ सुभग मुख दुहुँ पास कुंडल निरखि युवती भोर । चक्रवाक चकोर लोचन कार रही हरि ओर ॥ थकित सुरललना सहित नभ श्याम निरखि विहार । हरषि सुमन अपार वरषत मुखहि जजकार ॥ कहत मन मन इहै बांछा भए नवन दुमडार । देह धार प्रभु सूर विलसत ब्रह्म पूरण सार ॥८५ ॥.केदारो॥ हिंडौरने हरि सँग झुलन आई । पचरंग बरन पाटको डडिया अतिही वानक. सौंजु बनाई ॥ झुलति युवति नंदललना सँग एकै वैस इकदाई । सूरदास प्रभु मोहन नागर आपुन झूलि झुलाई ॥८६॥ ईमन ॥ झूलन आई रंग हिडोरे । पचरंग वरन कुसुभीसारी पहिरे कंचुकी सौंधे वोरे ॥ मुक्तामाल ग्रीवतेलर छूटी छविके उठत- झकोरे। सूरदास प्रभु मेरो मन हरि लीन्हों चपल. नयनकी कोरे॥ ८७॥ विहागरो॥ ललना झूलत रंग हिंडोरे। सोभा तनु श्याम गोरे। नील पीत पट घनदामिनिडोरे । सोभा सिंधु मन बोरे।। गोपी जन चहुंओरे । नैननसनैन जोरे ॥ झुलवंति थोरे थाल पवन गवन आवे सोंधेकी झकोरे॥ तन मन वारौं छवि पर तृणतोरे । सूरदास प्रभु चित चोरेज अंग मोरे ॥ सुन मुरलीकी घोरें सुरवधू शीश ढोर। ८८॥ रागमलार ॥ झूलत श्या मश्या निरखि दंपति अंग सोभा लजित कोटि अनंग ॥ मंद त्रिविध वयारि शीतल अंग अंग सुममा उडत सुवासु सँग गण रहे मधुकर बंध ॥ तैसिये यमुना सुभग जहां रच्यो रंग हिंडोर । तैसिये रेलवधू पनि हरि चितै लोचन कोर ॥ तैसोई बंदाविपिन घन बनकुंज द्वारवि हारराविपुल गोपी विपुल वनगृह रखननंदकुमारनित्य लीला नित्य आनंद नित्य गान मंगल सूर सुर मुनि मुखन स्तुति धन्य गोपी कान्ह॥८९॥मलार ॥हिंडोरे हरि सँग झूलहि घोष कुमारिरीव्रजवधू विधि क्यों न कीनी कहति सब सुरनारि ॥ मरुवा लगे नगललित लीला सुविधि शिल्प सँवारि। वत्रकी कीलें लगी सुटि सुभग शोभा कारि ॥ खंभ जंबूनदि सुविद्रुम रची रुचिर मयारि । मनु । सुता रविको दिखावति भुज भुज युगल पसारिशमणिलाल माणिक जटित भँवरा सुरंग रंगरसार। शुक शेष नारद शारदा उपमा कहै को पाराडाँडी खचि पचि पाँच मर्कत मय.पांति सुढाराउवत A -