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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५१३

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सूरसागर।


भयो मंद॥ तमचर खगरोर अलि करैं तब सोर वेगि मोचन करहु शुभगल फंद। उठहु भोजन करहुशिशु खौरि उतारि धरहु जननी प्रति देहु रूप निजफंद॥ त्रियन दधि मथन करहिं मधुर ध्वनि श्रवण सुनि कृष्ण गुण विमल यश करत आनंद। सूर प्रभु हरिनाम उधारत जगजीवन गुण कौन देखिछकित भयो छंद॥१९॥ बिलावल ॥ जागिए गोपाल लाल ग्वाल द्वार ठाढे। रैनि अंधकार गयो चंद्रमा मलीन भयो तारा गण देखियत नहिं तराणि किरणि बाढे॥ मुकुलित भए कमल जाल गुंज करत भृंगमाल प्रफुलित वन षुहुप डार कुमुदिनि कुँभिलानी। गंधर्व गुण गान करत स्नान दान नेम धरत हरत सकल पाप वदत विप्र वेद वानी॥ बोलत नंद बार बार मुख देखें तुव कुमार गाइन भई बड़ीवार वृंदावन जैबे। जननी कहति उठो श्याम जानत जिय रजनि ताम सूरदास प्रभु कृपालु तुमको कछु खैबै॥२०॥ रसोई वर्णन ॥ भोजन भयो भावते मोहन। तातोइ जेइ जाहु गो गोहन॥ खीर खांड खीचरी सँवारी। मधुर महेरि सो गोपन प्यारी॥ राइ भोग लियो भात पसाई। मूंग ढरहरी हींग लगाई सदमाखन तुलसी दैतायो। घिरत सुवास कचोरा नायो॥ पापर बरी अचार परम शुचि। अदरख अरु निबुवन ह्वै है रुचि॥ सूरन करि तरि सरस तरोई। सोम सींगरी छमकि झोरई॥ भरता भँदा खटाई दीनी। भाजी भली भाँति दश कीनी॥ साग चना सँग सब चौराई। सोवा अरु सरसों सरसाई॥ वथुवा भली भाँति रचि राँध्यो। हींग लगाइ राइ दधि साँध्यो॥ पोई पर बर फाँग फरी चुनि। टेंटी टेंट सछोलि कियो पुनि॥ कुंदुरु और ककोरा कौरे। कचरी चार चचेडा सौरे॥ बने बनाई करेला कीने। लोन लगाइ तुरत तलिलीने॥ फूले फूल सहींजन छौके। मनरुचि होइ नाजुके औके॥ फूल करील कली पाकर नम। फली अगस्त्य करी अमृत सम॥ अरु यहि अँबिली दुई खटाई। जेवत षटरस जात लजाई॥ पेठा बहुत प्रकारन कीने। तिनसों सबै स्वाद हरि लीने॥ खीरा राम तरोई तामें। अरुचि नरुचि अंकुर जिय जामें॥ सुंदर रूपरतालू रातो। तरि करि लीन्हो अबहीं तातो॥ ककरी कचरी अरु कचनारयो। सुरसनिमो ननि स्वाद सँवारयो॥ कैयो भांति केरा करि लीने। दै करवँदा हरदि रँग भीने॥ वरवरील अरुवरा बहुत विधि। खारे खाटे मीठे हैं निधि॥ पानौरा राइता पकोरी। उभकौरी भुँगछी सुठि सौंरी॥ अमृत इड हर है रस सागर। बेसन सालन अधिकौ नागर॥ खाटी कढी विचित्र बनाई। बहुत बार जेंबत रुचि आई। रोटी रुचिर कनकबेसन करि। अजवाइनि सैंधौ मिलइ धरि॥ अबहिं अगाकरि तुरत बनाई। जे भजि भजि ग्वालन सँगखाई॥ माँडे माँडि दुनेरो चुपरे। वह घृत पाइ आपुहीउखरे॥ पूरि सपूरि कचौरी कौरी। सदल सुउज्ज्वल सुंदर सौरी॥ लुचई ललित लापसी सोहै। स्वाद सुवासु सहज मनमोहै॥ मालपुआ माखन मथि कीन्हे। ग्राह ग्रसित रविसम रँग लीन्हे॥ लावन लाडू लागत नीके। सेव सुहारी घेवर घीके॥ गोझा गूंदे गाल मसूरी। मेवा मिलै कपूरन पूरी॥ शशिसम सुंदर सरस अँदरसे। ऊपर कनी अमी जनु बरसे॥ बहुत जलेव जलेबी वोरी। नाहिन घटत सुधाते थोरी॥ देखत हरष होत है समी। मनहु बुदबुदा उपजत अमी॥ फेनी घुरि मिसि मिली दूधसँग। मिश्री मिश्रित भई एक रँग॥ साज्यो दही अधिक सुखदाई। ता ऊपर पुनि मधुर मलाई॥ खोवा खोइ औटिहै राख्यो। सुहै मधुर मीठे रस चाख्यो॥ बासौंधी सिखरनि अति सोधी। मिलै मिरच मेटत चकचौंधी॥ छाँछ छबीली धरी धुगारी। झरहैं उठत झारकी न्यारी। इतने जतन यशोदा कीन्हें। तब मोहने बालक सँग लीन्हें॥ बैठे आइ हँसत दोउ भैया। प्रेम मुदित परसतिहै मैया॥