पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(४१६) सूरसागर। . . कहो नाथ करैको तुमरी होड ॥ सव देवनके देव तुमहि हो मैं देख्यो अब तुमको जोई ॥ ऋषि अंगिरा शाप मोहिं दीन्हो भयो अनुग्रह सोई॥ हरिआज्ञाको पाय नाय शिर गयो.आपने लोक । सूरदास हरिके गुण गावत व्रज आए व्रजलोग ॥ ९३ ॥ जागो मोहन भोर भयो वदन उपारि श्याम तुम देखो रविकी किरनि प्रकाशकियो । संगी सखा ग्वार सब ठाढे खेलत हौ कछु खेलन यो । आँगन ठाढी है कुँअरि राधिका उनको कहा दुराइ लयो ॥ हाँसे मोहन मुसुकाय कह्यो कबहूँ वृषभानुके गेहगयो । सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको सर्वसुलै हरि आए दयो।। ६६॥ मैं हरिकी मुरली वनपाई। सुन यशुमति सँगछांडि आफ्नो कुँवरजगाइ दैनहों आई ॥ सुनतहि वचन विहसि उठि वैठे अंतर्यामी कुँवर कन्हाई । इहके संग हुती मेरी पहुँची दै राधे वृषभानु दोहाई । मैं नाहिन चितलाय निहारो चलौ और सव देहु वताई ।। सूरदास प्रभु मिलि अंतर्गति दुहुन पढी एकै चतुराई ॥ ९४ ॥ कान्हरो ॥ विहरत कुंजन कुंजविहारी । वग शुक विहंगपवन थकि थिर रह्यो तान अलापत जव गिरिधारी ॥ सरिता थकित थकित द्रुमवेली अधर धरति मुरली जब प्यारी । रवि अरु शशि देखो दोउ चोरन संका गहि तव वदन उज्यारी ॥ आभूषण सब सानि आपनेथकित भई ब्रजकी कुलनारी।सूरदास स्वामीकी लीला अब जो वृषभानु कुमारी९५ गुंडमलार ॥ गगन उठी घटाकारी तामें वगपंगति न्यारी न्यारी। कान्ह कृपाकरि देखिये सुरचापकी छवि वरन वरन रँगधारी ॥ वीच बीच दामिनी कौंधति जनु चंचल नारी । विटवाहर गृह गृह प्रति दुरिजाति आवति विकल मदनकी जारी ॥ वन वरुही चा तकरटै द्रुम दुति सघन संचारी। सूरश्याम हित जानिकै तब काम कोविद निजकर कुटी सँवारी ॥ ९६॥ सारंग ॥ अद्भुत कौतुक देखि सखीरी श्रीवृंदावन में होडपरीरी। उत घन उदित सहित सौदामिनि इतहि मुदित राधिका हरीरी। उत बगपांति सोभित इत सुंदर धामविलास सुदेश सरीरी। वहां धन गर्न इहां ध्वनि सुरली जलधर उत इत अमृत भरीरी ॥ उतहि इंद्रधनु इत वनमाला आति विचित्र हरिकंठ धरीरी। सूरसात प्रभु कुँवरि राधिका गगनकी सोभा दूरि करीरी।। ९७ ॥ सोरठ ॥ नवल नागरि नवल नागर किसोर मिलि कुंजकोमल कमल दलन सेज्या रची । गौर सॉवल अंग रुचिर तापर मिले सरसमणि मृदुल कंचन खची। सुरनीमी बंधुहित पिय मानि पियके भुजनमें कलहमोरुणमची। सुभग श्रीफल उरोज पाणि परसत रोपहूं करि गर्व हग भाग्य भामिनि चली॥ कोक कोटि करभ सरसिकहार सुरज विविध कल माधुरीकिमपी नाहिन बची। प्राण ये मन रसिक ललिता धी लोचन चषकि पिवति मकरंद सुखराशि अंतर सची ॥ ९८ ॥ नट ॥ राधे जलसुत्त कर जुधरे। आतिही अरुण अधिक छवि उपजाति तजतहंस सगरे । चुगत चकोर चले हैं. सन्मुख झझके रहे खरे । तव मुसिकाय वृषभानुनंदिनी दोऊ मिलि झगरे ॥ रवि अरु शशि दोऊ एकै रथ सन्मुख आनि अरे । सूरदास प्रभु कुंजविहारी आनंद उमगि भरे ॥ ९९ ॥ ॥ कान्हरो ॥ श्यामा वदन देखि हरि लाग्यो। यहै अपूर्व जानि जिय लघुता खीन इंदु एही दुख भाज्यो ।। क्रीडत कुंज अटा रजनी मुख प्रेम मुदित नवसत अँग साज्यो । विधु लक्षण जानत सुर नर सब मृग मद तिलक लाग्यो । विथकित रथ चक्रित अवलोकित सुंदरि सँग हरि राज विरा ज्यो । विस्मय मिटी शशि पषि समीपहि कहि अब सूर उभै हरि.गाज्यो॥२३००॥विलावलाकंदुक केलि.करत सुकुमारीअतिहि सूक्ष्म कटि तट आईजिमि विशद नितंव पयोधरभारी अंचल चंचल । फटी कंचुकी विलुलत वर कुच सटी उघारी । मानो नव जलद बंधुकीनविधु निकसी नभ कस -