रथरविते धसी यमुन धरे विविधार॥ विविधार धारा धसी अधक्यों स्फटिक पटुली संग। वहिनिकसि तिरछी बीच ह्वै मिलि गगनते जनु गंग। ढिग जरित भरि मंजीर इत उत चरण पंकज रंग। प्रतिबिंब झलमल झलक मिलि सरस्वती आनि बिनंग॥ बनमहल के द्वारे रच्यो नव रंग रंग हिंडोरा। मनो कोटि मन्मथ मोद मोहन तरुणी तरुण किसोर॥ बदन तन चित चोरि चितवत झलक लोचन कोर।शरद विधु मधु लुब्ध को मनु उडि उडि मिलत चकोर॥ उडि मिलत तहां चकोर अति छबि ललित चलित सुखैन। मनु अंबुज बासको संग मिलि मधुकर ऐन॥ झमकि झमकि लेति दै द्रुमडी मचै रुचि कैन। गावति सुकंठ राग राज्ञी नागरि गिरिधर॥ कीजित सैन॥ कनक नूपुर कुनित कंकन किंकिनी झनकार। तहाँ कुँवरि वृषभानुकी सँग सोहै नंदकुमार॥ नील पीत दुकूल साँवल गौर अंग बिकार। मानहु नौतन घन घटा में तडित तरल अकार॥ अनमेष दृग दिए देखेही मुख मंडली वरनारि। मानहुँ श्रृंगार नवीन तरुप्राति रची कंचन वारि॥ हँसि हावभाव कटाक्ष घूंघट गिरत लेति सम्हारि। मनु हरन मुनि सोभा सुलैरति काम डारति वारि॥ अघऊरथ झमकि झकोर इत उत झलक मोतिन माल। ऋतु समै सावन जानि मानौ वगपांति उड़त विसाल॥ श्रीशीश फूल अमोल तरिवन तिलक सुंदर माल। सारी सुरंग मिलिनील लहँगा सोभित कंचुकी लाल॥ मन मुदित मोदित मानिनी मुख माधुरी मुसुकानि। ढर हरति ढरति हिंडोर डाँडी डरति धरि दुहुं पानि॥ उर उडत अंचल छोर छबि दुति पीतपट फहरानि। कहै सूर सो
उपमा नहीं कहुँ नेति निगमहु गानि॥९०॥ मलार ॥ गोपी गोविंदके हिंडोरे झूलन आय। रंगम हलमें जहँ नंदरानी खेलति सावनी तीज सुहाय॥ श्रीखंड खंभ मयारि सहित सुसुमर मरुवा बनाइ। ताषर कितिक जू भ्रमत भँवरा डाँडी जटित जराइ॥ हेम पटुली मध्य हीरा पूजि रोचन
लाइ। सखी विविध विचित्र राज्ञी मलारी मंगलगाइ॥ नंदलाल पावसकाल दामिनि नागरी नव संग। बोलत जु दादुर अरु पपीहि करति कोकिल रंग॥ तहँ वरहा नृत्यत वचन मुख दुति अलिचकोर बिहंग। बलि भाइ सहित गोपाल झूलत राधिका अर्धग॥ जलभरित सरवर सघन तरिवर इंद्र धनुस सुदेश। घनश्याम मध्य सफेद वग जुरि हरित महि चहुँ देश॥ गगन गर्जत बीजु तरपति मधुर मेह असेश। झूलहिं ते बिह्वल श्याम श्यामा शीश मुकुलित केश॥ ताटंक तिलक सुदेश झलकत खचित चूनी लाल। अकृत विकृत बदन प्रहसित कमल नैन विसाल॥ करजु मुद्रिका किंकिनी कटि चाल गजगति बाल। सूर भुररिषु रंग रंगे सखी सहित गोपाल॥९१॥ सुहवरािग ॥ झूलत सुंदर युगल किसोर। नँदनंदन बृषभानुनंदिनी पियत सुधारस नयन चकोर॥ भ्रुकुटी वक्र धनुष श्रीशोभित तिलकभाल मनो सायक जोर। मंद मंद मुसुकात श्याम घन निरखत करत कटाक्षन ओर॥ अंजनको पति रंजन लागे राजत अधरन दशन तमोर। मृगमद आड बने करकंकन मोतिन हार श्रृंगार न डोर॥ लियो शिरते पटु झटकि मनोहर उघरि गए कुच कलस कठोर। सूर सु निरखि भएवश प्रीतम तब प्यारी सो करत निहोर॥९२॥ अध्याय ॥३४॥ विद्याधर शापमोचन वृंदावनविहार शंखचूडदानववध वर्णन ॥ बिलावल ॥ नंद सब गोपी ग्वाल समेत। गए सरस्वतीके तट एक दिन शिव अंकाबि पूजा हेत॥ पूजा
करत सकल दिन बीत्यो होइ गई तहँ सांझ। ब्रजवासी सब श्रमित होइकैं सोइरहे वनमांझ॥ अर्थ निशा इक उर्ग आयकै लपटि गयो नँदपाइ। चौंकि परयो दुखपाइ पुकारयो हाहा कृष्ण छुडाय॥ ग्वालन मिलि श्रीकृष्ण जगाए छुवत पाँइ अहि दीनो छोड। विद्याधरको रूप धारि
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दशमस्कन्ध-१०
