कह्यो नाथ करैको तुमरी होड॥ सब देवनके देव तुमहि हो मैं देख्यो अब तुमको जोई॥ ऋषि अंगिरा शाष मोहिं दीन्हों भयो अनुग्रह सोई॥ हरिआज्ञाको पाय नाय शिर गयो आपने लोक। सूरदास हरिके गुण गावत ब्रज आए ब्रजलोग ॥९३॥ जागो मोहन भोर भयो बदन उपारि श्याम तुम देखो रविकी किरनि प्रकाशकियो। संगी सखा ग्वार सब ठाढे खेलत हौ कछु खेलनयो। आँगन ठाढी है कुँअरि राधिका उनको कहा दुराइ लयो॥ हाँसे मोहन मुसुकाय कह्यो कबहूँ वृषभानुके गेहगयो। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको सर्वसुलै हरि आए दयो॥५६॥
मैं हरिकी मुरली बनपाई। सुनै यशुमति सँगछांडि आपनो कुँवरजगाइ दैनहों आई॥ सुनतहि वचन विहँसि उठि बैठे अंतर्यामी कुँवर कन्हाई। इहके संग हुती मेरी पहुँची दै राधे वृषभानु दोहाई। मैं नाहिन चितलाय निहारो चलौ ठौर सब देहुँ बताई॥ सूरदास प्रभु मिलि अंतर्गति दुहुँन पढी एकै चतुराई॥९४॥ कान्हरो॥ विहरत कुंजन कुंजबिहारी। वग शुक विहंगपवन थकि थिर रह्यो तान अलापत जब गिरिधारी॥ सरिता थकित थकित द्रुमवेली अधर धरति मुरली जब प्यारी। रवि अरु शशि देखो दोउ चोरन संका गहि तब बदन उज्यारी॥ आभूषण सब
साजि आपने थकित भई ब्रजकी कुलनारी। सूरदास स्वामीकी लीला अब जोवै वृषभानु कुमारी॥९५॥ गुंडमलार ॥ गगन उठी घटाकारी तामें बगपंगति न्यारी न्यारी। कान्ह कृपाकरि देखिये सुरचापकी छबि वरन वरन रँगधारी॥ बीच बीच दामिनी कौंधति जनु चंचल नारी। विटबाहर गृह गृह
प्रति दुरिजाति आवति विकल मदनकी जारी॥ वन वरुही चा तकरटै द्रुम दुति सघन संचारी। सूरश्याम हित जानिकै तब काम कोविद निजकर कुटी सँवारी॥ ९६॥ सारंग ॥ अद्भुत कौतुक देखि सखीरी श्रीवृंदावन में होडपरीरी। उत घन उदित सहित सौदामिनि इतहि मुदित राधिका हरीरी॥ उत बगपांति सोभित इत सुंदर धामविलास सुदेश खरीरी। वहां घन गर्ज इहां ध्वनि
मुरली जलधर उत इत अमृत भरीरी॥ उतहि इंद्रधनु इत वनमाला आति विचित्र
हरिकंठ धरीरी। सूरसात प्रभु कुँवरि राधिका गगनकी सोभा दूरि करीरी॥९७॥ सोरठ ॥ नवल नागरि नवल नागर किसोर मिलि कुंजकोमल कमल दलन सेज्या रची। गौर साँवल अंग रुचिर तापर मिले सरसमणि मृदुल कंचन खची॥ सुरनीमी बंधुहित पिय मानि पियके भुजनमैं
कलहमोरुणमची। सुभग श्रीफल उरोज पाणि परसत रोषहूं करि गर्व दृग भाग्य भामिनि चली॥ कोक कोटि करभ सरसिकहरि सूरज विविध कल माधुरीकिमपी नाहिन बची। प्राण ये मन रसिक ललिता धी लोचन चषकि पिवति मकरंद सुखराशि अंतर सची॥९८॥ नट ॥ राधे जलसुत्त कर जुधरे। आतिही अरुण अधिक छबि उपजाति तजतहंस सगरे॥ चुगत चकोर चले हैं सन्मुख झझके रहे खरे। तब मुसिकाय वृषभानुनंदिनी दोऊ मिलि झगरे॥ रवि अरु शशि दोऊ एकै रथ सन्मुख आनि अरे। सूरदास प्रभु कुंजविहारी आनँद उमगि भरे॥९९॥॥ कान्हरो ॥ श्यामा बदन देखि हरि लाग्यो। यहै अपूर्व जानि जिय लघुत्ता खीन इंदु एही दुख भाज्यो॥ क्रीडत कुंज अटा रजनी मुख प्रेम मुदित नवसत अँग साज्यो। विधु लक्षण जानत सुर नर सब मृग मद तिलक लाग्यो॥ विथकित रथ चक्रित अवलोकित सुंदरि सँग हरि राज विराज्यो। विस्मय मिटी शशि पेषि समीपहि कहि अब सूर उभै हरि गाज्यो॥२३००॥ बिलावल ॥ कंदुक केलि करत सुकुमारी। अतिहि सूक्ष्म कटि तट आई जिमि विशद नितंब पयोधर भारी॥ अंचल चंचल फटी कंचुकी विलुलत वर कुच सटी उघारी। मानो नव जलद बंधुकीनविधु निकसी नभ कस
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सूरसागर।
